इतिहासराजस्थान का इतिहास

पुरातात्विक स्रोत : राजस्थान के इतिहास को जानने के

पुरातात्विक स्रोत अथवा सामग्री से हमारा अभिप्राय खोजों और उत्खनन से मिलने वाली सामग्री से है, जिसके अध्ययन से ऐतिहासिक कालक्रम के निर्धारण में सहायता मिलती है। इस सामग्री की सहायता से हम धार्मिक विश्वास, पूजा-पद्धति, सामाजिक और आर्थिक जीवन की विवेचना कर सकते हैं।

संयोग से इस प्रकार की सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इस प्रकार की पुरातत्त्व संबंधी सामग्री का विवेचेन निम्नानुसार किया जा सकता है-

मृदभांड

पुरातात्विक स्रोत

ऐतिहासिक युग की सामग्री में मृदभांडों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आहङ के उत्खनन में मृदभांड से संबंधित सामग्री अत्यधिक मात्रा में मिली है। आहङ का कुम्भकार इस बात में निपुण दिखाई देता है, कि बिना चित्रांकन के भी मिट्टी के बर्तन सुन्दर बनाये जा सकते हैं। काटकर, छील कर तथा उभार कर इन मृदभांडों को आकर्षक बनाया जाता था।

बागोर के उत्खनन से प्राप्त मृदभांडों का रंग मटमैला है और वे कुछ मोटे और जल्दी टूटने वाले हैं। इन मृदभांडों में अलंकरण का अभाव है। हनुमानगढ के निकट रंगमहल की खुदाई से प्राप्त मृदभांड कुछ मोटे और खुरदरे हैं, और इनमें क्रमशः दृढता और चिकनापन तथा अलंकरण बढता गया। यहाँ के मृदभांड विशेषतः लाल या गुलाबी रंग के हैं।

यहां से प्राप्त होने वाले मृदभांडों का संबंध ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी से लेकर पाँचवीं-छठी शताब्दी ईसा काल तक के अन्य स्थानों के भांडों से जोङा जा सकता है। इसी प्रकार जयपुर के निकट रेड के उत्खनन से प्राप्त मृदभांड तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी ईसा काल तक के देखने को मिलते हैं।

मृण्मूर्तियाँ

पुरातात्विक सामग्री में मृण्मूर्तियाँ बङे महत्त्व की हैं। रंगमहल के उत्खनन से प्राप्त मूर्तियों में एक मूर्ति शिष्य और शिक्षक की है। भिक्षु और भिक्षुणियों की मूर्तियाँ भी अपने ढंग की अनूठी हैं। यहाँ से मिलने वाली अन्य पकी हुई मिट्टी की स्री, पुरुष, पक्षी तथा जानवरों की मूर्तियाँ गान्धार शैली की जान पङती हैं।

इसी प्रकार रेड में हाथ की बनी तथा ढाली गई, पकाई गई और कई मूर्तियाँ मिली हैं, जिनमें मातृदेवी तथा शक्ति के विविध रूप की मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। इन मूर्तियों को आभूषणों से अलंकृत किया गया है। आभूषणों में कान के कर्णफूल, गले का नाभि तक का हार, मोतियों के जेवर, चूङियाँ, कर्धनी व पायजेब मुख्य हैं।

शिव-पार्वती, यक्ष, गन्धर्व, हाथी, घुङसवार, शेर, गाय, बैल, कुत्ता, ऊँट, रथ, खिलौने, मच्छी, बंदर तथा अनेक पक्षियों के मृण्मय प्रतीक बङे रोचक दिखाई देते हैं। इन प्रतीकों से जन जीवन की अच्छी झाँकी उपलब्ध होती है। ऐसी ही मूर्तियाँ साँभर में उत्खनन से प्राप्त हुई हैं, जिनसे उस युग की धार्मिक तथा कलात्मक स्थिति का पता चलता है।

पत्थर के औजार

अनेक स्थानों के उत्खनन से पाषाण, ताँबे एवं लोहे के आयुध भी प्राप्त हुए हैं। आहङ की सभ्यता के प्रथम चरण से संबंध रखने वाले छीलने, छेद करने तथा काटने के विविध आकार के पाषाण उपकरण देखे गये हैं। यहाँ पाषाण की गदाएँ भी प्राप्त हुई है। बागोर के उत्खनन में भी पाषाण के आयुध प्राप्त हुये हैं।

इनमें नोकदार तीक्ष्ण धार वाले फलक, कुंठित फलक, तिरछे फलक, त्रिभुज फलक आदि हैं। इनको मछली मारने, जंगली जानवरों का शिकार करने, छीलने, छेद करने आदि कार्यों के लिये उपयोग में लाया जाता था। आहङ से ताँवे के आयुध भी प्राप्त हुए हैं, जो लकङी काटने, छीलने, शिकार करने आदि के लिये काम में लाये जाते थे।

बागोर में भी कुछ ताम्र आयुध प्राप्त हुए हैं। गणेश्वर (सीकर) के उत्खनन से तो सैकङों ताम्र आयुध प्राप्त हुए हैं। बालाथल (उदयपुर) के उत्खनन से कुछ ताम्र आयुध पाये गये हैं, लेकिन वे संख्या में अधिक नहीं हैं। रंगमहल के उत्खनन से कुछ लोहे के आयुध प्राप्त हुए हैं।

रेड के उत्खनन से लोहे के आयुध, जैसे – तलवार, खंजर, भाले, बर्छी, चाकू, तीर, कुल्हाङी आदि प्राप्त हुए हैं। इन आयुधों से वहाँ के निवासियों की आखेटप्रियता का तो पता चलता ही है, साथ ही यह भी ज्ञात होता है कि इन सभ्यताओं के लोग ताम्र और लोहे का प्रयोग भी जानते थे।

गृह के अवशेष

राजस्थान में सभ्यता के प्राचीन स्थलों की खुदाई में बसावत अवशेष (गृह के अवशेष) भी प्राप्त हुए हैं। कालीबंगा में प्राप्त अवशेषों से पता चलता है, कि मकान मिट्टी की ईंटों से बनाये जाते थे और उन पर मिट्टी का गारा लगाया जाता था। मकानों में चूल्हे के अवशेष भी मिले हैं।

आहङ में मुलायम काले पत्थरों से मकान बनाये जाते थे। यहाँ मकानों के फर्श को काली मिट्टी के साथ नदी की बालू को मिलाकर बनाया जाता था। घरों के फर्श को पत्थरों से समतल बना दिया जाता था। रंगमहल के मकानों का निर्माण ईंटों द्वारा होता था। यहाँ साधारण स्तर के निवासियों के घर छोटे तथा सादे होते थे।

साँभर की खुदाई में 45 घरों के ढाँचे प्रकाश में आये हैं। इन मकानों का स्वरूप खुले आँगन तथा तीन-चार कमरों को लिये हुए है। मकानों, दरवाजों, खिङकियों और रोशनदानों के निर्माण में पकी हुई ईंटों तथा मिट्टी काम में ली गयी थी। छतों को भट्टे में पकाये गये कवेलुओं (केवलू) से ढका जाता था।

इन बसावत अवशेषों से वहाँ के निवासियों के जीवन-स्तर की जानकारी मिलती है।

अस्थियों के टुकङे

अनेक स्थलों की खुदाई में अस्थियों के टुकङे भी मिले हैं। उदाहरणार्थ – बागोर उत्खनन में अनेक अस्थियों के टुकङे मिले हैं। किन्तु इन असथियों के टुकङों से यह अनुमान लगाना कठिन है कि ये किन-किन पशुओं के हैं। श्रीमती डी.आर.शाह का मत है, कि ये अस्थियाँ गाय, बैल, मृग, चीतल, बारासिंघा, सूअर, गीदङ, कछुआ आदि की हैं।

यदि श्रीमती शाह का यह अनुमान ठीक है तो यह माना जा सकता है कि उस समय का मानव माँसाहारी भी था और कृषि करना भी सीख चुका था। कुछ जली हुई हड्डियाँ माँस के भुने जाने का प्रमाण हैं। किन्तु तृतीय चरण की खुदाई में अस्थियों का कम उपलब्ध होना कृषि की प्राधान्यता बढना प्रमाणित करना है। कुछ स्थानों पर अस्थियों के औजार भी उपलब्ध हुए हैं।

मणियाँ

कुछ स्थलों के उत्खनन में काँच व पत्थर के मणके (मणियाँ) भी प्राप्त हुए हैं। आहङ के उत्खनन में मूल्यवान पत्थरों, जैसे – गोमेद, स्फटिक आदि की गोल मणियाँ प्राप्त हुई हैं। ऐसे मणियों के साथ काँच, पक्की मिट्टी, सीप और हड्डी के गोलाकार छेद वाले अंड भी लगाये जाते थे।

कालीबंगा में काँच के मणके प्राप्त हुए हैं तथा बालाथल में बहुमूल्य पत्थर के मणके मिले हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है, कि इनका उपयोग आभूषण बनाने तथा ताबीज की तरह गले में लटकाने के लिये किया जाता था।

मुहरें

कुछ स्थलों के उत्खनन में मुद्राएँ व ठप्पे (मुहरें) प्राप्त हुए हैं। आहङ की द्वितीय काल की खुदाई में 6 ताँबे की मुद्राएँ और तीन मुहरें प्राप्त हुई हैं। इनमें से कुछ मुद्राएँ अस्पष्ट हैं। एक मुद्रा पर त्रिशूल खुदा हुआ दिखाई देता है और दूसरी में खङा हुआ अपोलो है, जिसके हाथों में तीर और पीछे तरकश है।

इस मुद्रा के किनारे पर यूनानी भाषा में कुछ लिखा हुआ है, जिससे इसका काल दूसरी सदी ईसा पूर्व आंका जाता है। रंगमहल से कुषाणकालीन तथा पिछले काल की कुल 105 ताँबे की मुद्राएँ मिली हैं, जिनमें से कुछ पंच-मार्क हैं और कुछ कनिष्क प्रथम तथा कनिष्क तृतीय के काल की हैं। बैराठ में 36 मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें 8 पंच-मार्क हैं। शेष 28 मुद्राएँ यूनानी और भारतीय यूनानी राजाओं की हैं।

इन मुद्राओं से यह प्रमाणित होता है, कि बैराठ यूनानी शासकों के अधिकार में था, क्योंकि 28 मुद्राओं में से 16 मुद्राएँ मिनेण्डर की हैं। इनसे यह भी सिद्ध होता है कि बीजक की पहाङी बौद्धों का निवास स्थान था और वह 50 ई. तक बना रहा।

अनाज के भांड व दाने

अनेक स्थलों की खुदाई में अनाज के दाने या अनाज के बीज प्राप्त हुए हैं। आहङ की खुदाई में अनाज के दाने तथा अनाज रखने के बङे भाण्ड मिले हैं। रंगमहल की खुदाई में कुछ चावल के दाने मिले हैं। संभवतः यहाँ के लोग चावल की विशेष रूप से खेती करते थे और वह उनका मुख्य भोजन था।

इस प्रकार पुरातत्व संबंधी सामग्री का राजस्थान के इतिहास के निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके अध्ययन से ऐतिहासिक कालक्रम के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। इस सामग्री की सहायता से हम वास्तु और शिल्प शैलियों का वर्गीकरण कर सकते हैं।

धार्मिक विश्वास, पूजा पद्धति, सामाजिक और आर्थिक जीवन की विवेचना कर सकते हैं। यद्यपि यह सामग्री राजनैतिक इतिहास से सीधा संबंध नहीं रखती, फिर भी इस सामग्री की सहायता से ऐतिहासिक कालक्रम का निर्धारण किया जा सकता है। तथा जन-जीवन की पूरी झाँकी पुरानी बस्तियाँ तथा अन्य प्रतीकों से प्रस्तुत की जा सकती है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : पुरातात्विक स्रोत

Related Articles

error: Content is protected !!