इतिहासराजस्थान का इतिहास

मारवाङ चित्रकला शैली का इतिहास

मारवाङ चित्रकला शैली मारवाङ में भी चित्रकला की समृद्ध परंपरा अत्यन्त प्राचीन है, लेकिन राव मालदेव (1531-1562 ई.) के काल में मारवाङ शैली स्पष्ट दिखायी देने लगती है। राव मालदेव की सैनिक रुचि की अभिव्यक्ति जोधपुर दुर्ग में चोकेलाव महल के चित्रों में हुई है, जहाँ राम – रावण के युद्ध तथा सप्तशती के दृश्यों को अवतरित किया गया है। इस काल के चित्रों में भावों की अभिव्यक्ति, तना हुआ चेहरा, मछली जैसी आँखें, तथा गोलाकृति में पेङ-पौधे आदि मुख्य विशेषताएँ हैं। मोटा राजा उदयसिंह (1583-1595 ई.) द्वारा मुगलों की अधीनता स्वीकार करने के बाद मारवाङ की चित्रकला पर मुगल शैली का प्रभाव पङने लग गया। ऐसे प्रभाव का प्रथम दर्शन हमें 1610 ई. में चित्रित भागवत पुराण में होता है, जिसमें कृष्ण अर्जुन की बहुआयामी आकृतियाँ स्थानीय शैली की हैं जबकि उनकी वेश भूषा मुगलों जैसी है। गोपियों के चित्रों में उनकी वेश भूषा मारवाङी है, जबकि उनके आभूषण मुगलों की तरह हैं। 1623 ई. में चित्रित कल्याणी रागिनी के चित्र में नायक, नायिका को आलिंगनबद्ध किये हुए शयन कक्ष की ओर ले जा रहा है। यद्यपि यह चित्र मारवाङी शैली की मौलिकता लिये हुए है, लेकिन शयन कक्ष में दर्शाया गया लोटा मुगल शैली का है। इसी शैली में महाराजा सूरसिंह (1595-1620 ई.) के काल में ढोला-मारू के चित्रों में भी मुगल शैली का प्रभाव अधिक दिखायी देता है। यह संपूर्ण चित्र स्थानीय मौलिकता लिये हुए हैं, लेकिन ढोला की पगङी जहाँगीर शैली की है। ऐसा प्रतीत होता है कि मारवाङ की चित्रकला ने मुगल प्रभाव को स्वीकार करते हुए भी अपनी मौलिकता नहीं छोङी थी। महाराजा गजसिंह (1619-1638 ई.) के कुछ चित्र तो विशुद्ध मुगल शैली के हैं।

मारवाङ चित्रकला शैली

महाराजा जसवंतसिंह (1638-1678 ई.) ने मुगल कलाकारों को आमंत्रित कर राज्याश्रय प्रदान किया। महाराजा जसवंतसिंह का अधिकांश समय मुगल दरबार में ही बीता, अतः उनका मुगल शैली के प्रति मोह प्रबल था। 1662-63 ई. के लगभग बने महाराजा जसवंतसिंह के चित्र रंगों का चयन, आभूषणों की बनावट, वेश-भूषा, पृष्ठभूमि के भवन, उपवन की सजावट, हुक्का आदि जहाँगीर के काल की परंपरा के अनुकूल हैं। इस काल में बने चित्रों के विषय विभिन्न हैं। उनमें तत्काल प्रचलित प्रेम कथाओं के चित्रण, जैसे ढोला-मारू और सोहिनी-महीवाल के साथ-साथ केशव और मतिराम की साहित्यिक कृतियों पर आधारित चित्र, विभिन्न ऋतुओं का चित्रण (बारहमासा) और रागमाला के अलावा धार्मिक विषयों को भी चित्रित किया गया। चित्रों में लाल, पीले, काले, नीले और सुनहरे रंगों जैसे चमकीले रंगों की प्रधानता होने से चित्र बङे चात्ताकर्षक लगते हैं।

महाराणा अजीतसिंह (1708-1724 ई.) के शासन काल के प्रारंभिक वर्षों तक तो मुगल शैली का प्रभाव बढ नहीं सका, किन्तु 1715 ई. के बाद स्थानीय चित्र शैली पर मुगल शैली पूर्णतया बहुलता से होने लगा। चित्रों के विषय यद्यपि स्थानीय थे, लेकिन उनका प्रस्तुतीकरण पूर्णतया मुगल शैली में था। फलस्वरूप धीरे-धीरे मारवाङी चित्रकला की अपनी विशिष्टताएँ समाप्त होने लगी और वह केवल मुगल शैली की अनुकृति मात्र रह गयी। इसका प्रमाण 18 वीं शताब्दी के मध्य में बना शाही हरम का चित्र है, जिसमें रंगों का संयोजन केवल स्थानीय है, शेष संपूर्ण चित्र मुगल शैली की अनुकृति है। 18 वीं शताब्दी के अंत में महाराजा विजयसिंह (1752-1793 ई.) के काल में भक्तिरस और श्रृंगार रस के चित्र अधिक मिलते हैं, लेकिन मुगल विलासिता का तो प्रभाव था ही। महाराजा मानसिंह (1803-1843 ई.) के काल में भी कुछ अच्छे चित्रों का निर्माण हुआ, लेकिन इसके बाद मारवाङ की चित्रकला का हास आरंभ हो गया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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