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1929-30 की आर्थिक मंदी के कारण एवं क्रांति का प्रसार

1929-30 की आर्थिक मंदी के कारण एवं क्रांति का प्रसार

1929-30 की आर्थिक मंदी – 1929 ई. तक यूरोप प्रथम महायुद्ध से उत्पन्न आर्थिक कठिनाइयों पर विजय पा चुका था। लगभग सभी देशों का बजट संतुलित हो गया था, उनकी मुद्रा भी संतुलित हो गयी थी और कारखानों में उत्पादन भी बढने लगा था।

रूस भी क्रांतिजन्य भीषण कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर अपने नव निर्माण की योजनाओं को कार्यान्वित करने में जुटा हुआ था। जर्मनी फिर से अपने पैरों पर खङा हो गया था।

इस समय सर्वत्र आशावादी वातावरण बना हुआ था और जैसा कि सर आर्थर साल्टर ने कहा था, संसार की दशा पहले से बहुत अच्छी थी और वह अभूतपूर्व गति से समृद्धि की ओर बढता जा रहा था जिसकी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। परंतु यह सब ऊपरी चमक-दमक थी।

1929-30 की आर्थिक मंदी

अक्टूबर, 1929 में संसार की परिस्थिति अचानक बदल गई। संयुक्त राज्य अमेरिका के शेयर बाजार में इतनी जोरदार गिरावट आरंभ हुई कि उसके परिणामस्वरूप सभी वस्तुओं की कीमतें भी तेजी के साथ गिरने लगी। सभी देशों में मुद्रा का मूल्य भी गिरने लगा। बैंकों के लिये रुपया अदा करना कठिन हो गया।

अनेक बैंक दिवालिये हो गये, बहुत से उद्योग-धंधे बंद हो गये और लाखों मजदूर बेकार हो गए। बङे-बङे गोदामों में सामान भरा पङा था परंतु ग्राहकों का भारी अभाव था। लोगों को सभी प्रकार के सामान की आवश्यकता थी परंतु ग्राहकों का भारी अभाव था। लोगों को सभी प्रकार के सामान की आवश्यकता थी परंतु उनके पास पैसा नहीं था।

जनता की दयनीय आर्थिक स्थिति के कारण सरकारें पूरे कर भी वसूल न कर पाती जिससे उनकी आय में भारी कमी आती गई और बजट असंतुलित होते गए। कनाडा के खेतों में अनाज तथा ब्राजील के खेतों में कहवा की उपज जलाई जाने लगी। इस भयंकर आर्थिक संकट ने संसार का व्यापार भी आधा कर दिया।

यह भीषण आर्थिक मंदी 1929 में शुरू हुई थी, 1931 में चरम सीमा पर जा पहुँची और काफी उपचार के बाद भी 1934 तक उसका प्रभाव बना रहा। यह ठीक है कि पूँजीवादी व्यवस्था में उतार चढाव आता ही रहता है, परंतु ऐसी मंदी विश्व इतिहास में पहले कभी न आई थी। यह एक अभूतपूर्व घटना थी जिसने समूचे विश्व को विशेषकर यूरोप को बुरी तरह से डस लिया था।

1929-30 की आर्थिक मंदी के कारण

आर्थिक मंदी के कारणों के विषय में भिन्न-भन्न अर्थशास्त्रियों के विभिन्न मतों की विभिन्नता के कारण उत्तरदायी कारणों का सही विश्लेषण करना कठिन कार्य है। कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –

महायुद्ध से उत्पन्न परिस्थितियाँ

कुछ विद्वानों के अनुसार आर्थिक मंदी का एक मूल कारण प्रथम विश्वयुद्ध से उत्पन्न परिस्थितियाँ हैं। इन लोगों का तर्क है कि इससे पूर्व लङे गए युद्धों – नेपोलियन के युद्ध, अमेरिका का गृह युद्ध और फ्रेंको-प्रशियन युद्ध के बाद भी आर्थिक संकट आया था। इसी प्रकार, प्रथम महायुद्ध की समाप्ति के बाद भी ऐसा होना स्वाभाविक ही था।

इसका कारण बतलाते हुये जे.बी. काण्डलिफ ने लिखा है कि, युद्ध के समय सैनिक सामग्री की माँग बढ जाने से उद्योगों का विस्तार होता है, बहुत से लोग सेना में भर्ती हो जाते हैं, अतः मजदूरी की दर, रोजगार तथा मुनाफे में वृद्धि होती है। युद्ध की समाप्ति के बाद कुछ समय तक यह वृद्धि बनी रहती है, किन्तु उसके बाद मंदी आ जाती है।

प्रथम महायुद्ध का स्वरूप जितना भयंकर था, उसी अनुपात में आर्थिक मंदी ने भी सारे संसार को हतप्रभ कर दिया।

क्षतिपूर्ति और युद्ध ऋण

क्षतिपूर्ति और युद्ध ऋणों की समस्याओं ने भी आर्थिक मंदी को आहूत करने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। यूरोप के मित्रराष्ट्रों को जर्मनी से क्षतिपूर्ति प्राप्त होने की आशा थी। जब तक आशा निराशा में बदल गई तो उन्होंने युद्ध ऋण चुकाने में असमर्थता प्रकट की।

तब अमेरिका ने उनको आर्थिक सहायता देना बंद कर दिया। परिणाम यह निकला कि सभी का व्यापार-वाणिज्य कम हो गया और सभी की अर्थव्यवस्था लङखङाने लग गयी। जिससे कोई राष्ट्र आर्थिक संकट की भीषणता का यथाशीघ्र उपचार न कर सका।

कृषि एवं उद्योगों का यंत्रीकरण

कुछ अर्थशास्रियों के मतानुसार कृषि-उपज एवं औद्योगिक वस्तुओं का आवश्यकता से अधिक उत्पादन आर्थिक मंदी का एक मुख्य कारण था। युद्धकाल में बढती हुई माँग को पूरा करने के लिये कृषि औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन को अधिक से अधिक बढाने की दृष्टि से यंत्रों के प्रयोग तथा वैज्ञानिकीकरण से उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई।

इस संबंध में विलियम ग्रीन ने लिखा है कि 1919 में श्रमिक जिस काम को 52 घंटों में करता था, अब 1930 में वह उसी काम को 30 घंटों में करने लगा। परंतु इससे बेकारी बढी। बेकारी बढने से उत्पादन के मूल्यों में भी गिरावट आने लगी।

यह एक संयोग की बात थी कि औद्योगिक एवं कृषि के क्षेत्र में मंदी ऐसे समय में आयी जबकि कई देशों की आर्थिक स्थिति एवं आर्थिक क्षमता में भारी कमी आ चुकी थी।

अतः वे देश इस आर्थिक मंदी के शिकार बन गए और उनकी दुर्दशा ने अन्य यूरोपीय देशों को भी प्रभावित किया। इस प्रकार, बढती हुयी बेकारी आर्थिक संकट का एक कारण बन गयी।

उत्पादन की अधिकता और क्रय शक्ति में गिरावट

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान तथा कुछ वर्षों बाद तक उत्पादन में निरंतर वृद्धि होती गयी और दूसरी तरफ बेरोजगारी में भी उतनी ही तेजी से वृद्धि हुई।बेकारी बढने से लोगों विशेषकर श्रमिकों की क्रयशक्ति में जबरदस्त गिरावट आ गई। दूसरी ओर प्रतिस्पर्द्धा के चक्कर में वस्तुओं का उत्पादन इतनी अधिक मात्रा में हुआ कि सारे गोदाम भर गए।

जब तक तैयार माल की खपत न हो, तब तक नया उत्पादन संभव नहीं था क्योंकि, जो कुछ पूँजी थी वह उसमें फँस चुकी थी। अतः कारखानों में मजदूरों की छँटनी शुरू हो गयी और तैयार माल को मूल्य गिराकर बेचने का प्रयास किया गया जिससे आर्थिक मंदी की गति को बल मिला।

ज्यों-ज्यों क्रय शक्ति में कमी आती गई त्यों-त्यों आर्थिक मंदी का स्वरूप भी भयंकर होता गया। बाजारों तथा गोदामों में सामान भरा पङा था, परंतु लोगों के पास खरीदने लायक पैसे नहीं थे।

स्वर्ण की कमी

अन्क अर्थशास्रियों का मत है कि विश्वव्यापी आर्थिक संकट का एक मुख्य कारण बहुत से देशों में स्वर्ण की कमी थी। युद्धकाल में अमेरका ने अपने व्यापार वाणिज्य से काफी मुनाफा कमाया और उसने अपने बाजारों से सामान खरीदने के लिये मित्रराष्ट्रों को कर्ज भी दिया। इस कर्ज की अदायगी अब सोने के रूप में हो रही थी।

वैसे युद्धकाल में बहुत से देशों ने स्वर्ण मान का परित्याग कर दिया था परंतु 1923-24 की अवधि में अधिकांश देशों ने स्वर्ण मार्ग को पुनः अपना लिया था। क्षतिपूर्ति का अधिकांश भाग फ्रांस को प्राप्त हो रहा था और अमेरिका को युद्ध ऋणों का। अतः धीरे-धीरे संसार का 60 प्रतिशत सोना अमेरिका और फ्रांस में जमा हो गया।

इससे संसार में सोने की कमी हो गयी। सोने की कमी से विभिन्न राज्यों में स्वर्ण सिक्कों का मूल्य बढ गया और दूसरी वस्तुओं की कीमतें गिर गई। इसका अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर घातक प्रभाव पङा। लैंगसम का मानना है कि चाँदी अत्यधिक परिमाण में होने से चीन तथा भारत जैसे देशों को, जहाँ सिक्के का आधार सोने की जगह चाँदी था, खरीदने की ताकत कम हो गयी और सारी कठिनाई की जङ यही कमी थी।

कुछ लोगों ने अति उत्पादन के कारण, चाँदी का मूल्य घट जाने को आर्थिक संकट के लिये उत्तरदायी माना है। वेन्स का भी मानना है कि चाँदी की क्रय शक्ति काफी कम हो गयी जिससे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव पङा।

आर्थिक राष्ट्रीयता

कुछ लोगों की राय में संकुचित आर्थिक राष्ट्रीयता भी इस आर्थिक संकट के लिये उत्तरदायी थी। महायुद्ध के बाद सभी देशों ने आर्थिक राष्ट्रीयता एवं आत्मनिर्भरता का मार्ग अपनाया। इस नीति के पीछे उनका मूल उद्देश्य अपनी – अपनी आर्थिक उन्नति करना था और इसके लिये उन्होंने जो कदम उठाए वे अत्यधिक संकीर्ण तथा स्वार्थपूर्ण थे।

उन्होंने अपने देश में बाहरी देशों से आने वाले माल पर बङे-बङे सीमा शुल्क लगाए, विदेशों से आयात का मात्रा निश्चित कर दी, विदेशी वस्तुओं के स्थान पर स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग करने पर जोर दिया, नए-नए आप्रवास नियंत्रण संबंधी कानून लागू किए तथा विदेशी राज्यों के विरुद्ध अन्य कई प्रकार से आर्थिक पक्षपात की नीति अपनाई।

इंग्लैण्ड जो अबी तक मुक्त व्यापार का समर्थक था, वह भी अपने राष्ट्रीय उद्योगों की सुरक्षा की दृष्टि से संरक्षण की नीति अपनाने लग गया। संकुचित राष्ट्रीयता की भावना से जो नीतियाँ अपनाई गई उसके फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पहले की तुलना में काफी कम हो गया। इसका बुरा प्रभाव उन देशों पर पङा जो क्षतिपूर्ति अथवा युद्ध ऋणों की अदायगी कर रहे थे, क्योंकि उन्हें अनुकूल व्यापार अंतर की सख्त आवश्यकता थी।

वाल स्ट्रीट संकट

इन सभी कारणों ने आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी। अक्टूबर, 1929 में अमेरिका के प्रसिद्ध शेयर बाजार बाल स्ट्रीय में अचानक शेयरों का मूल्य 50 अरब डालर गिर जाना इस आर्थिक संकट का तात्कालिक कारण बन गया।

अमेरिका के अर्थ विश्षज्ञ प्रो.फाकनर के अनुसार महायुद्ध के बाद अमेरिका की समृद्धि तेजी से बढी, जिसने वहाँ के कई पूँजीपतियों में अपनी पूँजी सट्टे पर लगाने की प्रवृत्ति को बढावा दिाय। इससे शुरू-शुरू में बहुत से लोगों को काफी मुनाफा हुआ फिर क्या था, लोगों में शेयर खरीदने की होङ सी लग गई और शेयरों की कीमत तीन से लेकर बीस गुना बढ गयी।

परंतु 21 अक्टूबर, 1929 से अचानक शेयरों की कीमतें गिरने लगी और लोगों में अब शेयर बेचने की भगदङ मच गई जिससे शेयरों के भाव और भी तेजी से गिर गए। अमेरिकन सरकार ने कुछ कदम भी उठाए परंतु तब तक काफी देर हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में अमेरिका ने यूरोपीय देशों को ऋण देना बंद कर दिया जिससे अनेक यूरोपीय राज्यों की अर्थव्यवस्था लङखङा कर मृतप्राय हो गयी।

इसका प्रभाव विश्व के अन्य भागों पर भी पङा। इस प्रकार, अमेरिका के शेयर बाजार के पतन ने आर्थिक संकट को व्यापक तथा अनिष्टकारी बना दिया।

1929-30 की आर्थिक मंदी का प्रसार

अमेरिका द्वारा ऋण बंद की घोषणा के साथ ही यूरोपियन समृद्धि का स्रोत सूख गया तथा पुनर्निर्माण की गति भी अवरुद्ध हो गयी। यूरोपीय देशों को दोहरे संकट का सामना करना पङा। एक तरफ तो अमेरिकी ऋण बंद हो गया और दूसरी तरफ वस्तुओं की कीमकों में भारी कमी आ जाने से व्यापार भी कम हो गया।

इसके अलावा इन्हें क्षतिपूर्ति एवं युद्ध ऋणों का भुगतान स्वर्ण के रूप में करना पङा। स्वर्ण की कमी होते ही उनकी मुद्राओं का भाव भी गिरने लगा, जिससे परिस्थिति और भी बिगङ गई। 1930 में अमेरिका ने अपनी अर्थव्यवस्था को पुनः ठीकर करने की दृष्टि से भारी मात्रा में आयात कर लगा दिए। इससे यूरोपीय देशों का विदेशी व्यापार और भी कम हो गया। परिणाम यह निकला कि यूरोपीय राज्यों की अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी।

पूँजी और मुद्रा की कमी से कल कारखाने बंद होने लगे। लाखों मजदूर बेरोजगार हो गए। अधिकांश राज्यों के बजट भी असंतुलित हो गये।

यद्यपि संकट के प्रथम लक्षण जर्मनी में देखने को मिले परंतु आर्थिक मंदी का पहला शिकार आस्ट्रिया हुआ। 11 मई, 1931 को लोगों को पता चला कि आस्ट्रिया का सबसे बङा गैर सरकारी बैंक क्रेडिट आन्स्टाट का दिवाला निकलने ही वाला है। इसका परिणाम यह निकला कि संपूर्ण मध्य यूरोपीय राज्यों की साख हिल गई और लोग यह मानने लगे कि इन राज्यों से अब ऋण की वापसी की आशा करना व्यर्थ होगा।

इससे जर्मनी विशेष रूप से प्रभावित हुआ, क्योंकि वहाँ बैंक करोबार पहले ही नाजुक स्थिति के दौर से गुजर रहा था। आस्ट्रिया की सरकार ने लोगों को सान्त्वना देने के लिये एक आदेश जारी कर यह घोषणा की कि बैंक के विदेशी दायित्वों का उत्तरदायित्व वह अपने ऊपर लेती है।

परंतु आर्थिक संकट इतना व्यापक तथा भयंकर था कि सरकार के आश्वासन के बाद भी स्थिति में सुधार नहीं हो गया। जर्मनी में तो लोगों में इतना अधिक भय व्याप्त हो गया कि केवल तीन सप्ताहों में विदेशी पूँजीपतियों ने जर्मन राइख बैंक से पाँच करोङ पौण्ड मूल्य का अपना जमा सोना वापस निकाल दिया।

विदेशी पूँजीपतियों की गतिविधियों का प्रभाव जर्मन साहूकारों पर भी पङा और वे भी अपने देश की सबसे बङी वित्तीय संस्था डाम्सटाइर तथा नेशनल बैंक डारम्सटाडर से किसी न किसी बहाने से भारी मात्रा में अपना जमा धन निकालने लगे। बिगङती हुई स्थिति को देखकर बैंक को ही बंद कर देना पङा।

इसके बाद सुरक्षात्मक कदम के रूप में सरकार ने राइख बैंक के अलावा अन्य सभी बैंकों को अनिश्चित अवधि के लिये बंद कर दिया। बैंकों के कारोबार के बंद होते ही आर्थिक संकट चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। लोगों के असंतोष की सीमा न रही। विशेषकर मध्यम वर्ग इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ।

आस्ट्रिया और जर्मनी में बैंकों के फेल हो जाने का प्रभाव ब्रिटेन पर भी पङा और वहाँ भी लोग बैंक ऑफ इंग्लैण्ड से अपना धन निकालने लगे क्योंकि लोगों को अब बैंकों में विश्वास नहीं रहा। जुलाई, 1931 में बैंक ऑफ इंग्लैण्ड की स्थिति डाँवाडोल होने लगी। तब अगस्त मास में उसने अमेरिका एवं फ्रांसीसी बैंक से 5 करोङ पौण्ड ऋण लेकर अपनी साख को बनाए रखा।

फिर भी, लोगों को अविश्वास बना रहा और निरंतर अपना धन बैंक ऑफ इंग्लैण्ड से निकालते ही रहे। इस आर्थिक संकट का मुकाबला करने के लिये प्रधानमंत्री मेकडोनेल्ड ने त्यागपत्र देकर विरोधी दलों को अपने साथ लेकर एक राष्ट्रीय सरकार का गठन किया। परंतु लोगों का अविश्वास दूर नहीं हुआ और केवल 18 सितंबर, 1931 के दिन 1,80,00,000 पौण्ड की धनराशि बैंक से वापस ले ली गयी।

विवश होकर ब्रिटिश सरकार ने स्वर्णमान के परित्याग की घोषणा कर दी जिससे पौण्ड की विनिमय दर एक चौथाई कम हो गयी। इससे इंग्लैण्ड को तो लाभ हुआ परंतु अन्य यूरोपीय राज्यों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पङा। वहाँ कीमतों में पहले ही गिरावट चल रही थी। अब और अधिक गिरावट आ गयी।

यूरोप के अधिकांश स्टॉक-एक्सचेंज बंद हो गए और कई देशों ने स्वर्णमान को त्याग दिए। अमेरिका, फ्रांस, इटली आदि कुछ देशों ने ही स्वर्णमान को बनाए रखा।

आर्थिक मंदी से निपटने के प्रयास

विश्वव्यापी आर्थिक संकट को हल करने की दिशा में पहला कदम फ्रांस के विदेशमंत्री ब्रियाँ ने उठाया। 1930 में उसने एक यूरोपीय संघ की स्थापना का प्रस्ताव रखा। राष्ट्रसंघ ने उसके प्रस्ताव पर विचार करने के लिये एक समिति गठित की जिसकी पहली बैठक जनवरी, 1931 में हुई।

समिति ने व्यापारिक बाधाओं को दूर करने पर विचार किया परंतु उसे इस काम में सफलता नहीं मिली। आस्ट्रिया ने भी क्षेत्रिय समझौतों का प्रस्ताव रखा। कुछ दशों ने इस संबंध में प्रयास भी किए परंतु उसका कोई परिणाम नहीं निकला। मार्च, 1931 में आस्ट्रिया और जर्मनी ने सीमा शुल्क संघ बनाने के लिये समझौता कर लिया परंतु फ्रांस, इटली आदि के विरोध के कारण संघ की योजना कार्यान्वित न हो पाई।

ऐसा करना वर्साय संधि के प्रतिकूल था, इसलिये विरोध किया गया था।

अंत में, राष्ट्रसंघ के तत्वाधान में एक सम्मेलन बुलाने का निश्चय किया गया। यह सम्मेलन जून, 1932 में लोसान में बुलाया गया जिसमें अमेरिका के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया। सम्मेलन में दो मुख्य समस्याओं पर विचार किया गया। पहली थी क्षतिपूर्ति की और दूसरी युद्ध ऋणों से संबंधित थी।

मित्रराष्ट्रों ने जर्मनी से ली जाने वाली क्षतिपूर्ति को हमेशा के लिए समाप्त कर देने का निर्णय लिया यदि बदले में जर्मनी यूरोपी के पुनर्निर्माण के लिये तीन अरब मार्क देने को तैयार हो। इसके साथ यह शर्त भी लगा दी गी कि यदि अमेरिका युद्ध ऋणों में इसी अनुपात में कटौती नहीं करेगा तो यह समझौता स्वीकार्य नहीं माना जाएगा।

अमेरिका ने ऐसा करना स्वीकार नहीं किया। अतः लोसान सम्मेलन का निर्णय भी कार्यान्वित नहीं हो पाया। इसी सम्मेलन में राष्ट्रसंघ से एक विश्व सम्मेलन बुलाने का अनुरोध किया गया जिसमें मौजूदा आर्थिक संकट से मुक्त होने के उपायों पर विचार किया जा सके।

लोसान सम्मेलन के अनुरोध को स्वीकार करते हुये राष्ट्रसंघ को स्वीकार करते हुये राष्ट्रसंघ ने जून, 1933 में एक सम्मेलन लंदन में आयोजित किया जिसमें 64 राज्यों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। सम्मेलन में सर्वप्रथम मुद्रा में स्थिरता लाने के संबंध में विचार किया गया और इसके साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार क्षेत्र में विभिन्न बाधाओं, विशेषकर सीमा-शुल्कों में कमी करने पर भी विचार किया गया।

जो देश (फ्रांस, इटली, बेल्जियम, हालैण्ड आदि) अभी तक स्वर्णमान को अपनाए हुए थे, वे इस बात पर अङ गए कि आयात करों को कम करने के विषय में समझौता करने के लिये मुद्रा में स्थिरता लाई जाय। परंतु इस समय तक अमेरिका की बैंकिग व्यवस्था भी छिन्न-भिन्न हो चुकी थी और बेरोजगारों की संख्या में काफी वृद्धि हो गई थी।

अतः राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने चार दिन के लिये अमेरिका के सभी बैंक बंद कर दिए। अप्रैल, 1933 में अमेरिका ने डॉलर का सोने से संबंध विच्छेद कर दिया। इसलिये लंदन सम्मेलन में अमेरिकी प्रतिनिधिमंजल ने घोषणा की कि वाशिंगटन सरकार की राय में अभी मुद्रा स्थिरता लाने का प्रयास करने का समय नहीं है।

अमेरिका की इस घोषणा ने वास्तव में सम्मेलन को विफल बना दिया, यद्यपि सम्मेलन 27 जुलाी तक चलता रहा। इस प्रकार, यह सम्मेलन असफल रहा। परंतु उस समय तक आर्थिक संकट की उग्रता कम हो चुकी थी। कई देशों ने मुद्रा प्रसार की दृष्टि से अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर दिया जिससे वस्तुओं की कीमतें बढ गयी।

कुछ राज्यों ने युद्ध सामग्री का उत्पादन बढाकर बेकारी की समस्या को हलकरने का प्रयास किया। इन सबके मिले जुले परिणामस्वरूप धीरे-धीरे आर्थिक संकट अपने आप ही कम होता गया।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wikipedia : आर्थिक मंदी

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