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महाराजा रणजीतसिंह का शासन तंत्र कैसा था

महाराजा रणजीतसिंह का शासन तंत्र

महाराजा रणजीतसिंह का शासन तंत्र

महाराजा रणजीतसिंह का शासन तंत्र (mahaaraaja ranajeetasinh ka shaasan tantr kaisa tha) –

एकतंत्रीय शासन – रणजीतसिंह के शासन का स्वरूप एकतंत्रीय था। वह स्वयं संपूर्ण सत्ता का केन्द्रबिन्दु था और शासन के समस्त अधिकार उसी के हाथ में थे। राज्य के प्रत्येक महत्त्वपूर्ण मामले में उसका निर्णय अंतिम होता था। रणजीतसिंह अपने अधिकारियों के कार्यों पर पूरी निगरानी रखता था।

महाराजा रणजीतसिंह का शासन तंत्र

उसके शासनकाल में अधिकारियों को अनैतिक उपायों से धन संपत्ति जुटाने का अवसर नहीं दिया जाता था। प्रत्येक अधिकारी की मृत्यु होने पर उसकी धन संपत्ति को सरकार अपने कब्जे में ले लेती थी और मृत अधिकारी के परिवार के भरण पोषण लायक धन दे दिया जाता था।

राजकीय सेवाओं और विशेषकर उच्च पदों पर योग्यता को अधिक महत्त्व दिया जाता था। राजकीय सेवाओं और विशेषकर उच्च पदों पर योग्यता को अधिक महत्त्व दिया जाता था और सिक्खों के अलावा अन्य लोगों को भी उच्च पदों पर नियुक्त कर रखा था। डोगरे अधिकारियों में ध्यानसिंह, गुलाबसिंह, सुचेतसिंह नामक तीनों भाई और ध्यानसिंह का लङका हीरासिंह मुख्य थे।

मुस्लिम सरदारों में फकीर अजीजुद्दीन और नुरूद्दीन मुख्य थे। यूरोपियनों में वेन्चुरा और अलॉर्ड प्रमुख थे। इससे स्पष्ट है कि रणजीतसिंह ने गुरुमत अर्थात् सिक्खों की प्रजातांत्रिक पद्धति को महत्त्व नहीं दिया और निरंकुश शासन की स्थापना की।

परंतु रणजीतसिंह का निरंकुश शासन मध्यकालीन शासकों की भाँति स्वेच्छाचारी नहीं था। वह उदार प्रशासक था, जिसमें राज्य के सभी समुदायों और वर्गों के कल्याण का ध्यान रखा जाता था। स्वयं रणजीतसिंह अपने को खालसा का प्रतिनिधि मानता थआ। कनिंघम ने लिखा है कि उसने अपने प्रत्येक कार्य से यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया कि वह गुरु के लिए तथा सिक्ख समुदाय के हित के लिए कार्य कर रहा है।

वह आज्ञा-पत्र जारी करते समय केवल सरकार या सरकार खालसा शब्दों का ही प्रयोग करता था। उसने अपने नाम के सिक्के भी नहीं ढलवाये। उसके सिक्कों पर नानक सहाय या गोविन्द सहाय अंकित रहता था। उसने सिक्खों की भावनाओं का आदर करते हुए अपने लिए आडम्बरपूर्ण पदवियों का भी प्रयोग नहीं किया। उसने धार्मिक कट्टरता को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया।

वह स्थानीय प्रशासन तथा लोगों के निजी जीवन में बहुत कम हस्तक्षेप करता था। प्रजा की शिकायतों को वह स्वयं सुनता था और उन शिकायतों की जाँच-पङताल की जाती थी और संबंधित अपराधियों को कानून के अनुसार सजा दी जाती थी। अपराध सिद्ध होने पर संबंधित अपराधियों के विरुद्ध भी सख्त कार्रवाई की जाती थी। इसलिए उसके प्रशासन में प्रजा सुखी एवं संतुष्ट थी।

मंत्री – शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने की दृष्टि से रणजीतसिंह ने अपनी सहायता के लिए पाँच मंत्रियों को नियुक्त कर रखा था। ये सभी सुयोग्य एवं विश्वस्त व्यक्ति थे और रणजीतसिंह को प्रत्येक विषय पर सलाह देते रहते थे। पाँचों में वजीर का पद सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण था। ध्यानसिंह महाराजा रणजीतसिंह का वजीर था।

वह डोगरा सरदार था और राज्य में उसे विशिष्ट स्थान प्राप्त था। वजीर के बाद विदेश मंत्री का पद महत्त्वपूर्ण माना जाता था। फकीर अजीजुद्दीन ने इस पद पर कार्य किया था। राज्य का प्रधान सेनापति सुरक्षा मंत्री भी होता था। वित्त मंत्री का पद भी महत्त्वपूर्ण था। वित्त-मंत्रियों में भवानीदास और दीनानाथ के नाम उल्लेखनीय हैं। मंत्रियों के अलावा बारह प्रशासनिक विभाग भी कायम किये गये थे, जो शासन के विभिन्न कार्यों की देखभाल करते थे।

सूबों की शासन व्यवस्था

रणजीतसिंह का राज्य चार सूबों अथवा प्रांतों में विभाजित था। उनके नाम थे – काश्मीर, मुल्तान, पेशावर और लाहौर। सूबों के सर्वोच्च अधिकारी को नाजिम कहा जाता था। नाजिम पद पर महाराजा के विश्वस्त व्यक्ति की ही नियुक्ति की जाती थी। सूबे का दूसरा मुख्य अधिकारी कारदार कहलाता था।

कारदार सूबे के एक निश्चित भू-भाग के शासन की निगरानी रखता था। सूबे परगनों में विभाजित थे और प्रत्येक परगना तालुकों में विभाजित था। प्रत्येक तालुके में पचास से लेकर सौ तक मौजे (गाँव) थी। स्थानीय शासन का कार्य पंचायतें करती थी। उन्नत यातायात के साधनों के अभाव में पंचायतों पर केन्द्रीय सरकार का नियंत्रण बहुत कम था और स्थानीय लोगों को अपनी बुद्धि के अनुसार शासन कार्यों को सम्पन्न करना पङता था।

वित्तीय प्रशासन

राज्य की आय का मुख्य स्रोत भूमि-कर था। ऐसा अनुमान है कि रणजीतसिंह के राज्य की वार्षिक आय लगभग तीन करोङ रुपये थी, जिसमें से लगभग दो करोङ रुपया भूमि कर से प्राप्त होता था।

भूमि कर की वसूली पर पूरा ध्यान दिया जाता था। करदार नामक अधिकारी फसल काटने के समय किसानों से भूमि कर वसूल करते थे। किसानों से उनकी भूमि की उर्वरता के आधार पर 33 प्रतिशत से 55 प्रतिशत भाग तक वसूल किया जाता था। राज्य के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कर की दर अलग-अलग थी।

मुल्तान क्षेत्र में कर की दर सबसे कम थी। 1823 ई. तक बंटाई पद्धति के अनुसार भूमि-कर वसूल किया जाता था। परंतु 1823 ई. से कन्कूत (कांकूत) पद्धति काम में लाई गयी। इसके अन्तर्गत खेत में खङी फसल के आधार पर ही राज्य की माँग निर्धारित कर दी जाती थी।

बाद में भूमि-कर की वसूली का काम नीलामी के आधार पर ऊँची बोली बोलने वालों को दिया जाने लगा। भूमि-कर वसूली के लिए कामदारों की सहायता के लिए कानूनगो और पटवारी नियुक्त थे। इन लोगों को राज्य की ओर से वेतन के अलावा वसूल किये हुए लगान का पाँच प्रतिशत भाग कमीशन के रूप में भी दिया जाता था।

रणजीतसिंह ने किसानों की भलाई का हमेशा ध्यान रखा और निर्धारित दर से अधिक कर वसूल करने वाले अधिकारियों को सजा दी जाती थी।

राज्य की अन्य करों से भी आय प्राप्त होती थी। इसमें सीमा शुल्क और आबकारी-कर मुख्य थे। राज्य के प्रमुख मार्गों पर सीमा शुल्क चौकियाँ कायम थी, जो राज्य में लाने और बाहर जाने वाले सामान पर शुल्क वसूली करती थी। नमक-उत्पादन पर राज्य का एकाधिकार था और नमक-कर से भी राज्य की पर्याप्त आय होती थी। जागीरों से भी राज्य को आय होती थी।

न्याय व्यवस्था

रणजीतसिंह की न्याय व्यवस्था लिखित कानून पर आधारित नहीं थी। उसकी न्याय व्यवस्था परंपरागत रीति-रिवाज तथा सामाजिक प्रथाओं पर आधारित थी। यही कारण है कि पूरे राज्य में एक समान न्याय-व्यवस्था नहीं थी।

मुसलमानों के मामलों में इस्लामिक नियमों का पालन किया जाता था और उनके आपसी अभियोग का निर्णय काजी किया करते थे। न्याय करने के लिए रणजीतसिंह ने अलग से अधिकारियों की नियुक्ति नहीं की थी। गाँवों के झगङों का फैसला ग्राम पंचायतें करती थी। प्रांतों में नाजिम और कारदार न्याय करते थे।

जागीरी क्षेत्रों में जागीरदार न्याय करते थे। राजधानी लाहौर में राज्य की सर्वोच्च अदालत थी जिसे अदालत-उल-ओला कहा जाता था, जिसमें राज्य के उच्चाधिकारी न्याय प्रदान करते थे। रणजीतसिंह स्वयं राज्य का प्रधान न्यायाधीश था और जटिल तथा महत्त्वपूर्ण मामलों की अपीलें वह व्यक्तिगत रूप से सुनता था।

राज्य का दंड-विधान काफी कठोर था। अपराधियों के हाथ-पैर आदि काट दिये जाते थे। आर्थिक जुर्माने भी किये जाते थे। कुछ विद्वानों का मत है कि अधिक आर्थिक जुर्माना अदा करने पर अपराधी की सजा में कमी कर दी जाती थी।

सैनिक व्यवस्था

राज्य विस्तार तथा राज्य की सुरक्षा के लिए एक शक्तिशाली सेना की आवश्यकता थी। अतः रणजीतसिंह ने आरंभ से ही सैनिक व्यवस्था में गहरी रुचि ली और कुछ विद्वानों का मानना है कि प्रशासन के क्षेत्र में रणजीतसिंह की सबसे बङी उपलब्धि एक नये सैन्य-प्रशासन की स्थापना है।

रणजीतसिंह की नई सैनिक व्यवस्था की एक प्रमुख विशेषता प्रशिक्षित सेना का गठन है। उसकी सेना के दो भाग थे – फौज-ए-खास और फौज-ए-बेकवायदफौज-ए-खास के तीन मुख्य अंग थे – घुङसवार, पैदल और तोपखाना

रणजीतसिंह ने तीनों अंगों में प्रशिक्षण पर पूरा-पूरा ध्यान दिया। सेना को प्रशिक्षण देने के लिए उसने दो फ्रांसीसी अधिकारियों को नियुक्त किया।

एलार्ड ने घुङसवार सेना को प्रशिक्षण दिया और वेन्चुरा ने पदाति सेना को। प्रशिक्षण के फलस्वरूप रणजीतसिंह की सेना अद्वितीय बन गयी। वह प्रायः अंग्रेज अधिकारियों को अपनी सेना का निरीक्षण करने का अवसर देता रहता था, ताकि अंग्रेज उससे टकराने की बात न सोचें।

1838 ई. में गवर्नर-जनरल लॉर्ड आकलैण्ड ने रणजीत की सेना का निरीक्षण करने के बाद उसे विश्व की योग्यतम सेना बतलाया था।

दूसरी विशेषता एक शक्तिशाली तोपखाने की स्थापना है। 1810 ई. में पहली बार दारोगा-ए-तोपखाना नामक पदाधिकारी नियुक्त किया गया। 1827 ई. में जनरल कोर्ट को तोपखाने का काम सौंपा गया।

1832 ई. में कर्नल गार्डनर को तोपखाने के पुनर्गठन का काम सौंपा गया। तोपखाने को तीन भागों में विभाजित किया गया – 1.) तोपखाना-ए-जिंसी – इस भाग के अन्तर्गत मध्यम और भारी वजन की तोपें रखी गयी, 2.) तोपखाना-ए-अस्पी – इसमें हल्की तोपों को रखा गया, 3.) जबूर-खाना। तोपों के निर्माण के लिए तथा अन्य प्रकार के शस्रों के निर्माण के लिए लाहौर में कारखाने कायम किये गये।

जिन सिक्ख घुङसवारों को सैनिक प्रशिक्षण पसंद न था उन्हें फौज-ए-बेकवायद में रखा गया। इसमें भी दो प्रकार के सैनिक होते थे – घुङचढा खास और मिसलदारों के अनुयायी। घुङचढों को अपने घोङों की व्यवस्था अपने आप करनी पङती थी। इसके लिए उन्हें राज्य से वेतन दिया जाता था।

रणजीतसिंह ने बहुत से मिसलदारों को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। ये मिसलदार अपने अनुयायियों के साथ सैनिक सेवा प्रदान करते थे।

रणजीतसिंह की सैन्य व्यवस्था की तीसरी मुख्य विशेषता नियमित रूप से सैनिकों को नकद वेतन देना था। सैनिकों की भर्ती के लिए राज्य की ओर से दबाव नहीं डाला जाता था। उसकी सेना में अधिकांशतः सिक्ख और जाट सैनिक थे, लेकिन मुसलमानों और अन्य जातियों के लोग भी सम्मिलित थे। सैनिक भर्ती के समय रणजीतसिंह स्वयं उपस्थित रहता था। सेना में अनुशासन पर अधिक ध्यान दिया जाता था और अनुशासनहीनता के मामलों में सख्त सजा दी जाती थी।

रणजीतसिंह की सैन्य व्यवस्था पूर्णतः दोष रहित न थी। एक बहुत बङा दोष यह था कि सैनिकों और अफसरों की उन्नति के लिए कोई निश्चित नियम न थे। दूसरा दोष यूरोपीय सैनिकों एवं अधिकारियों को अधिक वेतन देना था। इससे सिक्खों में असंतोष उत्पन्न हो गया था।

रणजीतसिंह का मूल्यांकन

महान विजेता

एक महान सेनानायक, संगठनकर्त्ता और प्रशासक के रूप में रणजीतसिंह का भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसकी शक्ति के उत्कर्ष के पूर्व संपूर्ण पंजाब तथा उत्तर-पश्चिमी प्रदेश राजनीतिक अस्थिरता से रोगग्रस्त था।

सिक्खों की बारह मिसलें अपना-अपना प्रभाव क्षेत्र बढाने के लिए आपस में संघर्षरत थी और उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत अफगानों के आपसी कलह से पीङित था। सिक्खों और अफगानों के आपसी युद्धों ने सामान्य जनजीवन को ही असत-व्यस्त कर दिया था।

ऐसी परिस्थितियों में एक छोटी सी मिसल का सरदार रणजीतसिंह सभी मिसलों को एकता के सूत्र में आबद्ध करके पंजाब में एक शक्तिशाली सिक्ख राज्य की स्थापना के महान कार्य में जुट गया और अंत में वह अपने ध्येय में सफल रहा। इसी से उसकी सैनिक प्रतिभा और संगठनकर्त्ता की योग्यता स्पष्ट हो जाती है।

उत्तरी-पश्चिमी सेना को सुदृढ बनाया

जिस अफगान शक्ति ने मुगल साम्राज्य को छिन्न-भिन्न करके पंजाब के भू-भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था, उससे संघर्ष करना और उसे परास्त करके भारतीय क्षेत्रों में उसके प्रभाव का अंत करना एक सामान्य उपलब्धि न थी।

यदि रणजीतसिंह अफगानों पर निर्णायक विजय प्राप्त करने में असफल रहा होता तो इसमें कोई संदेह नहीं कि कश्मीर, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत और पंजाब पर अफगानों का शासन हमेशा के लिए सुदृढ हो जाता। इससे अंग्रेजों की कठिनाई भी बढ जाती। रणजीतसिंह की उपलब्धियों का अंग्रेजों ने पूरा लाभ उठाया।

उन्हें अनायास ही एक विशाल संगठित क्षेत्र प्राप्त हो गया। इससे भी बढकर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि रणजीतसिंह की विजयों ने भारत की कमजोर समझी जाने वाली उत्तर-पश्चिमी सीमा को सुदृढ बना दिया।

गुरु गोविन्दसिंह के कार्य को पूरा करना

रणजीतसिंह ने गुरु गोविन्दसिंह के अधूरे कार्य को पूरा किया। उसने सिक्खों में आत्मविश्वास पैदा किया। उन्हें संगठित करके उनका एक राष्ट्रीय शक्ति के रूप में रूपान्तर कर दिया। बिखरे हुए सिक्खों को संगठित करके सैनिक विजयों के द्वारा एक शक्तिशाली विशाल सिक्ख राज्य की स्थापना करना, रणजीतसिंह का ही काम था। इसके लिए रणजीतसिंह को सैनिक प्रशासन में महत्त्वपूर्ण सुधार लागू करने पङे।

उसने एलार्ड तथा वेन्चूरा जैसे योग्य एवं निष्ठावान यूरोपीय सेनानायकों को नियुक्त किया और सिक्ख सेना को पश्चिमी पद्धति से प्रशिक्षण दिलवाया। रणजीतसिंह की विशेषता इस बात में है कि उसने यूरोपीय सैनिक अधिकारियों को निष्ठावान बने रहने के लिए विवश कर दिया। अन्यथा अनेक भारतीय शासकों ने भी यूरोपियनों की सेवाएँ प्राप्त की, परंतु समय आने पर वे विश्वासपात्र सिद्ध न हुए। सेना को गोला-बारूद तथा अस्त्र-शस्त्र के लिए अन्य शक्तियों पर निर्भर न रहना पङे, इसके लिए उसने कई कारखाने स्थापित करवाये।

योग्यता के आधार पर उच्च पद देना

रणजीतसिंह ने बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों को राज्य के उच्च पद प्रदान किये। परंतु सिक्खों पर नियंत्रण बनाये रखने के लिए उसने डोगरे-राजपूतों और यूरोपियनों को अधिक सुविधाएँ प्रदान की। इसका एक बुरा प्रभाव यह पङा कि उसके दरबार में दलबंदी शुरू हो गयी, जो सिक्ख राज्य के पतन का कारण बन गयी। एक अन्य दोष, सेना को अधिक महत्त्व देना था।

सैनिक अधिकारियों को अधिक महत्त्व देकर उसने असैनिक अधिकारियों का प्रभाव गौण बना दिया। इससे राज्य की राजनीति में उनका प्रभाव बढ गया। उनका बढता हुआ प्रभाव अंत में राज्य के पतन का कारण बना।

अंग्रेजों से संबंध

अंग्रेजों के प्रति रणजीतसिंह ने जो नीति अपनाई, उसके औचित्य पर विद्वानों का काफी संदेह रहा है। कुछ का मानना है कि जब तक रणजीतसिंह अपनी सत्ता का दृढीकरण नहीं कर पाया था, तब तक तो उसकी नीति ठीक मानी जा सकती है, परंतु उसके बाद उसे टकराव की नीति अपनानी चाहिए थी।

उन लोगों का यह भी मानना है कि रणजीतसिंह अँग्रेजों की शक्ति से भयभीत था। डॉ.एन.के.सिन्हा ने तो यहाँ तक लिखा है कि रणजीतसिंह घोङा था और अंग्रेज घुङसवार। जैसे घुङसवार अपनी इच्छानुसार घोङे को हाँक ले जाता है, वैसे ही अंग्रेज रणजीतसिंह से कार्य करवाते रहे। वस्तुतः रणजीतसिंह अंग्रेजों की नीति का सही मूल्यांकन नहीं कर पाया या सही कदम उठाने से चूक गया।

महान सेनानायक एवं महान नेता

रणजीतसिंह अपने समय का एक महान नेता, सेनानायक और प्रशासक था। अनपढ होते हुए उसने अपने राज्य के सभी लोगों के कल्याण की तरफ ध्यान दिया और बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए राजकीय सेवाओं का द्वार उन्मुख रखा।

अपने व्यक्तिगत जीवन में वह कट्टर सिक्ख था, परंतु एक शासक के रूप में उसने धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया। वैसे रणजीतसिंह को विलासमय जीवन पसंद था, फिर भी उसने कभी प्रशासनिक कार्यों की अवहेलना नहीं की। पढा-लिखा न होते हुए भी वह विद्वानों का भारी आदर-सत्कार करता था। अपने इन्हीं गुणों के कारण वह अस्त-व्यस्त सिक्ख जाति को एक शक्तिशाली एवं सुसंगठित राष्ट्रीय शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने में सफल रहा।

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