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उन्नीसवीं सदी का जापान

उन्नीसवीं सदी का जापान

उगते सूर्य का देश अर्थात् जापान कई द्वीपों का समूह है, जिसमें चार द्वीप क्यूशु, शिकोकू, होन्सू और होकायङी प्रमुख हैं। इन द्वीपों का सिलसिला उत्तर में कमचटका द्वीप से शुरू होता है, और दक्षिण में फार्मोसा द्वीप पर जाकर समाप्त होता है। जापान के पश्चिम में कोरिया स्थित है, जो चीन तथा एशिया से जापान का स्थल संबंध स्थापित करता है और इसी कारण जापान के लिये कोरिया का विशेष महत्त्व रहा है।

जापानी द्वीपों का इलाका पहाङी है और अनेक ज्वालामुखी पर्वत भी हैं। कृषि योग्य भूमि की काफी कमी है और खनिज संपदा की दृष्टि से भी जापान आत्मनिर्भर नहीं कहा जा सकता। परिणामस्वरूप जापानी लोग प्राचीनकाल से ही कठोर परिश्रमी और अध्यवसायी रहे हैं।

जापान का प्राचीन धर्म शितो के नाम से प्रसिद्ध था। इस धर्म में प्राकृतिक पूजा तथा भूत-प्रेतों में विश्वास की भावना अधिक प्रबल थी। छठी सदी में जापान में बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ और अधिकांश जापानियों ने इस धर्म को अपना लिया। वैसे कन्फ्यूशियस और लाओत्से के विचारों का भी थोङा-बहुत जापानियों पर प्रभाव पङा, फिर भी शितो धर्म पूर्णतया नष्ट नहीं हुआ और इसका प्रभाव भी बना रहा।

जापान की राजनीतिक पृष्ठभूमि
जापान

प्राचीनकाल के आरंभ से ही जापान में राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था का उदय हो चुका था। जापान के विभिन्न भागों में अलग-अलग परिवारों ने अपना शासन कायम कर लिया था। जिम्मोतेन्नो नामक पराक्रमी व्यक्ति ने अन्य सभी परिवारों को अपने अधीन कर लिया और यामातो नामक नगर को अपनी राजधानी बनाया।

इसी नगर के नाम पर जिम्मो के राजवंश का नाम यामातो पङा। तब से ही जापान पर यामातो राजवंश का शासन चला आ रहा था। केन्द्रीय सरकार के नियंत्रण को सुदृढ बनाने के लिये कई तरह के प्रशासनिक सुधार कार्यान्वित किये गये, जिनमें से एक था – देश के भिन्न-भिन्न भागों में सरकारी अधिकारियों को नियुक्त करना।

समय के साथ-साथ इन अधिकारियों के पद वंशानुगत बना दिये गये और सरकार की तरफ से करमुक्त जमीनें भी प्रदान की गयी। इन्हीं अधिकारियों से जापान के सामंत वर्ग का उदय एवं विकास हुआ। ये लोग डेम्पो के नाम से पुकारे जाते थे। धीरे-धीरे इन सामंतों में राजदरबार में प्रमुखता प्राप्त करने तथा शासन सत्ता को अपने हाथों में लेने के लिये प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गयी। 1192 ई. में सर्वप्रथम योरीतोमो नामक सामंत को अपना प्रभाव स्थापित करने में सफलता मिली और सम्राट ने उसे शोगून अर्थात् बर्बर विजयी सेनापति का पद प्रदान किया।

अन्य पदों की भाँति यह पद भी वंशानुगत हो गया। शासन की बागडोर अब शोगून के हाथ में आ गयी। अतः डेम्बो में इस पद को प्राप्त करने की प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गयी। परिणामस्वरूप शोगून का पद एक परिवार से दूसरे परिवार में आता-जाता रहा। 1603 ई. में इस पर तोकूगावा परिवार का अधिकार हो गया, जो 1867 ई. तक कायम रहा।

पश्चिमी देशों के संपर्क से पूर्व का जापान

पश्चिमी देशों के संपर्क में आने से पूर्व जापान की आर्थिक स्थिति तो ठीक थी, परंतु राजनीतिक स्थिति ठीक नहीं थी। शासन का प्रमुख सम्राट माना जाता था, परंतु वह शासन नीति का निर्माता नहीं था। सम्राट तथा उसका परिवार क्योतो के राज प्रासाद में रहता था और उसे राजकीय आय का एक निश्चित भाग दे दिया जाता था।

जापानी लोग अपने सम्राट को ईश्वर का अंश समझते थे और सामान्य लोगों को तो सम्राट से मिलने की भी मनाही थी। सम्राट की वास्तविक शक्ति शोगून के हाथ में थी। इस समय इस पद पर तोकूगावा के परिवार का अधिकार था। शोगून का निवास स्थल येडो में था और वह इसी नगर से शासन संचालन करता था।

इस परिवार के शोगूनों के काल में विदेशियों के लिये जापान के द्वार बंद रखे गये और सामंतों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगा दिये गये। तोकूगावा परिवार के समर्थक सामंतों को ऊँचे पद प्रदान किये गये तथा इस परिवार के विरोधी सामंतों को शक्तिहीन बना दिया गया।

इससे जापान में शांति बनी रही, व्यापार-वाणिज्य तथा उद्योग-धंधों का विकास हुआ और जापान शेष संसार से पृथक होकर चैन की बंसी बजाता रहा। उन्नीसवीं सदी में पश्चिमी राष्ट्रों ने उसके रमणीय एकान्तवास को समाप्त कर दिया।

पश्चिमी देशों के साथ संधियाँ

पुनर्जागरण के बाद यूरोपियन नाविक एशिया के जलमार्गों की खोज करते-करते जापान तक जा पहुँचे। जापान के साथ संपर्क स्थापित करने का सर्वप्रथम प्रयास 1542 ई. में पुर्तगालियों ने किया था। 16 वीं सदी के अंत तक स्पेनिश और 17 वीं सदी के प्रारंभ में डच और अंग्रेज भी जापान पहुँचे। इन लोगों ने दक्षिणी जापान से प्रवेश किया और नागासाकी में अपनी कोठियां कायम की। इसके बाद ईसाई-धर्म प्रचारक भी जापान आ पहुँचे और उन्होंने अपना धर्म प्रचार शुरू किया।

आरंभ में जापानियों ने विदेशियों का स्वागत किया, परंतु इनके आपसी झगङों को देखकर वे चौकन्ने हो गये। 1637 ई. में एक कानून द्वारा पश्चिमी देशों के साथ संपर्क विच्छेद कर दिया गया। स्पेन, पुर्तगाल तथा इंग्लैण्ड के व्यापारियों को जापान में आने से मना कर दिया गया तथा जापानियों को भी इनके साथ व्यापार करने से मना कर दिया गया। केवल डच व्यापारियों को नागासाकी में रहकर व्यापार करने की अनुमति दी गयी।

जापान

19 वीं सदी के प्रारंभ में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप वाष्पचालित बङे-बङे जहाज दुनिया के हर कोने में चक्कर लगाने लगे। प्रशांस महासागर में आने-जाने वाले जहाजों को प्रायः कोयले और पानी की कमी हो जाया करती थी और जहाजों की मरम्मत की आवश्यकता भी आ पङती थी।

अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण जापान का इस काम की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान हो गया था, परंतु जापान विदेशियों के लिये अपने द्वार बंद रखना चाहता था, जबकि पश्चिमी देशों के लिये जापान के द्वार को खुलवाना अत्यधिक आवश्यक हो गया था। इस काम को संयुक्त राज्य अमेरिका ने पूरा किया और पश्चिमी देशों के लिये जापान के द्वार खुल गए।

19 वीं सदी के द्वितीय चरण तक संयुक्त राज्य अमेरिका ने प्रशांत महासागर के तट तक अपना प्रसार कर लिया था और केलिफोर्निया बंदरगाह का विकास हो जाने के बाद से प्रशांत महासागर में अमेरिकन जहाजों का आवागमन बढने लग गया था। इन जहाजों की मरम्मत के लिये किसी सुविधाजनक स्थान की आवश्यकता थी।

इस दृष्टि से जापान उपयुक्त स्थान था, क्योंकि चीन में अन्य यूरोपीय शक्तियाँ अपना भाग्य आजमा रही थी अतः अमेरिका ने जापान में अपना भाग्य आजमाने का निश्चय किया और 1840 ई. में अमेरिका ने अपने दो जहाज येडो की खाङी में भेजे ताकि जापान के साथ राजनीतिक संपर्क कायम किया जा सके।

अमेरिका के इस प्रथम प्रयास को सफलता नहीं मिली. इसके कुछ समय बाद ही चीन और इंग्लैण्ड में अफीम युद्ध लङा गया, जिसमें चीन को पराजित होना पङा और यूरोपीयन राष्ट्रों के लिये अपने कुछ बंदरगाह खोलने पङे। इस घटना का प्रभाव जापान और अमेरिका, दोनों देशों पर पङा। जापान ने सोचा कि युद्ध में पश्चिमी देशों को पराजित करना असंभव होगा और पराजित हो जाने के बाद पश्चिमी देशों को मुँह-माँगी सुविधाएँ देनी पङेंगी। इससे तो अच्छा होगा कि उन्हें अपनी तरफ से ही सुविधाएँ दे दी जायँ ताकि जापान युद्ध के विनाश और अपमान से सुरक्षित रहे।

दूसरी तरफ, इस घटना से अमेरिका में उत्साह फैल गया और वह सोचने लगा कि जब इंग्लैण्ड चीन जैसे विशाल देश को पराजित करके सुविधा प्रापत कर सकता है, तो अमेरिका जापान जैसे छोटे से राष्ट्र से वांछित सुविधाएँ क्यों नहीं प्राप्त कर सकता। इसलिये 1853 ई. में अमेरिका ने कमोडोर पेरी के नेतृत्व में चार जहाज जापान भेजे।

जापानियों ने पेरी को आगे बढने से रोकना चाहा, परंतु वह जापान के समुद्री तट पर पहुँच गया और वहां के जापानी अधिकारियों को अपने राष्ट्रपति का पत्र दिया, जिसे जापान सम्राट तक पहुँचाने को कहा गया। पेरी एक वर्ष पहले से भी अधिक शक्तिशाली जहाजी बेङे के साथ जापान पहुँचा तो शोगून ने परिस्थिति का सही मूल्यांकन करते हुये अमेरिका के साथ संधि कर ली।

इस संधि के अनुसार जापान के तीन बंदरगाह अमेरिका के लिये खोल दिये गये, जहाँ से वे कोयला, रसद और पानी ले सकते थे और अपने जहाजों की मरम्मत भी करवा सकते थे। जहाज के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने पर अमेरिकी नाविकों को जापान में आश्रय लेने की सुविधा भी दी गयी। जापानी सरकार ने अपनी राजधानी में अमेरिकी सरकार के एक प्रतिनिधि को रखना भी मंजूर कर लिया। इस प्रकार, अमेरिका को सभी वांछित सुविधाएँ प्राप्त हो गयी और जापान भी पश्चिमी देशों के राजनीतिक संपर्क में आ गया।

इसके बाद 1854 ई. में इंग्लैण्ड के साथ, 1855 ई. में रूस के साथ और 1857 ई. में हालैण्ड के साथ भी जापान ने इसी प्रकार की संधियाँ कर ली।

जापान में सम्राट की शक्ति का पुनरुद्धार

सम्राट की शक्ति का पुनरुद्धार का अर्थ है – मेजी शासन की पुनः स्थापना। जापान में पश्चिमी देशों के प्रवेश ने विदेशियों के विरुद्ध एक नए आंदोलन को जन्म दिया। चूँकि पश्चिमी देशों के साथ संधियाँ करने का दायित्व शोगून का था, अतः जनता उसके विरुद्ध हो गयी।

इस आंदोलन का ध्येय विदेशियों का बहिष्कार, शोगून की पदच्युति और सम्राट की शक्ति की पुनः स्थापना था। इस आंदोलन से पश्चिमी देशों को भी ज्ञात हो गया कि राज्य की सर्वोपरि शक्ति वास्तव में क्योतो स्थित सम्राट में है और संधियों पर उसके हस्ताक्षर होना अति आवश्यक है।

अतः वे सम्राट से सीधा संपर्क आवश्यक समझने लगे। क्योतो के राजदरबार में शोगून के विरोधी सामंतों ने भी सम्राट को शोगून तथा उसके द्वारा की गयी संधियों के विरुद्ध भङकाया। फल यह हुआ कि शोगून के विरुद्ध प्रबल जनमत तैयार हो गया। जापान में सम्राट का आदर करो, विदेशियों को भगा दो का नारा गूँजने लगा।

इसी बीच आंदोलन ने थोङा उग्र रूप धारम कर लिया और विदेशियों पर आक्रमण किये जाने लगे। ब्रिटिश तथा अमेरिकी दूतावासों को जला दिया गया और एक अन्य अवसर पर कुछ अंग्रेज नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। इन हिंसक वारदातों के पीछे शोगून विरोधी सामंतों का प्रत्यक्ष हाथ था।

मौजूदा शोगून इन आक्रमणों को रोकने में असमर्थ रहा। इस पर पश्चिमी देशों ने संयुक्त रूप से कार्यवाही करने का निश्चय किया। पश्चिमी जहाजों तथा सैनिकों ने शोगून विरोधी अथवा आंदोलन को भङकाने वाले सामंतों के किलों पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट कर दिया।

इन सब घटनाओं से शोगून की प्रतिष्ठा और शक्ति धूल में मिल गई, परंतु इससे सम्राट और विरोधी सामंतों को भी सबक मिल गया कि पश्चिमी देशों से झगङा मोल लेने में हानि के अलावा कुछ नहीं मिलने वाला है। ऐसे समय में 1866 ई. में बूढे शोगून की मृत्यु हो गयी और केइकी नया शोगून बना।

केइकी एक समझदार तथा विचारवान व्यक्ति था और वह समय को पहचानने में सफल रहा। 1867 ई. में बूढे सम्राट का स्वर्गवास हो गया और मुत्सुहितो नया सम्राट बना। उस समय उसकी आयु केवल 24 वर्ष की थी, परंतु वह एक योग्य तथा बुद्धिमान शासक सिद्ध हुआ। उसने मेजी की उपाधि धारण की, जिसका अर्थ है – बुद्धिमतापूर्ण शासन। उसने अपनी उपाधि को सार्थक कर दिखाया। 1868 ई. में केइकी ने स्वेच्छा से शोगून पद से त्याग पत्र दे दिया।

अब शासन की वास्तविक तथा कानूनी शक्ति सम्राट के हाथ में आ गयी। इस घटना को इतिहास में सम्राट की शक्ति का पुनरुद्धार अथवा मेजी शासन की पुनः स्थापना के नाम से पुकारा जाता है।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
Wikipedia : जापान

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