इतिहासराजस्थान का इतिहास

मेवाङ में जन आंदोलन

मेवाङ में जन आंदोलन – मेवाङ को, इसकी राजधानी के नाम से, उदयपुर राज्य भी कहा जाता है। अपने गौरवपूर्ण इतिहास के कारण मेवाङ राजस्थान का सर्वाधिक प्रतिष्ठित राज्य था। मेवाङ में जन जागरण का कार्य वहाँ के किसान आंदोलनों ने किया था। मोतीलाल तेजावत ने भीलों और गिरासियों को अन्तर्राज्य स्तर पर संगठित कर उनमें भी नये प्राण फूँक दिये। इन घटनाओं से, भले ही किसी राजनीतिक संगठन की स्थापना न हुई हो, राजनीतिक संगठन स्थापित होने की पृष्ठभूमि अवश्य तैयार हो गयी थी। हरिपुरा काँग्रेस के प्रस्ताव के बाद राज्यों में राजनीतिक आंदोलन का उत्तरदायित्व राज्यों के नेताओं पर आ जाने के फलस्वरूप माणिक्यलाल वर्मा उदयपुर आये और बलवंतसिंह मेहता की अध्यक्षता में 24 अप्रैल, 1938 ई. को गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया तथा माणिक्यलाल वर्मा को राज्य से निष्कासित कर दिया। वर्माजी ने अजमेर में मेवाङ का वर्तमान शासन नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसमें मेवाङ शासन की कटु आलोचना की गयी तथा मेवाङ प्रजा मंडल पर लगायी गयी पाबंदी हटाने के लिये, मेवाङ के प्रधानमंत्री धर्मनारायण काक को पत्र लिखा। किन्तु इन प्रयत्नों का जब कोई प्रभाव नहीं पङा तब राज्य सरकार को 4 अक्टूबर, 1938 ई. से सत्याग्रह आरंभ करने की धमकी दी गयी। प्रत्युत्तर में प्रो.प्रेमनारायण माथुर को राज्य से निष्कासित कर दिया गया। अब प्रजा मंडल के सामने आंदोलन करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था।

अक्टूबर, 1938 ई. में विजयादशमी के दिन रमेशचंद्र व्यास ने सत्याग्रह आरंभ किया। श्री व्यास गिरफ्तार कर लिये गये। इस सत्याग्रह में लगभग 250 व्यक्तियों को या तो दंडित किया गया अथवा निर्वासित कर दिया गया। वर्माजी अजमेर से इस सत्याग्रह का संचालन कर रहे थे। फरवरी, 1939 ई. में वर्माजी को भी धोखे से बाँध दिया और उन्हें बुरी तरह से पीटा। महात्मा गाँधी ने 18 फरवरी, 1939 ई. को अपने हरिजन समाचार-पत्र में वर्माजी पर किये गये इस अत्याचार की कङी भर्त्सना की। वर्माजी पर देशद्रोह का मुकदमा चलाकर दो वर्ष के कारावास की सजा दे दी गयी। किन्तु वर्माजी का स्वास्थ्य खराब होने के कारण जनवरी, 1940 ई. में उन्हें अजमेर ले जाया गया और वहाँ उन्हें रिहा कर दिया गया। वर्माजी ने गाँधीजी के निर्देशानुसार सत्याग्रह आंदोलन स्थगित कर दिया। इन्ही दिनों मेवाङ में प्रधानमंत्री धर्मनारायण काक के स्थान पर सर टी.विजय राघवाचार्य को नया प्रधानमंत्री बनाया गया। मेवाङ सरकार ने 22 फरवरी, 1941 ई. को प्रजा मंडल पर लगी पाबंदी हटा ली, भले ही सरकार ने यह कार्य महाराजा के जन्म दिन पर किया हो। शीघ्र ही प्रजा मंडल की लोकप्रियता बढ गयी और राज्य भर में उसकी शाखाएँ स्थापित हो गयी। 25-26 नवम्बर, 1941 ई. को मेवाङ प्रजा मंडल का प्रथम अधिवेशन वर्माजी की अध्यक्षता में हुआ। भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के नेता आचार्य कृपलानी और विजयलक्ष्मी पंडित इसमें भाग लेने उदयपुर आये। इस अधिवेशन में मेवाङ में उत्तरदायी शासन की माँग की गयी।

भारत छोङो आंदोलन से पूर्व बंबई में रियासती कार्यकर्त्ताओं की बैठक में भाग लेने के पश्चात् माणिक्यलाल वर्मा उदयपुर लौटे तथा अपने सहयोगियों से विचार विमर्श के बाद महाराजा को पत्र भेजा जिसमें लिखा कि 24 घंटे के अंदर वे ब्रिटिश सरकार से संबंध विच्छेद कर दें अन्यथा आंदोलन छेङ दिया जायेगा। दूसरे ही दिन 21 अगस्त, 1942 को वर्माजी को गिरफ्तार कर लिया गया और इससे प्रजा मंडल का आंदोलन आरंभ हो गया। उदयपुर में पूर्ण हङताल रही तथा प्रजा मंडल के कार्यकर्त्ताओं की गिरफ्तारियाँ आरंभ हो गयी। विद्यार्थी भी इस आंदोलन में कूद पङे। विद्यार्थियों ने तोङ-फोङ की कार्यवाही करके आंदोलन को तीव्रतम बना दिया। शिवचरण माथुर ने अपने साथियों के साथ गुना-कोटा के बीच रेलवे के एक पुल को डायनामाइट से ध्वस्त कर दिया। आंदोलन के दौरान लगभग 600 विद्यार्थी गिरफ्तार किये गये। उदयपुर के इस आंदोलन का स्वरूप अन्य राज्यों से कुछ भिन्न था। क्योंकि कुछ अन्य राज्यों में स्थानीय नेता इस आंदोलन को केवल स्थानीय लक्ष्यों के संदर्भ में सोचते थे जबकि उदयपुर के नेता इसे भारतीय आंदोलन का ही एक भाग समझते थे। 1943 ई. में शनैः शनैः प्रजा मंडल के नेताओं को जेल में छोङ दिया गया। 1945 ई. में राज्य सरकार ने प्रजा मंडल पर लगे प्रतिबंध, जो आंदोलन के दौरान लगाये थे, समाप्त कर दिये। राज्य में राजनीतिक गतिविधियों को जीवित रखने के लिये राष्ट्रीय नेताओं की जयंती मनाना, प्रभात फेरियाँ निकालना अथवा 26 जनवरी, को स्वतंत्रता दिवस मनाना आदि कार्य किये गये।

माणिक्यलाल वर्मा ने 31 दिसंबर, 1945 ई. से जनवरी, 1946 को अखिल भारतीय देशी लोक परिषद का सातवाँ अधिवेशन उदयपुर में बुलाया। इस अधिवेशन की अध्यक्षता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने की। इस अधिवेशन में भारतीय राज्यों में उत्तरदायी शासन स्थापित करने पर अत्यधिक बल दिया। इस अधिवेशन से राज्य में अभूतपूर्व जागृति आयी। भारत में तेजी से हो रहे राजनीतिक परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए 1946 ई. में महाराणा ने एक संविधान निर्मात्री समिति नियुक्त की, जिसमें प्रजा मंडल द्वारा मनोनीत कुछ सदस्य भी शामिल किये गये। इस समिति ने 29 सितंबर, 1946 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। राज्य सरकार ने समिति की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि इसमें कार्यकारिणी को व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी बनाया गया था। महाराणा ने 2 मार्च, 1947 ई. को मेवाङ के नये विधान की घोषणा की, लेकिन यह विधान जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप न होने के कारण प्रजा मंडल ने उसे अस्वीकार कर दिया। तत्पश्चात् महाराणा ने के.एस.मुंशी को अप्रैल, 1947 ई. में अपना संवैधानिक सलाहकार नियुक्त किया। उन्होंने एक नया संविधान बनाया, जिसे 23 मई, 1947 को प्रताप जयंती के अवसर पर लागू कर दिया। प्रजा मंडल ने इसे अप्रगतिशील और अस्पष्ट बताया, क्योंकि इसमें जागीरदारों को अपेक्षाकृत अधिक अधिकार दे दिये गये थे। मेवाङ क्षत्रिय परिषद ने इसे प्रजा मंडल के समक्ष समर्पण की संज्ञा दी। महाराणा ने अंतरिम काल के लिये प्रजा मंडल के दो प्रतिनिधि और क्षत्रिय परिषद के एक प्रतिनिधि को मंत्रिमंडल में लेने की घोषणा की। दोनों दलों ने महाराणा का निमंत्रण स्वीकार कर लिया।

प्रजा मंडल ने मेवाङ के संविधान का जबरदस्त विरोध किया। अतः महाराणा ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए 11 अक्टूबर, 1947 को संविधान में अनेक संशोधनों की घोषणा की। किन्तु इससे प्रजा मंडल की मुख्य माँग कि कार्यकारिणी व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी हो, पूरी नहीं हुई। प्रजा मंडल की साधारण सभा की बैठक नाथद्वारा में हुई। संविधान को द्वेषपूर्ण मानते हुए भी इसने निर्वाचनों में भाग लेना स्वीकार कर लिया। फरवरी सन् 1948 ई. में चुनाव हुए, जिनमें प्रजा मंडल के 8 उम्मीदवार निर्विरोध निर्वाचित हो गये। 6 मार्च, 1948 को महाराणा ने अपने जन्म दिन पर कुछ और सुधारों की घोषणा की। इसमें महाराणा ने दीवान (प्रधानमंत्री) के पद को छोङकर शेष मंत्रिमंडल को विधान सभा के प्रति उत्तरदायी बनाना स्वीकार कर लिया। महाराणा ने बिना किसी हिचकिचाहट के भारतीय संघ में शामिल होना भी स्वीकार कर लिया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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