पल्लवों की कला तथा स्थापत्य कला का इतिहास
पल्लव नरेशों का शासन काल कला एवं स्थापत्य कला की उन्नति के लिये प्रसिद्ध है। वस्तुतः उनकी वास्तु एवं तक्षण कला दक्षिण भारतीय कला के इतिहास में सर्वाधिक गौरवशाली विषय है। पल्लव वास्तु कला ही दक्षिण की द्रविङ कला शैली का आधार बनी। उसी से दक्षिण भारतीय स्थापत्य की तीन प्रमुख अंगों का जन्म हुआ –
- मंडप
- रथ
- विशाल मंदिर।
प्रसिद्ध कलाविद् पर्सी ब्राउन ने पल्लव वास्तुकला के विकास की शैलियों को चार भागों में विभक्त किया है। इन कला शैलियों का विवरण निम्नलिखित है-
महेन्द्र शैली(610-640ई.)
पल्लव वास्तु का प्रारंभ वस्तुतः महेन्द्रवर्मन प्रथम के समय से हुआ, जिसकी उपाधि विचित्र चित्र की थी। मंडगपट्ट लेख में वह दावा करता है, कि उसने ईंट, लकङी, लोहा, चूना आदि के प्रयोग के बिना एक नयी वास्तु शैली को जन्म दिया। यह नयी शैली मंडप वास्तु की थी, जिसके अंतर्गत गुहा मंदिरों के निर्माण की परंपरा प्रारंभ हुई…अधिक जानकारी
मामल्ल शैली(640-674ई.)
मामल्ल कला शैली का विकास पल्लव शासक नरसिंहवर्मन प्रथम महामल्ल के काल में हुआ। इसके अंतर्गत दो प्रकार के स्मारक थे-
- मंडप
- एकाश्मक मंदिर
इन स्मारकों को रथ कहा गया है…अधिक जानकारी
रथ मंदिर, महाबलीपुरम्
पल्लवकालीन कला की मामल्लशैली की दूसरी रचना रथ अथवा एकाश्मक मंदिर है। पल्लव वास्तुकारों ने विशाल चट्टानों को काटकर जिन एकाश्मक पूजागृहों की रचना की उन्हीं को रथ कहा गया है। इनकी परंपरा नरसिंहवर्मन प्रथम के समय से प्रारंभ हुई थी। इसके लिये उस समय में प्रचलित समस्त वास्तु के नमूनों से प्रेरणा ली गयी थी…अधिक जानकारी
राजसिंह शैली (674-800ई.)
राजसिंह कला शैली का प्रारंभ पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन द्वितीय ‘राजसिंह‘ ने किया। इसके अंदर गुहा-मंदिरों के स्थान पर पाषाण, ईंट आदि की सहायता से इमारती मंदिरों का निर्माण करवाया गया। इस शैली के मंदिरों में से तीन महाबलीपुरम से प्राप्त होते हैं – शोर-मंदिर (तटीय शिव मंदिर), ईश्वर मंदिर तथा मुकुन्द मंदिर।
शोर मंदिर इस शैली का प्रथम उदाहरण है। इनके अलावा पनमलाई (उत्तरी अर्काट) मंदिर तथा काञ्ची के कैलाशनाथ एवं वैकुण्ठपेरूमाल मंदिर भी उल्लेखनीय हैं…अधिक जानकारी
नंदिवर्मन शैली (800-900ई.)
पल्लव काल में नंदिवर्मन कला शैली में छोटे मंदिरों का निर्माण हुआ। इसके उदाहरण काञ्ची के मुक्तेश्वर एवं मातंगेश्वर मंदिर, ओरगडम् का बङमल्लिश्वर मंदिर, तिरुतैन का वीरट्टानेश्वर मंदिर, गुडिडमल्लम का परशुरामेश्वर मंदिर आदि हैं…अधिक जानकारी
इस प्रकार पल्लव राजाओं का शासन काल कला एवं स्थापत्य की उन्नति के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध रहा। पल्लव कला का प्रभाव कालांतर में चोल तथा पाण्ड्य कला पर पङा तथा यह दक्षिण पूर्व एशिया मे पहुँची। कलाकारों ने बौद्ध चैत्य एवं विहारों की कला को हिन्दू स्थापत्य में परिवर्तित कर दिया तथा शीघ्र नष्ट होने वाली काष्ठ कला को पाषाण में रूपान्तरित कर उसे उन्नत बनाया।
पल्लवकालीन अन्य महत्त्वपूर्ण जानकारी के लिये यहाँ देखें
References:
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक-के.सी.श्रीवास्तव