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महाराजा रणजीतसिंह का राज्य विस्तार

महाराजा रणजीतसिंह का राज्य विस्तार

महाराजा रणजीतसिंह का राज्य विस्तार

महाराजा रणजीतसिंह का राज्य विस्तार (Expansion of Maharaja Ranjit Singh’s Kingdom)- लाहौर पर भांगी मिसल का अधिकार था। रणजीतसिंह ने उन्हें परास्त करके लाहौर पर अपना अधिकार जमा लिया। लाहौर विजय से रणजीतसिंह का प्रभाव बढ गया। 1801 ई. में अफगानिस्तान में राजक्रांति हो गयी। जमानशाह को उसके सौतेले भाई ने अपदस्थ कर दिया। मौके का फायदा उठाते हुए रणजीतसिंह ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और पंजाब के महाराजा की पदवी ग्रहण की। यह इस बात का संकेत था कि रणजीतसिंह सिक्खों की कमजोर संघीय व्यवस्था को समाप्त करके एकतंत्रीय शासन की स्थापना का स्वप्न देख रहा है।

महाराजा रणजीतसिंह का राज्य विस्तार

सर्वप्रथम, जम्मू पर चढाई की गयी और वहाँ के राजा को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया। उसके बाद अकलगढ, कासूर, गुजरात, चिन्नत, भंग, कांगङा आदि पर भी अधिकार कर लिया गया। 1805 ई. में उसने सिक्खों के पवित्र स्थान अमृतसर पर भी अधिकार कर लिया। अब वह सभी सिक्ख सरदारों में प्रमुख सरदार हो गया और उसके नेतृत्व में पंजाब में एक नया शक्तिशाली सिक्ख राज्य संगठित हुआ।

रणजीतसिंह और मराठे

सर्वप्रथम महादजी सिन्धिया ने अपने प्रतिनिधि को रणजीतसिंह के पास अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता प्राप्त करने भेजा था। परंतु रणजीतसिंह ने अपनी सीमित साधनों को ध्यान में रखते हुए सहायता देने से इन्कार कर दिया। 1805 ई. में अंग्रेजों से परास्त होने के बाद प्रसिद्ध मराठा सेनानायक जसवंतराव होल्कर अपनी सेना सहित पंजाब में जा पहुँचा और अंग्रेजों के विरुद्ध रणजीतसिंह का सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न किया। उधर अंग्रेजों ने रणजीतसिंह से कहा कि वह मराठों को सहायता न दे अन्यथा उसे गंभीर परिणाम भुगतने पङेंगे। काफी सोच-विचार के बाद रणजीतसिंह ने मराठों को सहायता देने से इन्कार कर दिया और पंजाब से चले जाने को कहा। इस प्रकार, रणजीतसिंह ने समयानुकूल कदम उठाकर अपने आपको संकट से बचा लिया।

सतलज के पार राज्य

दल खालसा के अन्तर्गत जो 11 जत्थे (मिसलें) गठित किये गये थे, उनका कार्यक्षेत्र सतलज नदी के उत्तर-पश्चिम की ओर था। 12 वीं मिसल फुलकलियाँ ने सतलज के पार अपना प्रभाव बढाया। इस समय पटियाला, जीन्द, नाभा आदि राज्यों पर भी इसी मिसल के वंशजों का शासन था। रणजीतसिंह सभी सिक्ख राज्यों को मिलाकर एक प्रबल सिक्ख राष्ट्र का निर्माण करना चाहता था और इसके लिए सतलज पार के राज्यों को जीतना जरूरी था। 1806 ई. में उसे अवसर भी प्राप्त हो गया। नाभा और पटियाला में संघर्ष छिङ गया। नाभा के राजा ने रणजीतसिंह से सहायता की याचना की और रणजीतसिंह सेना सहित जा पहुँचा। उसने पटियाला के राजा को परास्त कर दिया। पटियाला ने रणजीतसिंह की अधीनता स्वीकार कर ली। नाभा और जीन्द राज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। 1807 ई. में रणजीतसिंह ने पुनः सतलज पार राज्यों पर आक्रमण किया और अंबाला, थानेश्वर, नारायणगढ और फिरोजपुर तक धावा मारा। इस समय ईस्ट इंडिया कंपनी तटस्थता की नीति का पालन कर रही थी और अभी भी यमुना नदी तक ही अपनी सीमा निर्धारित किये हुए थी। परंतु रणजीतसिंह के बढते हुए प्रभाव से अंग्रेज चिन्तित हो उठे।

रणजीतसिंह और अंग्रेज

रणजीतसिंह के उदय के बाद सिक्खों और अंग्रेजों का पहला प्रत्यक्ष संपर्क 1800 ई. में हुआ था। इस समय अंग्रेजों की नीति, अंग्रेजों और रूस के मध्य रणजीतसिंह के राज्य को एक अतःस्थ राज्य (बफर स्टेट) के रूप में स्थापित करना था। क्योंकि इस समय रूप मध्यपूर्व की तरफ अपने कदम बढा रहा था और इस बात की आशंका थी कि कहीं वह ईरान और अफगानिस्तान से संबंध स्थापित करके भारत पर आक्रमण न कर दे। ऐसी स्थिति में अंग्रेज रूसियों से पंजाब अथवा पंजाब से भी आगे बढकर लङना चाहते थे।

परंतु चूँकि अभी अंग्रेज भारत में अपनी शक्ति को मजबूत एवं संगठित नहीं कर पाये थे, अतः वे अधिक सक्रिय नीति नहीं अपना पाये। इससे कुछ समय पूर्व ही अफगान शासक जमानशाह ने पंजाब पर आक्रमण किया था, अतः कंपनी के लिए उत्तर-पश्चिमी सीमान्त की तरफ ध्यान देना आवश्यक हो गया। तदनुसार वेलेजली ने मुंशी युसुफअली को अमूल्य भेटों के साथ रणजीतसिंह के दरबार में भेजा और उससे यह अनुरोध किया कि वह जमानशाह को सहायता न दे। परंतु जमानशाह के आक्रमण के भय का अन्त होते ही मुंशी युसुफअली को रणजीतसिंह के दरबार से वापस बुला लिया गया।

रणजीतसिंह के साथ अंग्रेजों के इस प्रथम संपर्क के अच्छे परिणाम निकले। रणजीतसिंह ने मराठा सरदारों – सिन्धिया तथा होल्कर को अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता देने से मना कर दिया था। इसका परिणाम भी अच्छा निकला और 1806 ई. में अंग्रेजों ने रणजीतसिंह के साथ मित्रता और सहयोग की संधि कर ली।

इस संधि के अनुसार अंग्रेजों ने यह आश्वासन दिया कि वे पंजाब से अपनी सेनाएँ हटा लेंगे और मराठों को पंजाब में उपद्रव नहीं करने देंगे। यह वचन भी दिया गया कि जब तक रणजीतसिंह अंग्रेजों के प्रति मैत्रीभाव रखेगा, तब तक वे रणजीतसिंह के राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे।

इस संधि ने दोनों के मध्य नियमित संबंध स्थापित कर दिया और भावी संबंधों को विकसित करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। परंतु जब रणजीतसिंह ने सतलज पार के राज्यों पर आक्रमण करके उन्हें अपनी अधीनता में लाने का प्रयास किया तो अंग्रेज चिन्तित हो उठे। उन्हें रणजीतसिंह की बढती हुई शक्ति रुचिकर नहीं लगी और वे उसको नियंत्रित करने को उत्सुक हो उठे। संयोगवश, सतलज वार के सिक्ख राज्यों ने कंपनी से रणजीतसिंह के विरुद्ध संरक्षण की माँग भी की। परंतु इस समय यूरोप में घटित होने वाली घटनाओं ने कंपनी को जल्दबाजी से रोक दिया।

अंग्रेजों को यह भी आशंका थी कि नेपोलियन मध्य एशिया के मार्ग से उनके भारतीय राज्य पर आक्रमण कर सकता था। कंपनी एक तरफ तो रणजीतसिंह को सतलज पार बढने से रोकना चाहती थी और दूसरी तरफ उसे नाराज भी करना नहीं चाहती थी, क्योंकि फ्रांसीसियों के संभावित आक्रमण के विरुद्ध उसे रणजीतसिंह के सहयोग की आवश्यकता थी। अतः चार्ल्स मेटकॉफ नामक सुयोग्य अधिकारी को सितंबर, 1808 ई. में रणजीतसिंह से बातचीत करने के लिए लाहौर भेजा गया। इससे रणजीतसिंह दुविधा में पङ गया। वह अंग्रेजों की नीति ठीक से न समझ पाया, क्योंकि अफगान सिक्खों के शत्रु थे।

ऐसी स्थिति में बातचीत लंबी होती गयी। अंग्रेजों ने अनुभव किया कि बिना शक्ति प्रदर्शन के रणजीतसिंह झुकने वाला नहीं है। अतः फरवरी, 1809 ई. में आक्टरलोनी के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना सतलज पार की तरफ बढी और सतलज पार के सिक्ख सरदारों को सुरक्षा का आश्वासन दिया गया। रणजीत को स्पष्ट कर दिया गया कि अंग्रेज अपने प्रस्तावों को मनवाने के लिए सैनिक कार्यवाही भी कर सकते हैं। अप्रैल, 1809 ई. में दोनों के मध्य संधि हो गयी, जिसे अमृतसर की संधि कहा जाता है।

अमृतसर की संधि

उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम में राज्य-विस्तार

अमृतसर की संधि के कारण जब रणजीतसिंह के राज्य का सतलज पार प्रसार अवरुद्ध हो गया तो उसने उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम की ओर अपनी सीमाओं को बढाने का फैसला किया। 1809 ई. में कांगङा क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। 1815 ई. में अफगानों के साथ उसका संघर्ष हुआ, जिसमें उसे सफलता मिली और बाद में सिक्खों ने अटक पर अधिकार कर लिया। मुल्तान पर 1802 ई. से ही रणजीतसिंह की नजरें गङी हुई थी, परंतु सफलता 1818 ई. में मिली।

1819 ई. में रणजीतसिंह की सेना ने काश्मीर पर आक्रमण कर दिया। काश्मीर का अफगान सूबेदार परास्त हुआ और काश्मीर पर रणजीतसिंह का अधिकार हो गया। कश्मीर-विजय रणजीतसिंह की महान सफलता मानी जाती है। इससे उसके राज्य सी सीमाएँ तिब्बत तथा चीन से जा टकराई। 1821 ई. में दोआब में स्थित मंकेरा राज्य पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। 1823 ई. में सिक्ख सेना ने पेशावर पर आक्रमण किया।

इस बार अफगानों ने जमकर लोहा लिया परंतु रणजीतसिंह विजयी हुआ। 1834 ई. में पेशावर का क्षेत्र सिक्ख राज्य में मिला लिया गया। परिणामस्वरूप रणजीतसिंह के राज्य की सीमा सुदूर उत्तर-पश्चिम तक पहुँच गयी। इस बीच सतलज के पश्चिम और उत्तर में स्थित विभिन्न छोटी-छोटी मिसलों को जीतकर उनके राज्य को सिक्ख राज्य में मिला लिया गया। इस प्रकार, रणजीतसिंह ने एक विशाल एवं शक्तिशाली राज्य का संगठन करने में शानदार सफलता प्राप्त की। 27 जून, 1839 ई. को 59 वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हो गयी।

1809 ई. के बाद अंग्रेजों के साथ रणजीतसिंह के संबंध

अमृतसर की संधि से लेकर रणजीतसिंह की मृत्यु तक रणजीतसिंह और अंग्रेजों के आपसी संबंधों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है – पहला 1809 से 1831 ई. तक और दूसरा 1831 से 1839 ई. तक। प्रथम काल में दोनों पक्षों के बीच सद्भावना बनी रही और विशेष कठिनाइयों का सामना नहीं करना पङा। जब सतलज के पश्चिम में स्थित सिक्ख राज्यों ने रणजीतसिंह के विरुद्ध अंग्रेजों से संरक्षण की याचना की तो अंग्रेजों ने उन्हें संरक्षण देने से मना कर दिया। वे संधि का पालन करते रहे और रणजीतसिंह के राज्य विस्तार कार्यों में हस्तक्षेप नहीं किया। इसका संभावित कारण शायद यह था कि इस समय अंग्रेज भारत के अन्य भागों में अपनी सत्ता को सुदृढ बनाने में लगे हुए थे। अतः उन्होंने पंजाब के मामलों में टाँग अङाना उचित नहीं समझा।

रणजीतसिंह ने भी अपनी तरफ से संधि की शर्तों का उल्लंघन करने का कभी प्रयास नहीं किया। जब 1816 ई. में कंपनी को नेपाल-युद्ध और 1824 ई. में बर्मा-युद्ध में फँस जाना पङा, तब रणजीतसिंह ने परिस्थितियों का लाभ उठाना उचित नहीं समझा, यद्यपि नेपाल ने उससे सहायता की याचना की थी। इसी प्रकार तृतीय मराठा युद्ध के अवसर पर भी उसने नागपुर के भोंसले और 1825 ई. में भरतपुर के जाटों को अँग्रेजों के विरुद्ध सहायता देने से इन्कार कर दिया।लेकिन अंग्रेजों ने सच्ची मैत्री का परिचय नहीं दिया। उत्तर-पश्चिमी प्रान्त की बहावी जाति के अफगानों ने रणजीतसिहं के विरुद्ध जिहाद (धर्मयुद्ध) छेङ दिया था और अंग्रेजों को इसकी जानकारी भी मिल चुकी थी, फिर भी उन्हें रोकने का प्रयत्न नहीं किया। वे चाहते थे कि पठान लोग रणजीतसिंह का विरोध करते रहें, जिससे उसकी शक्ति कमजोर होती जाय।

1831 के बाद दोनों पक्षों के मध्य कुछ ऐसी समस्याएँ आयी, जिससे अँग्रेजों के दबाव तथा धमकी के सामने रणजीतसिंह को घुटने टेकने पङे, अर्थात अपने हितों को त्याग कर उसे मित्रता निभाने के लिए विवश होना पङा। पहली समस्या सिन्ध की थी। रणजीतसिंह अपने राज्य के दक्षिण में स्थित सिन्ध क्षेत्र को अपने अधिकार में लेना चाहता था। सिन्ध के अमीर अफगानिस्तान के शासक को अपना नाममात्र का शासक मानते थे, अन्यथा वे स्वतंत्र शासकों की भाँति शासन कर रहे थे। सिन्ध के अमीरों में आपसी एकता का भी अभाव था। अतः वे रणजीतसिंह का सामना करने की स्थिति में नहीं थे। रणजीतसिंह का मानना था कि अमृतसर की संधि के द्वारा उसे केवल सतलज पार बढने की मनाही थी।

दक्षिण दिशा की ओर अपने राज्य का विस्तार करने के लिए स्वतंत्र था। उधर अंग्रेज स्वयं सिन्ध पर अपना नियंत्रण कायम करना चाहता थे। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर उन्होंने बर्न्स नामक अधिकारी को रणजीतसिंह के लिए कुछ भेंट-उपहार देकर सिन्ध नदी के मार्ग से भेजा था। उसके इस मिशन का वास्तविक ध्येय सिंध की भौगोलिक तथा राजनीतिक स्थिति की पर्याप्त जानकारी प्राप्त करना था। इसके बाद 1831 ई. में कंपनी के गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेन्टिक ने रोपर नामक स्थान पर महाराजा रणजीतसिंह से व्यक्तिगत मुलाकात की।

इस मुलाकात के समय पुरानी मित्रता की दुहाई दी जाती रही। इसी समय अंग्रेज अधिकारी पोटिन्गर सिन्ध के अमीरों से संधि करने के प्रयत्न में जुटा हुआ था। बेन्टिक ने रणजीतसिंह को अपना वास्तविक इरादा नहीं बताया। उसे केवल इतना कहा गया कि सिन्ध के अमीरों के साथ कंपनी के व्यापारिक संबंध तय हो गये हैं। अंग्रेजों ने इस संबंध में दोहरी चाल चली। रणजीतसिंह को बार-बार चेतावनी दी जाती रही कि वह सिन्ध की तरफ बढने का प्रयत्न न करे और सिन्ध के अमीरों से कहा गया कि रणजीतसिंह उनके राज्यों पर आक्रमण करने ही वाला है और उसके आक्रमण से बचने का एकमात्र रास्ता है – कंपनी के संरक्षण में आना। फलस्वरूप सिन्ध के अमीर कंपनी के चंगुल में फँस गये और रणजीतसिंह के हाथ से अवसर निकल गया।

इस समय के आस-पास रणजीतसिंह ने शिकारपुर पर अधिकार जमाने का प्रयत्न किया, परंतु अंग्रेजों ने उसे ऐसा करने से मना कर दिया। 1832 ई. में अंग्रेजों ने फिरोजपुर पर अधिकार कर लिया। यद्यपि वे फिरोजपुर पर रणजीतसिंह के दावे को पहले स्वीकार कर चुके थे। अंग्रेजों के लिए फिरोजपुर सैनिक दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि यह रणजीतसिंह की राजधानी लाहौर से केवल 40 मील दूर था और यहाँ से लाहौर पर धआवा मारना बहुत आसान था। अंग्रेजों के इस शत्रुतापूर्ण कार्य को भी रणजीतसिंह ने चुपचाप सहन कर लिया, जिससे उसकी विवशता स्पष्ट हो जाती है।

आखिरी महत्त्वपूर्ण समस्या अफगानिस्तान की थी। 1809 ई. में अफगानिस्तान के तत्कालीन शासक शाहशुजा को उसके भाी मोहम्मदशाह ने पदच्युत करके सिंहासन पर कब्जा कर लिया था। शाहशुजा भागकर भारत चला आया और अंग्रेजों की शरण में रहने लगा। 1818 ई. में उसने काश्मीर के गवर्नर की सहायता से अफगानिस्तान का सिंहासन पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न किया, किन्तु उसे सफलता न मिली।

पेशावर पर अपना अधिकार जमा लेने के बाद रणजीतसिंह ने शाहशुजा को अफगानिस्तान का सिंहासन पुनः दिलवाने में उसकी सहायता करने का प्रस्ताव रखा। परंतु अंग्रेजों की रुचि न देखकर शाहशुजा ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। 1832 ई. तक अफगानिस्तान की परिस्थितियाँ पुनः शाहशुजा के अनुकूल होने लगी। रणजीतसिंह ने पुनः शाहशुजा को सैनिक सहायता देना स्वीकार कर लिया।

परंतु अफगानिस्तान के तत्कालीन शासक दोस्त मुहम्मद ने शुजा को परास्त करके खदेङ दिया। 1836-37 ई. में अफगानिस्तान के शासक दोस्त मुहम्मद ने रूस से मैत्री बढाना शुरू किया, जिससे अंग्रेज घबरा गये और उन्होंने शाहशुजा को अफगानिस्तान के सिंहासन पर बैठाने का फैसला किया परंतु इसके लिए रणजीतसिंह के सहयोग की आवश्यकता थी। फलस्वरूप, 26 जून, 1818 को अंग्रेजों, शाहशुजा और रणजीतसिंह के सहयोग की आवश्यता थी।

फलस्वरूप 26 जून, 1818 को अंग्रेजों, शाहशुजा और रणजीतसिंह के बीच संधि हो गयी। संधि के अनुसार शाहशुजा को अफगानिस्तान का शासक बनाना तय हुआ। शाहशुजा ने अफगानिस्तान में रणजीतसिंह द्वारा अधिकृत क्षेत्रों पर से अपना दावा छोङ दिया। परंतु बाद में अंग्रेजों ने रणजीतसिंह को कहा कि शिकापुर पर उसका दावा स्वीकार नहीं किया जायेगा और न ही जलालाबाद पर अधिकार जमाने की अनुमति दी जायेगी।

इस पर रणजीतसिंह ने संधि पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया। तब अंग्रेजों ने उसे धमकी दी कि यदि वह हस्ताक्षर नहीं करेगा तो अंग्रेज अपनी तरफ से इस योजना को कार्यान्वित कर देंगे। विवश होकर रणजीतसिंह को विष का घूँट पीना पङा और बङी अनिच्छा से उसने संधि पर हस्ताक्षर किये। सत्य तो यह है कि अफगानिस्तान के प्रति किसी भी ब्रिटिश नीति से रणजीतसिंह को कोई खुशी नहीं हो सकती थी, क्योंकि वह स्वयं अफगानिस्तान को नियंत्रित करना चाहता था। परंतु दूसरी तरफ अंग्रेज भी ऐसा ही चाहते थे। उन्हें एक तरफ तो रूप का भय लग रहा था और दूसरी तरफ वे सिक्खों के शत्रु अफगानों से मैत्री करके सिक्खों को भी अपने इशारों पर नचाना चाहते थे।

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