इतिहासमध्यकालीन भारत

बंगाल के पाल शासक कौन थे

बंगाल के पाल शासक – हर्ष के समकालीन शशांक के बाद पाल वंश के नेतृत्व में बंगाल की शक्ति संगठित हुई और देखते-देखते इसकी गणना उत्तरी भारत की प्रमुख शक्तियों में होने लगी। पाल वंश की स्थापना बौद्ध धर्म के अनुयायी गोपाल (750-770 ई.) ने की थी। बंगाल के सामंतों ने बंगाल की राजनीतिक कलह तथा उथल-पुथल को समाप्त करने के लिये गोपाल की योग्यता से प्रभावित होकर उसे अपना शासक चुना था। इन सामंतों ने राज्य के हित के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थ का बलिदान किया। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के अनुसार गोपाल पुंड्रवर्धन (बोगरा जिला) के एक क्षत्रिय परिवार में उत्पन्न हुआ था। उसने युद्ध द्वारा राज्य का विस्तार किया तथा राज्य को दृढ संगठन भी प्रदान किया। गोपाल ने ओदंतपुरी(बिहार) में एक मठ भी बनवया था। बंगाल का पहला बुद्धिष्ठ राजा माना जाता है।

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बंगाल के पाल शासक निम्नलिखित थे-

धर्मपाल

गोपाल का पुत्र धर्मपाल (770-890ई.) अत्यंत योग्य शासक प्रमाणिक हुआ और उसने बंगाल को उत्तरी भारत के प्रमुख राज्यों की श्रेणी में स्थापित कर दिया। धर्मपाल के समय उत्तरी भारत में कन्नौज पर आधिपत्य के लिये त्रिपक्षीय संघर्ष की भूमिका तैयार हो रही थी। मालवा तथा राजस्थान के प्रतिहार और दक्षिण के राष्ट्रकूट गंगा घाटी के उर्वरक भू-भाग पर आधिपत्य स्थापित करने के लिये पूरे मनोबल और सैन्यबल से प्रेरित हो रहे थे। अपने विस्तारवादी अभियान में धर्मपाल पहले प्रतीहार वत्सराज से पराजित हुआ, फिर राष्ट्रकूट ध्रुव के सामने भी इसे हार का सामना करना पङा। किंतु धर्मपाल प्रतिहार शक्ति पर राष्ट्रकूट के आघात से लाभ उठाने में समर्थ हुआ। उसने कन्नौज पर आक्रमण करके इंद्रायुध को गद्दी से हटाकर चक्रायुद्ध को अपने संरक्षण में कन्नौज का शासक बनाया। इस कारण से कन्नौज में धर्मपाल द्वारा आयोजित एक सभा में भोज (बरार), मत्स्य (जयपुर), मद्र (केन्द्रीय पंजाब), करु (थानेश्वर), यदु, (पंजाब), यवन (सिंध का अरब शासक), अवंति (मालवा का एक भाग), गांधार (पश्चिमी पंजाब तथा पूर्वी काबुल घाटी) तथा कीर (कांगङा) के शासकों ने इसका आधिपत्य स्वीकार कर लिया। यह आकस्मिक नहीं है कि ग्यारहवीं शताब्दी के गुजराती कवि सोड्ढल ने धर्मपाल को उत्तरापथ स्वामिन कहा है किंतु इतना होने पर भी धर्मपाल की यह सफलता दीर्घकालीन साबित नहीं हुई। प्रतिहार नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज की गद्दी से चक्रायुद्ध को हटाकर धर्मपाल को चुनौती दी और मुंगेर के युद्ध में उसे पराजित भी कर दिया। इसी समय राष्ट्रकूट गोविंद तृतीय ने नागभट्ट पर भीषण आक्रमण किया। इसका लाभ उठाते हुए धर्मपाल ने पुनः अपने राज्य के अनेक भागों पर अधिकार कर लिया। उस काल में प्रसिद्ध परमेश्वर, परम-भट्टारक, महाराजाधिराज आदि विरुद उसकी राजनीतिक प्रतिष्ठा के परिचायक हैं।

देवपाल

अपने पिता के ही समान यह भी योग्य तथा साम्राज्यवादी शासक था। पाल साम्राज्य को संगठित रखने के साथ ही इसने लगातार युद्ध द्वारा अपने राज्य का विस्तार किया। देवपाल के प्रतिहार नागभट्ट द्वितीय को कन्नौज से खदेङने में सफलता प्राप्त की और वह उत्तरी भारत की विजय में संलग्न हो गया। अभिलेखों से पता चलता है, कि उसने उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में विंध्य तक आक्रमण किया था। पूर्वोत्तर में उसने आसाम और उत्कल के शासकों से अपना आधिपत्य स्वीकार किया था। किंतु ये दोनों शीघ्र ही स्वतंत्र हो गए। संभवतः उसने द्रविङ (पाण्डो) तथा राष्ट्रकूट शासकों से भी युद्ध किया। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रतिहार नागभट्ट को हराने के बाद उसने पंजाब तथा कंबोज (हूणों के विरुद्ध) में भी सैनिक अभियान किया था। धर्मपाल तथा देवपाल का तिब्बत से भी युद्ध होने का उल्लेख प्राप्त होता है। प्रतिहारों से उसका कई बार युद्ध हुआ। उसने मिहिरभोज को भी पराजित किया था। अरब यात्री सुलेमान ने देवपाल को प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट शासकों से अधिक शक्तिशाली माना है। इसमें कोी संदेह नहीं कि बंगाल को उत्तर भारत की तत्कालीन राजनीति में प्रतिष्ठित स्थान प्रदान कराने का श्रेय धर्मपाल तथा देवपाल को ही दिया जाना चाहिए।

पाल वंश के इतिहास में सन् 850-988 ई. तक का काल अवनति का काल रहा है। इस वंश के विग्रहपाल प्रथम, नारायणपाल, राज्यपाल, गोपाल द्वितीय, विग्रहपाल द्वितीय शांतिप्रिय शासक थे। राष्ट्रकूटों तथा प्रतिहारों के आक्रमण से बंगाल की शक्ति निर्बल हो गयी थी, यहाँ तक कि पाल साम्राज्य से अनेक भाग अलग हो गए थे।

महिपाल प्रथम (988-1038 ई.)

विग्रहपाल द्वितीय के उत्तराधिकारी महिपाल के समय पाल राज्य का विस्तार मगध या दक्षिणी बिहार तक था। उसने पालवंश की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को पुनरुज्जीवन देकर अपनी योग्यता प्रमाणित की। लगातार युद्ध द्वारा उसने उत्तरी, पश्चिमी तथा पूर्वी बंगाल पर अपना पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया। साथ ही अपने राज्य की सीमा उसने वाराणसी तक बढा ली। किन्तु राजेन्द्र चोल (1021-1023 ई. के बीच) तथा कलचुरी गांगेयदेव के आक्रमणों से इसकी शक्ति तथा प्रतिष्ठा पर गहरा आघात पहुँचा। फिर भी बंगाल तथा बिहार के अधिकांश भाग इसकी अधीनता में थे। एक लंबे काल के अंतराल के बाद पाल वंश की सत्ता पुनः स्थापित करने के कराण इसे पाल वंश का दूसरा संस्थापक भी माना गया है।

नयपाल (1038-1055 ई.)

महिपाल के उत्तराधिकारी नयपाल को लंबे समय तक कलचुरी कर्ण के साथ युद्ध में रत रहना पङा था। इस तरह के आज अनेक प्रमाण मिलते हैं कि बौद्ध आचार्य श्रीज्ञान की मध्यस्थता से दोनों राज्यों में शांति स्थापित हुई थी। उसके उत्तराधिकारी विग्रहपाल तृतीय को भी कलचुरी कर्ण, चालुक्य विक्रमादित्य चतुर्थ तथा कोंसल के शासक महाशिवगुप्त यायाति के आक्रमणों का सामना करना पङा था जिसके कारण पाल साम्राज्य के अनेक भाग स्वतंत्र हो गए। किन्तु किसी प्रकार से वह बंगाल, गौङ तथा मगध को अपने अधीन रख सकने में समर्थ रहा। अपने भाई महिपाल द्वितीय तथा सरपाल को गद्दी से हटाकर रामपाल (1077-1120 ई.) ने युद्ध तथा कूटनीति से पालवंश की अंतिम गरिमा को कुछ और समय के लिये जीवित रखा। उसने वारेंद्री (उत्तरी बंगाल) में विजय प्राप्त की और आसाम के शासक को अपने अधीन कर लिया। यह राजा कलिंग के शासकों की बढती हुई शक्ति को रोकने में भी समर्थ रहा। गोविंद चंद्र गहङवाल के परिवार से वैवाहिक संबंध द्वारा इसने उसे पाल साम्राज्य की ओर नहीं बढने दिया। उसे इस वैवाहिक संबंध से प्राप्त होने वाली मित्रता का बङा लाभ हुआ। उसने पश्चिमी बंगाल तथा बिहार के शासक नान्यदेव को पाल राज्य में दखलंदाजी नहीं करने दी। नयपाल के बाद कुमारपाल, गोपाल तृतीय तथा मदनपाल ने तीस वर्षों तक शासन किया। किंतु इस काल में आंतरिक कलह, सामंतों के विद्रोह तथा अन्य राज्यों के आक्रमण के कारण पाल राज्य का अंत हो गया।

पाल वंश के शासकों ने बंगाल को राजनीतिक एकता प्रदान करके सांस्कृतिक समुन्नति का मार्ग प्रस्तुत किया है। साथ ही ये शासक बंगाल का महत्त्व (विशेषकर उत्तरी भारत की राजनीति में ) लगभग चार सौ वर्षों तक स्थापित करने में सफल रहे। उनके राज्यकाल में बंगाल के बौद्धधर्म का अनेक रूपों में पर्याप्त उत्कर्ष हुआ।

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