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अद्वैतवाद का संस्थापक कौन था

अद्वैतवाद का संस्थापक कौन था

शंकराचार्य संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित थे।उनका मत अद्वैतवाद के नाम से विख्यात है। यह उपनिषदों के बहुत निकट है। प्रस्थानत्रयी अर्थात् उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र तथा गीता पर लिखे गये भाष्यों के माध्यम से शंकर ने अपने मत का प्रतिपादन एवं समर्थन किया है। उपनिषदों में वर्णित विभिन्न दार्शनिक सिद्धांतों को एक सूत्र में पिरोकर उन्होंने उनको एक क्रमबद्ध दर्शन का रूप प्रदान किया है।

अद्वैत वेदान्त की मुख्य विशेषतायें इस प्रकार हैं-
  • निखिल सृष्टि में एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है।
  • यह दृश्यमान जगत माया का कार्य होने के कारण मिथ्या है।
  • जीव (आत्मा) तथा ब्रह्म में कोई भेद नहीं है।
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ब्रह्म

अद्वैत मत के अनुसार सृष्टि में एकमात्र तात्विक पदार्थ ब्रह्म ही है। वह एक ऐसी सत्ता है, जो सर्वव्यापी, निराकार, निर्विकार, अविनाशी, अनादि, चैतन्य तथा आनंद स्वरूप है। शंकर ने ब्रह्म का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये किसी युक्ति अथवा प्रमाण की आवश्यकता नहीं समझी है। वह प्रमाणों का विषय नहीं है।

वह ज्ञान का भी विषय नहीं है। ज्ञान का विषय वह हो सकता है, जिसे सीमित या परिच्छिन्न किया जा सके। ब्रह्म चूँकि असीम एवं अपरिच्छिन्न है, अतः वह ज्ञान का विषय नहीं हो सकता है। अपनी आत्मा के अस्तित्व से ही ब्रह्म की सिद्धि हो जाती है। श्रुतियाँ भी उसके अस्तित्व का प्रमाण हैं, जिनके अनुसार एक को जानने से सब कुछ ज्ञात हो जाता है।

ब्रह्म को सच्चिदानंद कहा गया है। इसका अर्थ यह है, कि सत्य, चैतन्य तथा आनंद स्वरूप है। उसे सत्य, ज्ञान तथा अनंत कहकर भी वर्णित किया गया है। ब्रह्म निर्गुण होने के कारण बुद्धि की सभी सीमाओं से परे है, जिससे संबद्ध होने के कारण वह सगुण अथवा सविशेष प्रतीत होता है। यही ईश्वर है, जो सृष्टि का कर्ता, पालक तथा संहारक प्रतीत होता है। इसी रूप में ईश्वर की उपासना की जाती है। यह व्यावहारिक दृष्टि है।

पारमार्थिक दृष्टि से विचार करने पर ब्रह्म सभी विशेषणों से परे हो जाता है। शंकर इसे परब्रह्म कहते हैं। यही ब्रह्म का वास्तविक स्वरूप है। ब्रह्म के अलावा कोई शक्ति नहीं है तथा इसके अंदर भी कोई शक्ति नहीं है। उसमें किसी भी गुण का आरोप नहीं किया जा सकता है। माया, यद्यपि उसकी शक्ति है, किन्तु फिर भी वह माया से लिप्त नहीं है। वह अनन्त एवं अद्वितीय है। व्यावहारिक दृष्टि से ब्रह्म में जिन गुणों तथा उपाधियों का आरोप किया जाता है, वह वस्तुतः उसका तटस्थ लक्षण है।

सृष्टि का कर्त्ता, पालक एवं संहारक होना उसका औपाधिक (आगन्तुक) गुण है, वास्तविक स्वरूप नहीं है। इससे भिन्न ब्रह्म क स्वरूप लक्षण है, जिसमें वह अद्वैत, निर्गुण एवं निर्विकार है। शंकर इसे स्पष्ट करने के लिये नट की उपमा देते हैं। एक साधारण नट रंग-मंच पर राजा की भूमिका प्रस्तुत करते हुये विविध प्रकार के राजोचित कार्य करता है। उसका राजत्व नाटक के चलते रहने तक ही है, बाद में फिर वह सामान्य नट बन जाता है।

यहाँ नाटक की दृष्टि से नट में जो राजोचित गुण मिलते हैं, वे उसके तटस्थ लक्षण हैं, जो उसके वास्तविक स्वरूप को बाधित नहीं करते।वस्तुतः वह व्यक्ति नट ही है, जो उसका स्वरूप लक्षण है। इसी प्रकार ब्रह्म तटस्थ लक्षण धारण कर जगत की रचना करता है तथा सगुण हो जाता है। किन्तु परमार्थतः वह निर्गुण और निर्विकार ही है। यही उसका स्वरूप लक्षण है, जो किसी भी प्रकार की उपाधियों के द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता। शंकर के अनुसार जो तत्वज्ञानी लोग हैं वे ब्रह्म को इसी रूप में देखते हैं तथा उसके विशेषणों तथा उसकी उपाधियों को मिथ्या मानते हैं।

इस प्रकार व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने पर परम तत्व ईश्वर है तथा पारमार्थिक दृष्टि से वह ब्रह्म है। शंकर ईश्वर को अपरब्रह्म तथा ब्रह्म को परब्रह्म कहते हैं।

आत्मा

यह ब्रह्म का ही पर्याय है तथा दोनों में कोई भी भेद नहीं है। एक ही परम तत्व आंतरिक रूप से आत्मा तथा बाह्य रूप से ब्रह्म है। अद्वैत मत के अनुसार यह स्वयं सिद्ध है तथा इसका अस्तित्व सिद्ध करने के लिये कोई प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं है। सभी को अपने अस्तित्व का बोध होता है। यह कोई नहीं कहता है, कि मैं नहीं हूँ। ब्रह्म के समान ही यह सत्, चित् तथा आनंद स्वरूप है। चैतन्य इसका आगन्तुक गुण नहीं है।

अपितु इसका स्वरूप ही है। आत्मा के अस्तित्व को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि अस्वीकार करने वाला स्वयं आत्मा ही है। इसके विषय में कोई शंका भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि यह सभी संशयों का आधार है। उपनिषदों में बारंबार ब्रह्म तथा आत्मा की एकता बतायी गयी है।

आत्मा नित्य प्रकाश अर्थात् ज्ञानस्वरूप है। वह न कर्त्ता न भोक्ता। यह शरीर, इन्द्रिय, अन्तः करण आदि से पृथक है। बुद्धि आदि उपाधियों से संयुक्त होने पर यह अपने को कर्त्ता तथा भोक्ता मानने लगता है। जब आत्मा अज्ञान की उपाधि से परिच्छिन्न हो जाता है तब वह जीव कहलाने लगता है।यह अज्ञान अथवा अविद्या ही है, जिसके कारण आत्मा कभी अपने को शरीर, कभी इन्द्रिय तथा कभी अन्य कुछ समझने लगता है।

तत्वतः आत्मा इन सभी से भिन्न, मनुष्य के शरीर के अंदर विद्यमान है। यही ब्रह्म या आत्मा संपूर्ण जगत का आधार है। अज्ञान का आवरण हटने पर आत्मा अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। शंकर यह नहीं मानते कि आत्मा ब्रह्ममय हो जाता है। अपितु उनका मत है, कि यह सदैव ब्रह्म ही है, कभी उससे भिन्न नहीं है। ब्रह्म या आत्मा के अलावा अथवा उसके अंदर भी कोई दूसरी शक्ति नहीं है, ऐसा शंकर का स्पष्ट मत है।

शंकर के अनुसार ब्रह्म या आत्मा पारमार्थिक सत्ता है, जबकि ईश्वर तथा जीव व्यावहारिक सत्तायें है। भौतिक दृष्टि से ईश्वर तथा जीव में भेद है। दोनों में स्वामी तथा सेवक का संबंध है। ईश्वर नियन्ता है तथा जीव शासित है। जीव कर्त्ता तथा भोक्ता है, पाप-पुण्य प्राप्त करता है तथा वही सुख-दुःख का अनुभव करता है। इसके विपरीत ईश्वर इन उपाधियों से रहित है। वह सर्वज्ञ, शक्तिमान तथा पूर्ण है।

वह जीव के भोगों को भोगनेवाला है। मुण्डकोपनिषद् में इनका रूपकात्मक वर्णन करते हुये बताया गया है – साथ रहने वाले तथा समान आख्यान वाले दो पक्षी एक ही वृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं। किन्तु उनमें से एक स्वादिष्ट पिप्पल अर्थात् कर्म फल का भोग करता है तथा दूसरा साक्षीि मात्र है।

ईश्वर तथा जीव दोनों ही ब्रह्म के रूप हैं, जिनमें पारमार्थिक सत्ता वही है। जिस प्रकार अंधकार में रस्सी में सांप तथा सीप में रजत का आभास हो जाता है, उसी प्रकार अज्ञातवश अद्वैत ब्रह्म या आत्मा में जीव का आभास हो जाता है।

मायावाद या माया का सिद्धांत

अद्वैत मत में माया, अज्ञान अथवा अविद्या का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिसके माध्यम से जगत को विवृत करने का प्रयास किया गया है। शंकर ने माया तथा अविद्या का प्रयोग प्रायः समान अर्थ में किया है। वे अध्यास को अविद्या कहते हैं। जहाँ जो वस्तु नहीं है, वहाँ उसे कल्पित करना भी अध्यास है। रस्सी में र्प की प्रतीति अध्यास का एक उदाहरण है। इसी प्रकार ब्रह्म के अलावा जो कुछ भी प्रतीति है वह माया या अविद्या है। माया की दो शक्तियाँ हैं – आवरण तथा विक्षेप। प्रथम के द्वारा वह सत्य को ढंक लेती है तथा द्वितीय के द्वारा वह उस पर दूसरी वस्तु को आरोपित कर देती है। इसी के कारण ब्रह्म, ईश्वर तथा आत्मा जीव बन जाता है।

शंकर ने माया की निम्नलिखित विशेषतायें निरूपित की हैं –

  • माया ब्रह्म की अन्तर्निहित शक्ति है। यह पूर्णतया ब्रह्म पर आश्रित एवं उससे अभिन्न है। यह ब्रह्म के समान ही अनादि है। ब्रह्म तथा माया का संबंध तादात्म्य कहा जाता है। यद्यपि माया ब्रह्म की शक्ति है, किन्तु ब्रह्म उससे लिप्त नहीं है। जो संबंध अग्नि तथा उसकी दाहकता में है वही ब्रह्म तथा माया में है। सृष्टि रचना के निमित्त ब्रह्म इस शक्ति को धारण करता है। वह अपनी इच्छानुसार इसका परित्याग कर सकता है। माया जङ है, जबकि ब्रह्मा विशुद्ध चैतन्य स्वरूप है।
  • माया सद्सद्निर्वचनीय अर्थात् सत्य, असत्य, अथवा इन दोनों से परे है। यह सत्य नहीं है, क्योंकि ब्रह्म से पृथक इसकी कोई सत्ता नहीं है। संसार को अध्यास रूप में प्रस्तुत करने के कारण यह असत्य भी नहीं है। ज्ञान के उदय के साथ माया विनष्ट हो जाती है, अतः यह सत्य नहीं है। किन्तु जब तक अज्ञान रहता है तब तक यह बनी रहती है, अतः हम इसे असत्य भी नहीं मान सकते। यह पूर्णतः अनिर्वचनीय है।
  • माया की सत्ता व्यावहारिक है। यह विवर्त्त मात्र है। यह अध्यास तथा भ्रांति स्वरूप है।यह मिथ्याज्ञान है।
  • माया का विनाश ज्ञान से संभव है। विद्या के उदित होते ही अविद्या का विलोप हो जाता है।
  • माया का आश्रय तथा विषय दोनों ही ब्रह्म हैं। यह त्रिगुणात्मिका अर्थात् सत्व, रज तथा तम, इन तीन गुणों से युक्त है। इनके बिना माया का कोई अस्तित्व नहीं है। माया के इन्हीं तीनों गुणों के कारण जगत में नाम-रूप की विभिन्नता देखने को मिलती है।

इस प्रकार माया ब्रह्म की एक ऐसी शक्ति है, जिसके ऊपर संसार का समस्त व्यवहार निर्भर करता है। शंकर के अनुसार जो ज्ञानी पुरुष हैं, वे इस माया की शक्ति से भ्रमित नहीं होते हैं तथा संपूर्ण सृष्टि में एक ही पारमार्थिक सत्ता के दर्शन करते हैं।

जगत की सृष्टि

शंकर के अनुसार जगत् मायावी ईश्वर का कौतुक मात्र है, जो अपनी क्रीङा के निमित्त इसकी रचना करता है। ब्रह्म निर्गुण तथा निर्विशेष होने से जगत का कारण नहीं हो सकता। अतः यह संसार माया का ही कार्य है। माया अपनी आवरण शक्ति से ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को ढंक लेती है, तथा विक्षेप शक्ति से उसमें नाम रूपात्मक जगत का अध्यास कर देती है। सांख्य मत के समान शंकर भी सत्कार्यवाद के इस सिद्धांत को मानते हैं, कि कार्य अपने कारण से भिन्न नहीं होता।

किन्तु सांख्य मत के अनुसार जहाँ कारण का कार्य अपने कारण से भिन्न नहीं होता। किन्तु सांख्य मत के अनुसार जहाँ कारण का कार्य में वास्तविक परिवर्तन होता है, वहाँ शंकर के अनुसार यह परिवर्तन आभासमात्र है, कार्य में कोई भी विकार नहीं उत्पन्न होता।इसे विवर्तवाद की संज्ञा दी गयी है। इसके अनुसार किसी कार्य के उत्पन्न होने पर उसके कारण भूत द्रव्य में कोई विकार नहीं आता। वस्तुतः सभी विकार आभास मात्र होते हैं।

यह माया या अविद्या है, जो सत् में असत् का आभास कराती है। यह परिवर्तनशील जगत आभास मात्र है। इस प्रकार अद्वैत मत के अनुसार निर्विकार ब्रह्म वह अधिष्ठान है, जिसके ऊपर माया दृश्य जगत का अध्यास कर देती है। ब्रह्म की सत्ता सभी में विद्यमान है।यह स्वयंप्रकाश है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं, कि उसमें अपने को प्रकट करने का स्वाभाविक गुण है। जो असत् है वह कभी भी अपने को प्रकट नहीं कर सकता है। अतः सत् एवं चैतन्यस्वरूप ब्रह्म ही अपने को नाना रूपों में प्रकट कर सकता है।

शंकर तीन प्रकार की सत्तायें स्वीकार करते हैं –

  1. प्रतिभासित सत्ता – किसी वास्तविक वस्तु में जो मिथ्या प्रतीति या आभास हो जाता है, उसे प्रतिभासित सत्ता कहते हैं। जैसे रस्सी से सर्प तथा शुक्ति में रजत की प्रतीति। ज्ञान के उदय के साथ ही इसका अंत हो जाता है।
  2. व्यावहारिक सत्ता – जिन विषयों को हम साक्षात् देखकर उनका ज्ञान प्राप्त करते हैं वे इसके अंतर्गत आते हैं।यह सत्ता प्रथम की अपेक्षा अधिक यथार्थ होती है, किन्तु यह अन्ततः सत्य नहीं है। संसार की सभी दृश्यमान वस्तुयें इसी के अन्तर्गत हैं।
  3. पारमार्थिक सत्ता – यह सर्वथा एक समान एवं अबाधित होती है।यही ब्रह्म या आत्मा है।

शंकर संसार को पूर्णरूपेण मिथ्या नहीं मानते। उनके अनुसार व्यावहारिक दृष्टि से यह सत्य है। इसी से हमारा लोक व्यवहार चलता है। किन्तु यह दृष्टि सामान्य मनुष्यों की है। ज्ञानियों की दृष्टि में तो एकमात्र सत्ता ब्रह्म ही है तथा अन्य सभी उसी के विवर्त हैं।

बंधन तथा मोक्ष

अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति वेदान्त भी बंधन तथा मोक्ष की समस्या पर विचार करता है। शंकर के अनुसार मोक्ष मानव जीवन का परम पुरुषार्थ है। जो इसे नहीं प्राप्त करता वह आत्महा है। यह संसार असत्य तथा दुःखों से परिपूर्ण है। केवल ब्रह्म ही सत्, चित् तथा आनंद (सच्चिदानंद) है। जीव अपने विशुद्ध रूप में ब्रह्म ही है, किन्तु अविद्या या अज्ञान के कारण यह अपना समीकरण शरीर, इन्द्रिय, मन आदि से स्थापित कर लेता है और अपने को कर्त्ता एवं भोक्ता मानने लगता है।

यह संसार के नाना सुख-दुःखों को भोगता है तथा विविध कर्मों को करता है। जीव भ्रांत होकर संसार तथा उसके विषयों को सत्य समझने लगता है। शरीर को आत्मा मानकर मनुष्य संसार-चक्र में घूमता रहता है। शंकर के अनुसार आत्मा का अपने विशुद्ध स्वरूप में स्थित होना ही मोक्ष है। दूसरे शब्दों में हम कह सकता है, कि आत्मसाक्षात्कार अथवा आत्मज्ञान ही मोक्ष है। चूँकि आत्मा तथा ब्रह्म एक ही हैं, अतः आत्मसाक्षात्कार ही ब्रह्मसाक्षात्कार है।

शंकर इस बात पर बारंबार बल देते हैं, कि परमतत्व का साक्षात्कार केवल ज्ञान से ही संभव है। अविद्या अथवा अज्ञान ही हमारे बंधन का कारण है, जिसकी निवृत्ति ज्ञान के उदय से हो सकती है।कर्म तथा भक्ति मोक्ष के मार्ग में सहायक हो सकते हैं। किन्तु ये प्रमुख साधन नहीं हैं। कर्म तथा उपासना परम तत्व के ज्ञान की प्रेरणा उत्पन्न कर सकते हैं तथा हमारे मस्तिष्क को शुद्ध बनाकर हमें ज्ञान प्राप्ति के योग्य बना सकते हैं।

किन्तु यह केवल ज्ञान ही है, जो अंत में मोक्ष की प्राप्ति करा सकता है। शंकर के मत में ज्ञान तथा कर्म दोनों भिन्न-भिन्न हैं तथा इनका एकीकरण संभव नहीं है। कर्म से केवल चित्त की शुद्धि होती है, परम ब्रह्म की प्राप्ति नहं। आत्मा, कर्त्ता तथा भोक्ता नहीं है, अतः जीव के कार्यों से उसका कोई संबंध नहीं है। इस प्रकार ये दोनों परस्पर विपरीत हैं। कर्म केवल उनके लिये है, जो अविद्याग्रस्त हैं, न कि प्रबुद्ध व्यक्तियों के लिये।

शंकर ने मोक्ष के अधिकारी के लिये निम्नलिखित साधनों से युक्त होना अनिवार्य बताया है-
  • उसे नित्य और अनित्य पदार्थों का बोध होना चाहिये।
  • उसे लौकिक तथा पारलौकिक दोनों प्रकार के भोगों की इच्छा को त्याग देना चाहिये।
  • उसे शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति तथा तितिक्षा इन छः साधनों से युक्त होना चाहिये। शम तथा दम से तात्पर्य क्रमशः मन तथा इन्द्रियों के संयम और नियंत्रण से है। वेदांत में निष्ठा रखना श्रद्धा है। चित्त को ज्ञान के साधन में नियुक्त करना समाधान तथा निउपरति है। सर्दी, गर्मी आदि सहन करने की शक्ति को तितिक्षा कहा गया। गीता में भी वर्णित है, कि सर्दी-गर्मी तथा सुख-दुःख देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग क्षणभंगुर तथा अनित्य हैं, अतः तुम उनको सहन करो। जिस पुरुष को ये व्यथित नहीं करते वही मोक्ष के योग्य होता है।
  • मोक्ष के साधक में इसके लिये प्रबल उत्कण्ठा होनी चाहिये।

उपर्युक्त साधनों को साधन चतुष्ट्य की संज्ञा दी गयी है। इनसे युक्त व्यक्ति ही ज्ञान तथा उसके माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इन चार साधनों से समन्वित व्यक्ति को किसी ऐसे योग्य गुरु की शरण में जाना चाहिये जो स्वयं ब्रह्मज्ञानी हो। इस प्रकार शंकर गुरु की महत्ता को भी स्वीकार करते हैं। गुरु विद्यार्थी को वेदांत की शिक्षा देकर यह ज्ञान करा देता है, कि उसके अन्तःकरण में स्थित शुद्ध चैतन्यस्वरूप, नित्य एवं निर्विकार आत्मा ही ब्रह्म है।

इसी को उपनिषद् तत् त्वम् असि कहते हैं। इस अवस्था को श्रवण कहा जाता है। जिसमें मोक्ष का पिपासु व्यक्ति योग्य गुरु के उपदेश ग्रहण करता है। इसके बाद मनन की अवस्था है। इसमें मोक्षार्थी गुरु के उपदेश पर युक्तिपूर्वक विचार करता है। निरंतर अभ्यास से उसके ह्रदय में अहं ब्रह्मास्मि अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ की भावना जागृत हो जाती है। मोक्षार्थी इसी का रट लगाता है। अंतिम अवस्था निदिध्यासन है, जिसमें वह तत्व के ध्यान में लीन हो जाता है। उसके ह्रदय में स्थित अविद्या का नाश हो जाता है, जिससे स्वयं प्रकाश आत्मा या ब्रह्म प्रकाशित हो उठता है तथा व्यक्ति उसका साक्षात्कार कर लेता है।यही शंकर के अनुसार मोक्ष की अवस्था है।

इस प्रकार मोक्ष का अर्थ है अविद्या अथवा अज्ञान को ज्ञान के द्वारा दूर करना। शंकर दो प्रकार की मुक्ति मानते हैं – जीवन मुक्ति तथा विदेह मुक्ति

ज्ञान प्राप्त किया हुआ व्यक्ति तत्काल मुक्त हो जाता है, यद्यपि उसका भौतिक शरीर बना रहता है। शऱीर प्रारब्ध कर्मों का फल होने के नाते तत्काल नष्ट हो जाता है। जीवन मुक्त व्यक्ति सांसारिक कर्मों को निष्काम भाव से करता है। वह उनसे उसी प्रकार निर्लिप्त रहता है जैसे कमल के पत्ते पर पङा हुआ जल बिन्दु। वह सांसारिक प्रपंचों के भ्रम में पुनः नहीं फँसता।

ज्ञान रूपी अग्नि उसके पहले से संचित कर्मों को भस्म कर देती है, जिससे उसके द्वारा किये जाने वाले कर्म नये फलों को नहीं उत्पन्न करते। ज्ञानी व्यक्ति संसार में रहते हुये भी सुख-दुःख, हानि-लाभ, निन्दास्तुति आदि से कभी भी चलायमान नहीं होता है। शंकर निष्काम कर्म की महत्ता को स्वीकार करते हैं। मीमांसा दर्शन में यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान पर ही बल दिया गया है। किन्तु शंकर इन्हें त्याज्य एवं मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में बाधक समझते हैं।

कर्म तीन प्रकार के बताये गये हैं – संचित, प्रारब्ध तथा क्रियमाण। संचित कर्म से तात्पर्य पूर्व जन्मों के जमा हुये कर्मों से है। पूर्व काल के वे कर्म जिनका फल भोग किया जाता है प्रारब्ध कहे जाते हैं तथा इस जीवन के जमा कर्मों को क्रियमाण कहा जाता है। ज्ञान की प्राप्ति होने पर संचित कर्मों का लक्ष्य तथा क्रियमाण कर्मों का निरोध हो जाता है। किन्तु प्रारब्ध कर्म बने रहते हैं तथा शरीर को उनका फल कुछ काल तक भोगना पङता है। क्रमशः उसकी शक्ति समाप्त हो जाती है। इसके साथ ही भौतिक शरीर का नाश हो जाता है। यह विदेह मुक्ति है। ज्ञानी व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता है और वह सदा के लिये भवनबंधन से छुटकारा पा जाता है।

शंकर इस बात को नहीं मानते कि मोक्ष कोई नयी अवस्था है।उनके अनुसार यह प्राप्त की ही प्राप्ति है। आत्मा सदैव नित्य एवं मुक्त है। केवल अज्ञानावरण से वह बंधनग्रस्त दिखाई देता है। मोक्ष की अवस्था परमानंद की अवस्था है। पूर्ण तथा अखंड ब्रह्म आनंदमय है। अतः उसका साक्षात्कार कर आत्मा भी आनंदमय हो जाता है। आत्मा का व्यक्तित्व परमात्मा में मिलकर एकाकार हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त होने पर कोई भेद शेष नहीं रह जाता तथा सभी प्रकार के नानात्व एवं भ्रान्तियाँ समाप्त हो जाती हैं।

इस प्रकार शंकर ने अपने अद्वैतवाद का प्रतिपादन अत्यन्त युक्तिपूरक ढंग से किया है। भारतीय दर्शनों में उनका दर्शन शिरोमणि है तथा संसार के दार्शनिक भी इसे अत्यन्त सम्मान देते हैं। शंकर की तर्कशक्ति बङी प्रबल थी तथा उन्होंने अपने मत को सिद्ध करने के लिये अपने समकालीन दार्शनिकों के मतों का अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से खंडन किया। वेदों को वे महत्त्व देते थे तथा उन्हें साक्षात ब्रह्म के मुख से निःसृत मानते थे।

किन्तु वेदों के ज्ञानकाण्ड का ही उन्होंने समर्थन किया। कर्मकाण्डों के वे घोर विरोधी थे। सांख्य आदि हिन्दू दर्शनों तथा जैन बौद्ध आदि नास्तिक विचारधाराओं का भी उन्होंने खंडन किया है। वे शब्द-प्रमाण को अधिक महत्त्व देते हैं। उनकी सबसे बङी विशेषता यह है कि वे किसी भी मत के अन्धानुकरण के विरोधी हैं। उनका स्पष्ट मत है, कि तर्क की कसौटी पर परखने के बाद ही हमें किसी मत को ग्रहण करना चाहिये।

वे हमें श्रुति का अंधानुकरण करने को भी नहीं कहते। उनके अनुसार श्रुति तथा तर्क में विरोध उत्पन्न होने पर तर्क को ही प्रमाण मानना चाहिये क्योंकि वह हमारे अनुभव के अधिक निकट है। सत् तथा असत् में विभेद करने का हमारा एकमात्र आधार तर्क ही है। किन्तु शंकर के मत में कुछ कमियाँ भी हैं।

उनका मायावाद तथा जगत को भ्रम मानने के सिद्धांत संतोषप्रद नहीं है। इसमें वही व्यक्ति विश्वास कर सकता है, जिसकी दृढ आस्था उपनिषदों में हो। अन्य मतावलंबी इस युक्ति को स्वीकार नहीं कर सकते। शंकर वेदान्त की यह आलोचना सही लगती है, कि यह हमारे लौकिक जीवन के लिये नैतिक प्रेरणा करने में असमर्थ है। संसार को मिथ्या मानने पर मनुष्य की प्रवृत्ति लौकिक इतिहास के निर्माण में नहीं रह जायेगी तथा हमारे समस्त क्रियाकलाप ठप पङ जायेंगे। डॉ. देवराज के शब्दों में इस प्रकार यह कहा जा सकता है, कि अद्वैत वेदांत हमें भावात्मक, नैतिक तथा ऐतिहासिक प्रयत्न या प्रयत्नशीलता की सबल प्रेरणा नहीं देता।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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