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हूणों का विनाश कैसे हुआ

मिहिरकुल की पराजय के बाद हूणों की शक्ति का नाश हो गया। हूणों के छोटे मोटे आक्रमण मिहिरकुल की पराजय के बाद भी होते रहे, लेकिन इन आक्रमणों का कोई ज्यादा प्रभाव नहीं पङा। 550 ईस्वी में हूणों ने पुनः गंगा घाटी पर अधिकार करने का प्रयास किया, लेकिन इस बार मौखरि नरेश ईशान वर्मा ने उन्हें पराजित किया।

मौखरी वंश तथा हूण

अफसढ लेख में मौखरि सेना को हूण विजेता कहा गया है। हरहा लेख में शूलिक नामक एक जाति का उल्लेख मिलता है, जिसे ईशान वर्मा ने जीता था। इस शूलिक जाति का समीकरण हम हूणों से कर सकते हैं।

इस हूण आक्रमण का नेता मिहिरकुल का भाई था। इस हूण आक्रमण के बारे में ह्वेनसांग ने लिखा है, कि बालादित्य के हाथों मिहिरकुल की पराजय का लाभ उठाते हुए उसने राज्य पर अधिकार कर लिया।

मुद्राराक्षस से पता चलता है, कि मौखरि नरेश अवंति वर्मा ने म्लेच्छों को जीता था। यहां म्लेच्छों से तात्पर्य हूणों से ही है।

मौखरियों से पराजित होने के बाद कुछ समय के लिए हूणों की गतिविधियां कमजोर पङ गयी।

वर्धन वंश तथा हूण

6वीं शता. के अंत में हूणों ने एक बार फिर से उत्तरी-पश्चिमी भारत पर पुनः धावा बोला। इस बार थानेश्वर के वर्धनों का हूणों से युद्ध हुआ। हर्षचरित में प्रभाकरवर्धन को हूण-रूपी हरिण के लिये सिंह के समान (हूण हरिण केसरी) कहा गया है। उसने अपने बङे पुत्र राज्यवर्धन को हूणों से युद्ध करने के लिये उत्तर-पश्चिम की ओर भेजा।

हर्षचरित से पता चलता है, कि राज्यवर्धन का हूणों के साथ संघर्ष हुआ, जिससे उसके शरीर में बाणों के कई घाव हो गये थे। घायल होने के बावजूद भी राज्यवर्धन ने हूणों को पराजित किया तथा देश के बाहर खदेङ दिया।

वर्धनकाल के बाद हूणों का उल्लेख राजपूतकाल के कई अभिलेखों से प्राप्त होता है। ऐसा लगता है, कि हूणों के साथ निरंतर संबंद्ध रहने के कारण मालवा का समीपवर्ती क्षेत्र हूण-मंडल नाम से प्रसिद्ध हो गया था। भारत में बचे हुए हूण वहीं बस गये थे तथा उन्होंने हिन्दू संस्कृति के संस्कारों को अपना लिया।

गुर्जर-प्रतिहार, चेदि, राष्ट्रकूट, पाल और परमार वंशों के समय में उन्होंने कुछ लङाईयां करी, किन्तु भारतीय राजाओं ने उन्हें पराजित कर पूर्णतया अपने नियंत्रण में कर लिया।

राजपूत काल में हूण

राजपूत काल में हूणों का प्रथम उल्लेख गुर्जर-प्रतिहार शासक महेन्द्रपाल प्रथम के समय के ऊणालेख (899 ईस्वी) में मिलता है। इससे पता चलता है, कि महेन्द्रपाल के सामंत बलवर्मा ने हूण जाति से पृथ्वी को मुक्त किया था। यहां हूणों से तात्पर्य मालवा क्षेत्र के हूणों से ही है।

उत्तर-पूर्व में उनका बंगाल के पाल राजाओं से संघर्ष हुआ। बादल लेख से पता चलता है, कि पाल शासक देवपाल(810-850 ईस्वी) ने हूणों के दर्प को चूर्ण कर दिया। यहाँ भी मालवा क्षेत्र के हूणों की ओर ही संकेत किया गया है। उसके बाद परमारवंशी राजाओं के समय में हूणों की गतिविधियों का उल्लेख किया गया है।

पद्मगुप्त के नवसांकचरित से पता चलता है, कि परमार नरेश सीयक द्वितीय ने हूण राजकुमारों को मारकर उनके रनिवासों को वैधव्यगृहों में बदल दिया था।

सीयक द्वितीय के बाद उसके पुत्रों – मुंज तथा सिन्धुराज ने भी हूणों को पराजित किया था। कौथेम लेख में मुंज द्वारा हूणों की पराजय तथा हूण-मंडल के वाणिका नामक ग्राम को एक ब्राह्मण को दान में दिये जाने का वर्णन मिलता है। उदयपुर लेख से पता चलता है, कि सिंधुराज ने हूणों को हराकर उनके राज्य को जीता और उसे अपने साम्राज्य में मिला लिया।

कलचुरि नरेश कर्ण ने भी हूणों को पराजित किया था। इसका उल्लेख भेङाघाट के लेख में मिलता है। खैरा लेख से पता चलता है, कि कर्ण ने हूण वंशीया कन्या आवल्लदेवी के साथ विवाह किया था।

इससे ऐसा लगता है, कि हूणों ने इस समय तक हिन्दू समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था। गुजरात के पश्चिमी चालुक्यों के साथ भी हूणों के युद्ध तथा उनकी पराजय का उल्लेख उनके लेखों में मिलता है।

इस प्रकार हमें पता चलता है, कि राजपूतों के कई राजवंशों के साथ हूणों का युद्ध हुआ, किन्तु हर बार वे पराजित किये गये। उनमें वह शक्ति नहीं थी, जो पूर्ववर्ती हूणों में थी। उत्तरी तथा मध्य भारत के छोटे-छोटे भागों में हूण बस गये तथा उन्होंने क्रमशः अपने को भारतीय संस्कृति में विलीन कर लिया।

Reference : https://www.indiaolddays.com

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