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ब्रह्म समाज के संस्थापक,सिद्धांत एवं उद्देश्य

ब्रह्म समाज

ब्रह्म समाज (Brahmo Samaj)

सन् 1850 ई.तक लगभग संपूर्ण भारत में अंग्रेजी शासन स्थापित हो गया था। भारतीयों की राजनीतिक स्वतंत्रता की समाप्ति हो गयी थी। 1857 की क्रांति ने अंग्रेजी शासन को उखाङ फेंकने का प्रयत्न किया लेकिन यह प्रयास असफल रहा। देश में लार्ड विलियम बैंटिक के समय से अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बना दिया गया था।

भारतीयों ने अंग्रेजी साहित्य, इतिहास आदि का अध्ययन करना प्रारंभ कर दिया था। रेल,डाक,तार आदि ने देश के विभिन्न भागों के लोगों को एक-दूसरे के संपर्क में ला दिया। समाचार-पत्रों ने भी पारस्परिक संपर्क बढाया। कुछ भारतीयों ने विदेश यात्रा भी की।ब्रह्म समाज जैसी संस्थाओं ने भी जन्म लिया।

ब्रह्म समाज(brahm samaaj)जैसी संस्थाओं के कारण भारतीयों का दृष्टिकोण अधिक विस्तृत होने लगा। वे अपनी सभ्यता और संस्कृति की तुलना पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति से करने लगे। पाश्चात्य विद्वानों की ओर से भारतीयों के धर्म व संस्कृति पर कटु प्रहार किये गये, जिससे वे बहुत क्षुब्ध हुए, लेकिन साथ ही जब उन्होंने अपने समाज में धार्मिक अंधविश्वास, आडंबर, पाखंड और सामाजिक कुरीतियों, बाल-विवाह, सती प्रथा, विधवा-विवाह नहीं होना, छुआछूत आदि की ओर दृष्टिपात किया तो शर्म से उनका सिर झुक गया।

अब भारतीयों ने यह अनुभव किया कि उन्हें पाश्चात्य सभ्यता और कुरीतियों को दूर करना चाहिए। फलस्वरूप देश के विभिन्न भागों में धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन प्रारंभ हुए,इन आंदोलनों में से एक ब्रह्म समाज नामक संस्था भी थी।

ब्रह्म समाज

राजा राममोहन राय नामक व्यक्ति ब्रह्म समाज के संस्थापक थे, राजा राममोहन राय का जन्म एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में 22 मई, 1774 ई. को (कुछ विद्वानों के अनुसार 1772 ई.) में हुआ था।राजा राममोहन राय अरबी, फारसी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषाओं के अच्छे विद्वान थे।प्रारंभ में उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी में नौकरी की थी, इसलिए इनको ईसाई पादरियों के संपर्क में आने का अवसर मिला।

राजा राममोहन राय ने वेद, उपनिषद आदि का गहरा अध्ययन किया। वह हिन्दुओं के धार्मिक अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों से बहुत क्षुब्ध थे।

धार्मिक और सामाजिक क्षेत्रों की बुराइयों को दूर करने के लिए राजा राममोहन राय ने सन 1828 ई. में कलकत्ता में ब्रह्म समाज की स्थापना की।

ब्रह्म समाज के सिद्धांत

  • राजा राममोहन राय का मत था कि वैदिक धर्म अत्यन्त पवित्र, शुद्ध, सरल और अनुकरणीय है और जिसमें मूर्तिपूजा, अंधविश्वास आदि का कोई स्थान नहीं है।
  • परमात्मा कभी जन्म नहीं लेता, वह संपूर्ण गुणों का भंडार है और सृष्टि का रचयिता और संरक्षक है।
  • सब जाति के लोगों को ईश्वर की पूजा करने का अधिकार है। पूजा मन से होती है न कि मंदिर में मूर्ति के सामने।
  • मनुष्य को पाप का त्याग कर सुद्ध आचरण और परोपकार को अपनाना चाहिए।
  • कोई पुस्तक दैवीय नहीं है, प्रत्येक में कोई न कोई त्रुटि होती है।
  • ईश्वर पापियों और पुण्यात्माओं को उनके कर्मों के अनुसार दंड देता है।

ब्रह्म समाज का सामाजिक दृष्टिकोण

राजा राममोहन राय के प्रयत्नों व आग्रह के कारण ही विलियम बैंटिक ने सती प्रथा के विरुद्ध कानून बनाया था। उन्होंने भ्रूण-हत्या, बाल-विवाह, छुआछूत आदि के प्रति आवाज उठाई थी।

पं. जवाहरलाल नेहरू ने उनके विषय में लिखा है, वे केवल विद्वान और अन्वेषक ही नहीं थे, एक सुधारक भी थे। आरंभ में उन पर इस्लाम का प्रभाव पङा था और बाद में ईसाई धर्म का, लेकिन फिर भी वे अपने धर्म पर दृढता के साथ जमे रहे। उन्होंने अपने धर्म में जुङ गई कुरीतियों और कुप्रथाओं को हटाने की बहुत कोशिश की।

श्री के.एम. पणिक्कर – ब्रह्म समाज सुधार का मूल्यांकन करते हुए कहते हैं –
धार्मिक सुधारों में राजा राममोहन राय ने जो योगदान दिया उसको भारतवासी कभी नहीं भूल सकते हैं।

सुभाषचंद्र बोस के अनुसार, वे भारतीय पुनर्जागरण के मसीहा थे।

वैसे तो ब्रह्म समाज केवल बंगाल तक ही सीमित रहा (और वहाँ भी उसके अनुयायियों की संख्या बहुत कम रही) और बाद में इसका दो शाखाओं में विभाजन हो गया, फिर भी इसने हिन्दुओं की महान सेवा की और देश के अन्य सुधार आंदोलनों को प्रोत्साहन दिया।

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