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बाजीराव प्रथम (1720-40) का इतिहास

बाजीराव प्रथम

बाजीराव प्रथम (Bajirao I) (1720-40)

1720 में शाहू ने बालाजी विश्वनाथ के बङे पुत्र बाजीराव प्रथम को पेशवा नियुक्त कर दिया। यद्यपि वह केवल 19 वर्ष का युवक था परंतु उसकी सूझबूझ अद्भुत थी। उसे अपने पिता से कूटनीति तथा प्रशासन में बहुत प्रशिक्षण प्राप्त था।

बाजीराव के सम्मुख कार्य बहुत कठिन था। दक्षिण के निजाम उसके चौथ तथा सरदेशमुखी प्राप्त करने के अधिकार को चुनौती दे रहा था। स्वराज्य का एक बङा भाग जंजीरा के सिद्दियों के अधीन था। शिवाजी के वंशज कोल्हापुर के शंभूजी, शाहू की सर्वोच्च सत्ता का स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे तथा अन्य मराठा सरदार स्वायत्तता प्राप्त करना चाहते थे। बाजीराव ने एक सफल खिलाङी की तरह इन सब गुत्थियों को सुलझा लिया। उसकने दक्कन में अपनी सर्वोच्चता पुनः स्थापित कर ली और उत्तर विजय की योजना बनाई। उसने मुगल साम्राज्य के भावी पतन से मराठों के लिये लाभ उठाने का निश्चय किया और शाहू को इन शब्दों में ललकाराः अब समय आ गया है कि हम विदेशियों को भारत से निकाल दें और हिन्दुओं के लिये अमर कीर्ति प्राप्त कर लें। आओ हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखाएं तो स्वयं ही गिर जाएंगी। हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।
शाहू इस तरुण पेशवा की ललकार से अति प्रभावित हुए और बोले, नहीं, आप निश्चय ही इसे हिमालय के पार गाङ देंगे। आप सत्य ही योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं। 
बाजीराव ने हिन्दू पद पादशाही के आदर्श का प्रचार किया और इसे लोकप्रिय बनाया ताकि अन्य हिन्दू राजे इस योजना में मुगलों के विरुद्ध इनका पक्ष लें और साथ दें।

निजाम से संबंध

आसफजाह निजामुलमुल्क जो 1713-15 और 1720-21 तक दक्कन का वाइसराय रह चुका था, 1724 में पुनः दक्कन में आ विराजमान हुआ। चूंकि वह स्वयं एक स्वायत्त राज्य बनाना चाहता था, वह मराठों से ईर्ष्या करता था। उसने इस प्रश्न को हल करने के लिये कूटनीति अपनाई। यह जानते हुए कि वह मराठों के देश में जीत नहीं सकता उसने कोल्हापुर गुट को प्रोत्साहित कर मराठों के बीच फूट डलवाने का प्रयत्न किया। जब 1725-26 में बाजीराव कर्नाटक गया हुआ था, तो उसने शंभूजी की सैनिक सहायता की और शाहू को अपनी अधीनता स्वीकार कराने में लगभग सफलता प्राप्त की। परंतु पेशवा ने लौट कर इस बिगङी परिस्थिति को संभाल लिया और 7 मार्च, 1728 को पालखेङ के समीप निजाम को करारी हार दी। उसे मुंगी शिवागांव की संधि मानने को बाध्य कर दिया जिसके अनुसार निजाम ने शाहू को चौथ कर सरदेशमुखी देना, शंभूजी को सहायता न देना, विजित प्रदेश लौटाना तथा बंदी छोङ देना स्वीकार किया।
निजाम की इस हार से दक्कन में मराठों की सर्वोच्चता स्थापित हो गयी और उनका पूर्व तथा दक्षिण में प्रसार करना अब केवल समय का प्रश्न था। शंभूजी के षङयंत्र असफल हो गए और अंत में उसने वारना की संधि (अप्रैल, 1731) से शाहू की अधीनता स्वीकार कर ली। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इससे सब लोग बाजीराव की कूटनीति तथा सैनिक नेतृत्व का लोहा मान गए और उन्हें अपने स्वप्न साकार करने की प्रेरणा मिली।

गुजरात तथा मालवा विजय
1573 में अकबर की गुजरात विजय के पूर्व ही गुजरात भारत तथा पश्चिमी एशिया तथा पूर्वी अफ्रीका के बीच व्यापार का प्रमुख केन्द्र बन गया था। 1705 में खाण्डेराव दहाङे के नेतृत्व में मराठों ने गुजरात पर एक धावा किया था। सैयद हुसैन अली और विश्वनाथ के बीच हुई बातचीत में मराठों ने गुजरात से भी चौथ प्राप्त करने का अधिकार मांगा था परंतु वे असफल रहे थे। इसके बाद मराठों ने गुजरात पर अनेक अभियान किए तथा कई जिलों से चौथ ली। मुगल शासन लुप्तप्रायः हो गया था। 1730 के मार्च मास में मुगल सूबेदार सरबुलंद खां ने बाजीराव के छोटे भाई चिमनजी के साथ संधि की, जिसमें मराठों का चौथ तथा सरदेशमुखी प्राप्त करने का अधिकार स्वीकार कर लिया गया था। परंतु मुगल अधिकार की अंतिम कङी 1753 तक नहीं टूटी।
मालवा उत्तर भारत तथा दक्कन को जोङने वाली एक कङी थी। दक्कन तथा गुजरात को जाने वाले व्यापार मार्ग यहां से गुजरते थे। मराठों ने महाराष्ट्र में मुगलों के आक्रमणों के प्रतिकार के रूप में मालवा पर 18 वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में आक्रमण करने आरंभ कर दिए थे। बालाजी विश्वनाथ ने 1719 में मालवा से चौथ इत्यादि प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त करने का असफल प्रयत्न किया था। जो कूटनीति तथा बातचीत द्वारा प्राप्त नहीं हो सका वह बाजीराव ने बाहुबल से प्राप्त करने का प्रयत्न किया। ऊदाजी पवार तथा मल्हारराव होल्कर ने आक्रमणों से मुगल सत्ता की जङे उखाङ डाली। सवाई जयसिंह, मुहम्मद खां बंगया तथा जयसिंह जैसे मुगल सूबेदार मराठों के आक्रमणों को रोकने में असफल रहे और 1735 में पेशवा स्वयं उत्तर की ओर बढे। मालवा पर मुगलों की सत्ता लुप्तप्राय हो गयी थी।

बुंदेलखंड की विजय

बुन्देले राजपूतों का एक कुल थे। वे मालवा के पूर्व में यमुना तथा नर्मदा के बीच पहाङी प्रदेश में राज्य करते थे। उन्होंने अकबर, जहांगीर तथा औरंगजेब का डट कर विरोध किया था। बुन्देलखंड इलाहाबाद की सूबेदारी में था। जब मुहम्मद खां बंगश इलाहाबाद का सूबेदार नियुक्त हुआ तो उन्होंने बुन्देलों को समाप्त करने की ठानी। उन्हें कुछ सफलता मिली और उन्होंने जैतपुर जीत लिया। बुन्देल नरेश छत्रसाल ने मराठा सेना की सहायता मांगी। 1728 में मराठों ने बुंदेलखंड के सभी विजित प्रदेश मुगलों से वापिस छीन लिए। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पी, सागर, झांसी तथा ह्रदयनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट की। 

दिल्ली पर आक्रमण तथा भोपाल का युद्ध

उत्तरी बुंदेलखंड पर आक्रमणों में मल्हारराव होल्कर के अधीन एक मराठी टुकङी ने यमुना नदी पार की थी तथा अवध पर आक्रमण कर दिया। सआदत खां की बहुसंख्यक घुङसवार सेना के कारण उन्हें लौटना पङा। सआदत खां ने इसका एक अत्यन्त अतिशयोक्ति पूर्ण विवरण मुगल सम्राट को भेज दिया। पेशवा ने सम्राट को मराठा शक्ति की एक झलक दिखाने के लिए दिल्ली पर आक्रमण कर दिया। केवल 500 सवारों के साथ, जाटों तथा मेवातियों के प्रदेश को विद्युत गति से लांघता हुआ, बाजीराव दिल्ली पहुंचा (29 मार्च, 1737)। मुगल सम्राट ने दिल्ली से भागने की तैयारी कर ली। बाजीराव दिल्ली केवल 3 दिन ठहरा। परंतु सआदत खां और मुगल सम्राट के खोखलेपन का स्पष्ट प्रदर्शन हो गया।
ऐसे समय में जब मुगल सम्राट मराठों को अतिरिक्त रियायतें देने की सोच रहा था, निजाम ने सम्राट को उबारने का प्रयत्न किया। निजाम पहले ही मराठों की सैनिक शक्ति, चौथ इत्यादि प्राप्त करने से दुःखी था और उसने भोपाल में मराठों से टक्कर ली, हार खाई तथा संधि करने पर बाध्य हुआ। परिणामस्वरूप निजाम ने पेशवा, को सम्राट से मालवा दिलवाने का वचन दिया। इसके अलावा चंबल तथा नर्मदा के बीच के प्रदेशों पर पूर्ण मराठा अधिकार स्वीकार किया जिसकी पुष्टि सम्राट से होनी थी तथा 50 लाख रुपया युद्ध की क्षति पूर्ति के लिए भी दिए।
इस प्रकार मराठों को मालवा मिला, निजाम को पूर्णरूपेण नीचा देखना पङा तथा मराठा शक्ति की सर्वोच्चता स्वीकार करवा ली गयी। मुख्य बात यह कि उत्तर में मराठा शक्ति का उदय हुआ।

बाजीराव का मूल्यांकन
 
बाजीराव एक महान योद्धा,राजनीतिज्ञ, राजमर्मज्ञ तथा राज्य निर्माता थे। वास्तव में वह एक कर्मठ व्यक्ति तथा पूर्ण योद्धा थे। अपने पेशवा काल के बीस वर्षों तक वे गतिशील ही रहे। बढे चले जा रहे हैं और युद्ध जीत रहे हैं। उन्हें लोग लङाकू पेशवा के रूप में ही स्मरण करते हैं। सत्य ही वह शक्ति का अवतार थे। वह तोपखाने के क्षेत्र में मराठों की कमजोरी को जानते थे और इसीलिए वह शत्रु के सन्मुख आकर युद्ध कम करते थे। प्रायः शत्रु की रसद तथा संभरण काट देते और उसे झुकाने में सफल हो जाते थे। पालखेङ तथा भोपाल में उन्होंने इसी नीति को अपनाया। उसकी सेना की प्रमुख विशेषता थी गतिशीलता तथा तीव्रगति। 1737 में दिल्ली पर हल्ला एक आश्चर्यजनक घटना थी। वह एक सफल सैनिक, महान नेता तथा सामरिक नीतिज्ञ थे। वह अपने आक्रमणों की योजना बहुत ही ध्यानपूर्वक बनाते। जिस प्रकार उन्होंने निजाम को दो बार अपने चंगुल में फंसा कर हराया वह उनकी अद्भुत विशेषता को दर्शाता है।
वह जन्मजात नेता थे। गुणपारखी थे। यह उन्ही की क्षमता थी कि उन्होंने सिंधिया, होल्कर, पंवार, रेत्रेकर, फङके जैसे नेताओं को खोज निकाला। एक बार वह अपना चयन कर लेते थे और फिर उस पर पूर्ण विश्वास रखते थे। जिससे वे व्यक्ति और भी कर्तव्यपरायण बनने का प्रयत्न करते। उन्होंने जाट, राजपूत, बुन्देलों तथा अन्य हिन्दू तत्वों की मुगल विरोधी भावनाओं से लाभ उठाया। सवाई जयसिंह तथा छत्रसाल की मित्रता से उन्हें बहुत लाभ हुआ।
बाजीराव ने वृहद महाराष्ट्र की नींव डाली। राव बहादुर जी.एस.सरदेसाई लिखते हैं - अब शाहू एक छोटे से राज्य को राजा नहीं थे जिनके आधीन एक भाषाभाषी लोग रहते थे, जैसा कि उनके पिता अथवा पितामह के काल में था। अब वह दूर-दूर तक विस्तृत तथा भिन्न प्रदेशों के महाराजा थे। मराठों का राज्य अब अरब सागर से बंगाल की खाङी तक फैला था और भारतीय रेखाचित्र पर स्थान-स्थान पर मराठा शक्ति के केन्द्र थे। भारतीय शक्ति का केन्द्र-बिन्दु अब दिल्ली नहीं पूना बन गया था।
डाक्टर वी.जी.दीघे, जिन्होंने बाजीराव तथा मराठा शक्ति के प्रसार का विशेष अध्ययन किया है, बाजीराव की अदूरदर्शिता के विषय में लिखते हैं उन्होंने राजनैतिक संस्थाओं को सुधारने का कोई प्रयत्न नहीं किया जिससे जनता को स्थाई लाभ होता। मराठों में सामंतवाद की जो भावना शिवाजी की मृत्यु के बाद उभरी, उसे उन्होंने नहीं रोका अपितु वह स्वयं ही अपने समय के सबसे महान सामंत बन गए। इस प्रथा की हानियां तभी प्रत्यक्ष में आई जब मराठा शक्ति भारत से दूर-दूर तक फैल गई। परंतु दूसरी ओर सर जे.एन.सरकार बाजीराव को रचनात्मक पूर्व दृष्टि रखने वाला मानते हैं। वह लिखते हैं यदि सर राबर्ट वालपोल ने इंग्लैण्ड के प्रधान मंत्री पद को अप्रतिरोध्य संत्ता का केन्द्र बना दिया तो ठीक उसी समय में, ठीक उसी प्रकार बाजीराव ने ऐसी ही सत्ता का केन्द्र मराठा राज्य में भी बना दिया। ऐसा लगता है कि डाक्टर दीघे कुछ कङे आलोचक हैं। विघटन की जो शक्तियां सामने आई वे बाजीराव के उत्तराधिकारियों के कारण थी और संभवतः के समकालीन स्थिति में निहित थी। वह हिन्दू राष्ट्र की भावना का अडिग रूप से अनुसरण करते रहे।


Reference Books :
1. पुस्तक – आधुनिक भारत का इतिहास, लेखक – बी.एल.ग्रोवर, अलका मेहता, यशपाल

  

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