भारतीय दार्शनिकों में शंकर के बाद रामानुज का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जिन्होंने अपने विचारों के माध्यम से अद्वैतवाद का वैयक्तिक भक्तिवाद के साथ सुन्दर समन्वय करने का प्रयास किया है। उनका जन्म 1017 में दक्षिण में हुआ तथा वे 120 वर्षों (1137 ई. तक)जीवित रहे। वे यमुनाचार्य के शिष्य थे। रामानुज उपनिषदों में अन्तर्निहित दार्शनिक विचारों की व्याख्या अपने ढंग से करते हैं तथा बताते हैं, कि यद्यपि ईश्वर ही एकमात्र पारमार्थिक सत्ता है तथापि वह अचेतन प्रकृति तथा चेतन आत्मा से विशिष्ट अथवा समन्वित हैं।इस कारण उनका मत विशिष्टाद्वैत कहा जाता है।
रामानुज सगुण ईश्वर के उपासक तथा प्रसिद्ध आचार्य थे। उन्होंने अपने विचारों के माध्यम से प्राचीन भागवत (वैष्णव)धर्म की परंपरा को आगे बढाते हुये उसे दार्शनिक आधार प्रदान किया है. उनके पूर्व अनेक ग्रंथों जैसे श्वेताश्वर उपनिषद्, महाभारत, विष्णु पुराण आदि में हमें सगुण ब्रह्म की उपासना से संबंधित उल्लेख मिलते हैं। रामानुज का दर्शन इसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है। उनके विचार हमें श्रीभाष्य तथा वेदार्थ संग्रह में प्राप्त होते हैं।गीता पर भी उन्होंने भाष्य लिखा है।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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