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दक्षिण भारत के इतिहास की जानकारी के स्रोत

दक्षिण भारत के इतिहास के अध्ययन के लिये हमें उतनी अधिक सामग्री नहीं मिलती, जितनी उत्तर भारत के इतिहास की जानकारी के लिये मिलती है। अधिकांश इतिहास लेखकों ने दक्षिण भारत की उपेक्षा सी ही की है।

उत्तरी भारत के इतिहास की जानकारी के साहित्यिक स्रोत, पुरातात्विक स्रोत तथा विदेशी यात्रीयों का विवरण

इतिहासकार स्मिथ का कथन इस संबंध में उचित ही प्रतीत होता है, कि प्राचीन भारत के अब तक के इतिहासकारों ने इस प्रकार इतिहास लिखा है, कि जैसे दक्षिण का अस्तित्व ही न हो।

यद्यपि इतिहासकार स्मिथ का यह कथन सही है, कि अधिकांश इतिहासकारों की दृष्टि में दक्षिण भारत का अस्तित्व ही नहीं था तथापि हम देश के इस महत्त्वपूर्ण भूभाग के इतिहास के पुनर्निर्माणार्थ अनेक साहित्यिक और पुरातात्विक सामग्रियाँ प्राप्त करते हैं। साथ ही साथ विदेशी विवरणों से भी इसके लिये उपयोगी सूचनायें प्राप्त हो जाती हैं।

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हम दक्षिण भारत के इतिहास की जानकारी के स्रोतों का वर्गीकरण तीन भागों में कर सकते हैं-

साहित्य

साहित्य के अंतर्गत हम वैदिक साहित्य तथा प्राचीनतम महाकाव्यों – रामायण और महाभारत का उल्लेख कर सकते हैं। ऋग्वेद में कहीं-कहीं पर दक्षिण भारत के बारे में बताया गया है। ऋग्वेद के एक मंत्र में दक्षिणापदा (दक्षिण की दिशा में पैर) का प्रयोग किया गया है। किन्तु यह स्पष्ट नहीं है, कि इस शब्द से वास्तविक तात्पर्य क्या है। इस ग्रंथ में दक्षिण की किसी जाति, नदी, पर्वत का कोई भी उल्लेख नहीं मिलता है। अतः यही मानना उचित लगता है, कि पूर्व वैदिक आर्य दक्षिण भारत से परिचित नहीं थे। किन्तु कुछ ब्राह्मण ग्रंथों में हम दक्षिण भारत का उल्लेख प्राप्त करते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण में कुरुपंचाल से परे प्रेश को दक्षिणादिश कहा गया है। इसमें विदर्भ राज्य तथा वहाँ के राजा भीम का उल्लेख मिलता है। शतपथ ब्राह्मण रेवोत्तरस चाक्रपाटवस्थपति नामक अक अधिकारी का नाम मिलता है, जिसे श्रृंजयों ने अपने राज्य से खदेङ दिया था। कुछ विद्वानों का विचार है, कि यहाँ रेवोत्तरस से तात्पर्य रेवा आर्थात् नर्मदा के उत्तर का निवासी है, किन्तु यह संदिग्ध है। वैयाकरण पाणिनि (5-6 शती ईसा पूर्व) दक्षिणी भारत से परिचित थे, जैसा कि अष्टाध्यायी के कुछ उल्लेखों से स्पष्ट होता है। इसमें एक स्थान पर दक्षिणात्य शब्द का प्रयोग मिलता है, तथा अश्मक एवं कलिंग जनपदों का उल्लेख किया गया है। बौधायन धर्मसूत्र तथा बौद्ध ग्रंथ सुत्तनिपात एवं विनयपिटक में दक्षिणापथ का उल्लेख मिलता है। बौधायन ने दक्षिण भारतीय समाज में प्रचलित कुछ रीति-रिवाजों का भी उल्लेख किया है।

कात्यायन (ई.पू.चौथी शता.) जो अष्टाध्यायी के टीकाकार थे, ने नासिक के साथ-साथ सुदूर दक्षिण में स्थित चोल, पाण्ड्य, केरल, आदि राज्यों का उल्लेख किया है। रामायण तथा महाभारत में भी हम दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों, पर्वतों, नदियों आदि का उल्लेख किया हा।

रामायण के किष्किन्धाकांड में पाण्ड्य राज्य तक के दक्षिण भारत का उल्लेख किया गया है। दंडकारण्य का भी उल्लेख किया गया है। यह दंडकारण्य पार्जिटर के अनुसार बुंदेलखंड से लेकर कृष्णा नदी तक फैले हुए वन प्रदेश का सामान्य नाम था। नदियों में हमें कृष्णा,गोदावरी, कावेरी, नर्मदा, ताम्रपर्णि तथा पर्वतों में महेन्द्र तथा जनपदों में विदर्भ, कलिंग, आंध्र, चोल, पांड्य, केरल आदि का उल्लेख मिलता है।

महाभारत में भी दक्षिण भारत के अनेक जनपदों, पर्वतों, नदियों, वनों आदे के साथ-साथ अगस्त्य ऋषि का भी उल्लेख मिलता है। जिन्होंने दक्षिण में सर्वप्रथम आर्य संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। इस सबसे स्पष्ट हो जाता है, कि महाभारत के वर्तमान स्वरूप के समय (4 शता.ईस्वी) तक दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार हो चुका था। हमें यह भी पता चलता है, कि इस समय दक्षिण में अनेक तीर्थ स्थल थे, जिन्हें उत्तर के लोग पवित्र मानते थे।

सुदूर दक्षिण के तमिल इतिहास तथा संस्कृति पर प्रकाश डालने वाली प्राचीनतम रचना संगम साहित्य है। इसे ईसा की प्रथम दो शताब्दियों की रचना माना जाता है। इसके अध्ययन से द्रविङ देश के तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन की अच्छी जानकारी प्राप्त हो जाती है। संगम काल की समाप्ति अर्थात् तीसरी शता. के बाद से लेकर छठीं शता. ईस्वी तक दक्षिण भारत का इतिहास जानने के लिये हमारे पास साधनों का अभाव है। इस काल को साहित्यिक गतिविधियों की दृष्टि से अंधयुग कहा जाता है।

छठीं शता. के बाद हमें दक्षिण से कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथ प्राप्त होते हैं, जिनसे तत्कालीन इतिहास तथा संस्कृति से संबंधित रोचक तथ्य उपलब्ध हो जाते हैं। दक्षिण भारत के प्रसिद्ध राजवंशों – चालुक्य, राष्ट्रकूट, पल्लव एवं चोल के शासनकाल में रचित कुछ कृतियाँ तत्कालीन जनजीवन पर प्रकाश डालती हैं। बिल्हण द्वारा रचित विक्रमांकदेवचरित से कल्याणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ के जीवन चरित तथा उसके समय की घटनाओं पर प्रकाश पङता है। पल्लवकाल में रचित संस्कृत तथा तमिल भाषा के ग्रंथ उस काल के लिये उपयोगी हैं। महाकवि सोड्ढल द्वारा रचित अवंतिसुंदरी कथासार पल्लव नरेश सिंहविष्णु तथा उसके समकालीन नरेशों और उनके समय के राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन की अच्छी जानकारी देता है।

महेन्द्रवर्मन् प्रथम कृत मत्तविलासप्रहसन कापालिकों एवं बौद्ध भिक्षुओं के कारण उत्पन्न सामाजिक स्थिति का व्यंगपूर्ण एवं मनोरंजक विवरण प्रस्तुत करता है। साथ ही साथ इसमें पुलिस तथा न्याय प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचारों की ओर भी संकेत किया गया है। तमिल ग्रंथों में नंदिक्कलंबकम् उल्लेखनीय है, जो नंदिवर्मन् तृतीय के जीवनवृत्त और उपलब्धियों पर प्रकाश डालता है। जैनग्रंथ लोक विभागद में सिंहवर्मन् के राज्य तथा शासन का विवरण है। बौद्ध ग्रंथ महावंश के अध्ययन से हम प्रारंभिक पल्लव शासकों की तिथि-निर्धारित करने में सहायता प्राप्त करते हैं।

चोलवंश का इतिहास जानने के लिये भी कुछ साहित्यिक ग्रंथ उपयोगी हैं। चोलों का प्रारंभिक इतिहास हम संगम-साहित्य से जानते हैं। बाद की रचनाओं में जयन्गोण्डार कृत कलिंगत्तुपराणि कुलोत्तुंग प्रथम की वंशपरंपरा तथा उसके समय में कलिंग पर होने वाले आक्रमण का विवरण देता है। शक्किलार कृत पेरियपुराणम् जिसकी रचना कुलोत्तुंग के समय में की गयी, से उस काल की धार्मिक दशा का पता चलता है।

बुद्धमित्र के वीरशोलियम् से वीर राजेन्द्र के समय की कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का पता चलता है। कुछ प्रसिद्ध उलाओं (श्रृंगार एवं वीर रस प्रधान जीवनचरित) से कुलोत्तुंग द्वितीय तथा राजराज द्वितीय के संबंध में जानकारी मिलती है। बौद्ध ग्रंथ महावंश में परांतक की पांड्य विजय तथा राजेन्द्र प्रथम की सिंहल विजय का वृत्तांत किया गया है। तमिल साहित्य की एक विधा कौवे भी है। इस प्रकार का ग्रंथ पाण्डिक कौवे है, जो पाण्ड्य शासकों के युद्धों का विवरण देता है।

कन्नङ भाषा में लिखे गये ग्रंथों में पंप रचित विक्रमार्जुनीय विजय अथवा भारत तथा रन्न द्वारा लिखे गये गदा युद्ध से समसामयिक राष्ट्रकूट तथा चालुक्य इतिहास से संबंधित कुछ बातों का पता चलता है। पम्म कन्नङ साहित्य का सर्वश्रेष्ठ कवि था, जो राष्ट्रकूटों के सामंत वेन्मुलवाड के चालुक्य शासक अरिकेसरिन् द्वितीय का दरबारी कवि था। उसने इंद्र तृतीय के उत्तरी अभियान के संबंध में कुछ विवरण दिया है। इस युद्ध में अरिकेसरिन सम्मिलित था। पंप ने अपने आश्रयदाता के पराक्रम की तुलना अर्जुन से की है। वह बताता है, कि अरिकेसरिन के पिता नरसिंह ने गुर्जर नरेश महीपाल को बंदी बना लिया था।

विदेशी लेखकों और यात्रियों के विवरण

भारत की यात्रा करने वाले विदेशी यात्रियों के विवरण से भी हमें दक्षिण भारत के इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। सर्वप्रथम यूनानी राजदूत मेगस्थनीज का उल्लेख हम कर सकते हैं, जो चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था। वह लिखता है, कि सूदूर दक्षिण के पाण्ड्य राज्य की शासिका पाण्ड्या, हेराक्लीज की पुत्री थी। उसका राज्य 365 ग्रामों का संगठन था। प्रत्येक ग्राम को प्रतिदिन राजकोष के निमित्त कर देना पङता था। पेरीप्लस नामक ग्रथ (प्रथम शताब्दी ईस्वी) के अज्ञातनामा यूनानी लेखक का विवरण दक्षिण भारत के संबंध में सबसे अधिक प्रमाणिक है, क्योंकि उसने प्रत्यक्ष जानकारी के आधार पर लिखा है। वह केरल तथा तमिल देश में स्थित पूर्वीघाट के प्रमुख बंदरगाहों तथा भारत और रोम के बीच घनिष्ठ व्यापारिक संबंधों का विवरण देता है।

टालमी का भूगोल भी दक्षिण के इतिहास की जानकारी के लिये उपयोगी ग्रंथ है। इसमें भी पूर्वीतट तथा उससे भी दूरस्थ स्थानों की व्यापारिक गतिविधियों पर प्रकाश पङता है। पता चलता है, कि दक्षिण भारत का पूर्वी द्वीप समूह तथा हिन्द-चीन के देशों के साथ गहरा सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध था।

टालमी का विवरण भी प्रत्यक्ष जानकारी के आधार पर लिखा गया होने के कारण विश्वसनीय है। इसके अलावा स्ट्रेबो, प्लिनी आदि लेखकों के विवरण भी दक्षिण भारत के बारे में जानाकरी प्रदान करते हैं।

चीनी यात्रियों में ह्वेनसांग (7 वीं शता.ईस्वी) का विवरण दक्षिण के इतिहास के लिये सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। उसने दक्षिण के विभिन्न स्थानों में कुछ समय तक निवास कर अपने समय की राजनैतिक, सामाजिक तथा धार्मिक स्थिति के विषय में विवरण प्रस्तुत किया। इससे चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय तथा पल्लव शासक नरसिंहवर्मन् प्रथम के शासन के संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनायें प्राप्त होती हैं। ह्वेनसांग पुलकेशिन की वीरता तथा उसके शासन की प्रशंसा करता है । कांची के विषय में लिखते हुये वह कहता है, कि वहाँ एख सौ से अधिक मठों में दस हजार भिक्षु निवास करते थे। तथा लोग विद्या के प्रेमी थे।

ह्वेनसांग के बाद भारत की यात्रा करने वाले यात्री इत्सिंग के विवरण में भी दक्षिण का उल्लेख मिलता है। उसने साठ बौद्ध भिक्षुओं की जीवनी लिखी है। मात्वान् लिन् नामक चीनी लेखक चालुक्य शासकों- विनयादित्य एवं विजयादित्य के चीन के साथ सांस्कृतिक संबंधों का उल्लेख करता है। चीनी इतिहास से पता चलता है, कि 8वीं शती में चीन तथा पल्लव राज्य और 11वीं शती में चोल राज्य के बीच राजदूतों का आदान-प्रदान होता था। इसके बाद भी चीन तथा दक्षिण भारत के बीच बङे पैमाने पर व्यापार संबंध चलता रहा और चीनी जहाज स्वतंत्रतापूर्वक भारतीय समुद्र में आते थे। मंगोल सम्राट कुबलैखाँ ने दक्षिण भारत के राजाओं के पास अनेक दूत भेजे थे। 13वीं शता. के चीनी लेखक चाऊ-जू-कुआ के विवरण से चोलों की न्याय-व्यवस्था पर प्रकाश पङता है। इसी प्रकार यूरोपीय यात्री मार्कोपोलो (तेरहवी शती.) ने दक्षिण के लोगों के रहन-सहन, रीति-रिवाजों, धर्म आदि के विषय में विवरण प्रस्तुत किये हैं। पाण्ड्य वंश से संबंधित उसके कुछ उल्लेख उपयोगी हैं।

पुरातात्विक स्रोत

इस सामग्री के अंतर्गत हम अभिलेख, सिक्के तथा प्राचीन स्मारकों की गणना कर सकते हैं।

अभिलेख दक्षिण भारत के इतिहास को जानने के प्रमाणिक साधन हैं। दक्षिण के सबसे प्रारंभिक अभिलेख अशोककालीन हैं। जो आंध्र प्रदेश में एर्रगुडि, मास्की, राजुल मंडगिरि तथा कर्नाटक में ब्रह्मगिरि, सिद्धपुर, जटिंग रामेश्वरम्, गोविमठ, पालकिगुण्डु आदि स्थानों से प्राप्त होते हैं। ये सुदूर दक्षिण में चोल, चेर तथा पाण्ड्य राज्यों के अस्तित्व की सूचना देते हैं। इनसे हम अशोक की दक्षिणी सीमा के विषय में भी जानकारी प्राप्त करते हैं, किन्तु दक्षिण भारत के इतिहास से संबंधित कोई महत्त्वपूर्ण बात इनसे सूचित नहीं होती है।

मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद सातवाहनों के समय से दक्षिण भारत के लेख प्रचुरता से मिलने लगते हैं। सातवाहन लेखों में नासिक से प्राप्त गुहालेखों का विशेष महत्त्व है, जिनसे हम इस वंश के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक गौतमीपुत्र शातकर्णि की उपलब्धियों एवं उसके व्यक्तित्व एवं चरित्र की विस्तृत जानकारी प्राप्त करते हैं। कलिंग नृपति खारवेल का हाथीगुंफा अभिलेख उसके ज्ञान का एकमात्र स्रोत है।सातवाहनों के बाद दक्षिणापथ एवं सुदूर दक्षिण में शासने करने वाले प्रायः सभी राजवंशों के अभिलेख प्राप्त होते हैं। वाकाटक लेखों में पूना का रिद्धपुर ताम्रपत्राभिलेख तथा अजंता से प्राप्त गुहाभिलेख का महत्त्व है। अजंता लेख इस वंश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों पर प्रकाश डालता है।

बादामी के चालुक्य वंश के इतिहास का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साधन पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख है। यह दक्षिणी ब्राह्मीलिपि तथा संस्कृत भाषा में अंकित है। इस प्रशस्ति का रचयिता रविकीर्ति था। इसके अध्ययन से हम पुलकेशिन की उपलब्धियों के साथ-साथ उसके समय तक चालुक्य इतिहास तथा समकालीन लाट, मालव, गुर्जर आदि के राजाओं के साथ पुलकेशिन के संबंधों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। अन्य लेखों में बादामी का शिलालेख, महाकूट अभिलेख, हैदराबाद दानपत्राभिलेख आदि का उल्लेख किया जा सकता है।

कल्याणी के चालुक्य वंश का इतिहास मुख्यतः कैथोम, मीरज, निलगुण्ड आदि से प्राप्त दानपत्राभिलेखों से जाना जाता है। राष्ट्रकूट वंश के लेखों में सामंतवागढ, राधनपुर, वनिदिन्दोरी, संजन, काम्बे तथा संगली के लेखों का उल्लेख किया जा सकता है। पल्लव राजाओं के लेख प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं में मिलते हैं। तथा मंदिरों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं आदि पर उत्कीर्ण हैं। प्रारंभिक लेखों में मैडवोलु तथा हीरहडगल्ली के लेख उपयोगी हैं। बाद के लेखों में उदयेन्दिरम् दानपत्र, कशागुडी दानपत्र, बाहुर, पल्लवरम्, पन्नमलाई, बैकुण्ठपेरुमाल के लेख महत्त्वपूर्ण हैं। चोल शासकों ने भी अनेक अभिलेखों को उत्कीर्ण करवाया था। इनमें संस्कृत, तमिल, तेलगू, कन्नङ सभी भाषाओं का प्रयोग हुआ है। प्रमुख चोल लेख लेडन दानपत्र, तंजोर लेख, तिरुवालंगाडु तथा करन्डै के दानपत्र तथा तिरुवेन्दपुरम् और उत्तर मेरुर अभिलेख हैं। राजेन्द्र तृतीय के समय में उत्कीर्ण कराया गया तिरुवेन्दपुरम् का लेख ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। इसमें ने केवल चोलों के उत्कर्ष अपितु उनके पराभव का भी विवरण प्रस्तुत किया गया है। यह होयसल राजाओं के प्रति कृतज्ञता की जानकारी प्रदान करता है। जिनकी सहायता से चोलों का पुनरुद्धार हुआ। उत्तरमेरूर लेख से चोल कालीन सुविकसित ग्राम शासन की जानकारी प्राप्त होती है। इसी प्रकार पाण्ड्य वंश के इतिहास के लिये वेलवीकुडी तथा सिन्नामन्नूर के लेख अत्यन्त उपयोगी हैं।

दक्षिण भारत के इतिहास की जानकारी के लिये सिक्कों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। सातवाहन राजाओं ने अपने सिक्कों के लिये शीशे का प्रयोग किया। इन पर उत्कीर्ण मुद्रालेखों में जिन राजाओं के नाम मिलते हैं, पुराणों से भी उनकी पुष्टि होती है। उनके कुछ सिक्कों पर दो पतवारों वाले जहाज का लक्षण मिलता है। इससे पता चलता है, कि उस समय समुद्री व्यापार काफी विकसित था। महाराष्ट्र के नासिक जिले के जोगलथंबी से प्राप्त सिक्कों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है, कि गौतमीपुत्र शातकर्णी के शक क्षत्रप नहपान को पराजित किया ता। बादामी के चालुक्यों के सिक्कों पर वाराह लक्षण मिलता है। कल्याणी के चालुक्य शासकों – जयसिंह, जगदेकमल्ल, सोमेश्वर प्रथम तथा तैल तृतीय के स्वर्ण सिक्कों से उनके काल की आर्थिक समृद्धि की सूचना मिलती है। पल्लवों के कुछ सिक्कों पर नाव का चित्र मिलता है, जो उनके समय के समुद्री व्यापार की प्रगति का द्योतक माना जा सकता है। चोल राजाओं ने सोने, चाँदी तथा ताँबे के सिक्के प्रचलित करवाये थे। ये उनकी प्रभुसत्ता, गौरव तथा उनके समय की आर्थिक प्रगति के परिचायक हैं।

सुदूर दक्षिण के कई स्थानों से रोमन सम्राटों जैसे आगस्टस, नीरों, टाइबेरियस आदि के स्वर्ण सिक्के मिलते हैं। इसने पता चलता है, कि ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में भारत तथा रोम के बीच घनिष्ठ व्यापारिक संपर्क था।

अभिलेख तथा सिक्कों के अलावा दक्षिण के विभिन्न स्थानों से बहुसंख्यक मंदिर, मूर्तियाँ, भवनों तथा स्मारकों के अवशेष मिलते हैं, जिनसे सभ्यता के विविध पक्षों की जानकारी प्राप्त होती है।

तंजौर का राजराजेश्वर मंदिर द्रविङ शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है। पल्लव काल के भी अनेक मंदिर प्राप्त होते हैं। विभिन्न स्थानों से बौद्ध विहारों के भी उदाहरण मिलते हैं। अजंता की गुफाओं के चित्र, चित्रकला के विकास के चर्मोत्कर्ष की जानकारी प्रदान करते हैं।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
2. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास, लेखक-  वी.डी.महाजन 

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