प्राचीन भारतइतिहाससातवाहन वंश

सातवाहनों की आर्थिक दशा

सातवाहन युग दक्षिण भारत के इतिहास में समृद्धि एवं सम्पन्नता का युग था। इस काल के लेखों में भूमि तथा ग्राम दान में दिये जाने के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। इससे भूमि की महत्ता प्रतिपादित होती है।

Note – भारत में भूमि अनुदान का प्राचीनतम् अभिलेखीय साक्ष्य सातवाहनों के समय (ईसा पूर्व प्रथम शती.) में ही मिलता है, जब महाराष्ट्र में अश्वमेघ यज्ञ के समय उपहारस्वरूप पुरोहितों को एक गाँव दिया गया था।

राजा के पास अपनी निजी भूमि होती थी।किसान भी भूमि के स्वामी होते थे। यदि राजा किसी दूसरे की भूमि का दान करना चाहता था, तो उसे उसके स्वामी से खरीदना पङता था। राजा कृषकों के उपज का छठाँ भाग कर के रूप में प्राप्त करता था।

कृषि की उन्नति के साथ ही साथ व्यापार-व्यवसाय की बहुत अधिक प्रगति हुई। मिलिन्दपन्ह में 75 व्यवसायों का उल्लेख हुआ है। जिनमें लगभग 60 प्रकार के व्यापार-व्यवसाय, विभिन्न कला-कौशलों से संबंद्ध थे। महावस्तु में राजगृह के पास निवास करने वाले 36 प्रकार के शिल्पियों का विवरण दिया गया है।

तत्कालीन लेखों में भी कुंभकार, लौहार, स्वर्णकार, धानिक (अनाज के व्यापारी), बंशकर (बांस का काम करने वाले), तिलपिसक (तेली), चर्मकार, कासाकार (कांसे के बर्तन बनाने वाले), गंधिक (गंधी), कोलिक (बुनकर) और यांत्रिक (जल यंत्र चलाने वाले) आदि व्यवसायियों का उल्लेख मिलता है। प्रत्येक व्यावसायिक संघ की अलग-2 श्रेणी होती थी, जिसका प्रधान श्रेष्ठिन् कहा जाता था।

श्रेणी के कार्यालय को निगमसभा कहते थे। श्रेणियों के अपने अलग व्यापारिक नियम होते थे, जिन्हें श्रेणी धर्म कहते थे। इन्हें राज्य की ओर से मान्यता प्राप्त थी। बैंकों का भी काम करती थी और इस रूप में रुपया जमा करती तथा ब्याज पर धन उधार देती थी। नासिक लेख से पता चलता है, कि गोवर्धन में बुनकरों की एक श्रेणी के पास 2000 काहापणों (कार्षापणों) की एकक अक्षयनीवि (स्थायी निक्षेप या पूंजी) एक प्रतिशत मासिक ब्याज की दर पर जमा की गयी थी।इसी प्रकार एक अन्य निधि 1000 काहापणों की थी जिस पर 3/4 प्रतिशत मासिक ब्याज देय था।

श्रेणियाँ अपने नाम से दान दे सकती थी। इनके सिक्के तथा मुहरें भी मिलती हैं। व्यापार-व्यवसाय में चाँदी एवं ताँबें के सिक्कों का प्रयोग होता था, जिन्हें कार्षापण कहा जाता था। इसके अलावा सातवाहनों ने सीसे के सिक्के ढलवाये , क्योंकि दक्षिण में चाँदी अनुपलब्ध होने से सीसा ही एकमात्र विकल्प था। ये सिक्के आर्थिक लेन-देन में अधिक उपयुक्त थे। सीसे के सिक्कों का वजन 500 ग्रेन था। हैदराबाद संग्रहालय में सातवाहनों के लगभग पचास हजार सिक्के संग्रहीत हैं, जिनसे इस समय के शिल्प और व्यापार पर प्रकाश पङता है।

सातवाहन काल में आंतरिक तथा बाह्य दोनों ही व्यापार उन्नति पर था। पेरीप्लस, टालमी के भूगोल तथा सातवाहन लेख एवं मुद्राओं से तत्कालीन व्यापारिक प्रगति की सूचना मिलती है। व्यापार वाणिज्य को शासकों द्वारा पूर्ण सुरक्षा प्रदान की गयी थी। देस के भीतर पैठन (प्रतिष्ठान), तगर, जुन्नार, करहाटक, नासिक, वैजयंती, धान्यकटक, विजयपुर आदि अनेक व्यापारिक नगर थे।

वे एक दूसरे से चौङी सङकों द्वारा जुङे हुए थे। एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल ले जाने एवं ले आने की अच्छी व्यवस्था थी। पूर्वी तथा पश्चिमी भागों के बीच पर्याप्त यातायात होता था। गोलकुण्डा (हैदराबाद), तगर (तेर) तथा पैठन से मार्ग भङौंच को जाता था। भङौंच पश्चिमी भारत की सर्वप्रमुख मंडी थी। टालमी इसे विशालकाय पण्य नगर कहता है। यहां से उज्जैन, प्रतिष्ठान, तगर तथा अन्य व्यापारिक केन्द्रों को मार्ग जाते थे।

प्रतिष्ठान रोमन माल की प्रमुख मंडी थी। यहां से मार्ग पूरब की ओर जाते हुए धान्यकटक तथा कृष्णा-गोदावरी घाटी के अन्य नगरों को जोङता था। प्रतिष्ठान तथा धान्यकटक दोनों में सातवाहनों की राजधानी थी, तथा ये व्यापार-वाणिज्य के प्रमुख केन्द्र थे। भङौंच के नीचे सोपारा स्थित था, जो कल्याण नगर का पत्तन था। यहां से श्रावस्ती को सीधा मार्ग जाता था।

भङौंच तथा सोपारा के बीच व्यापार में होङ लगी रहती थी। कल्याण भी एक अच्छी मंडी था, जो प्रतिष्ठान से जुङा था। पेरीपल्स से सूचित होता है, कि भृगुकच्छ (भङौंच) आने वाले रोमन जहाजों को सातवाहन सैनिक बलात् कल्याण तथा सोपारा ले जाते थे, जिससे शकों को उनसे लाभ न मिल सके।

शक-सातवाहन संघर्ष का वर्णन।

ऐसा प्रतीत होता है कि सौराष्ट्र तथा मालवा पर अधिकार को लेकर जो शकों तथा सातवाहनों में दीर्घकालीन संघर्ष हुआ उसका प्रमुख कारण इस क्षेत्र के समृद्ध व्यापार नियंत्रण स्थापित करना ही था। साम्राज्य के पूर्वी तथा पश्चिमी किनारों पर अनेक प्रसिद्ध बंदरगाह थे। टालमी गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के डेल्टा के बीच स्थित अनेक बंदरगाहों का उल्लेख करता है, तथा बताता है, कि इन स्थानों से मलयद्वीप तथा पूर्वी द्वीपों के लिये जहाज जाते थे।

पूर्वी दक्कन के प्रसिद्ध बंदरगाह कंटकोस्सील, कोंद्दूर, अल्लोसिंगे आदि थे।

पश्चिमी दक्कन में बेरीगाजा (भङौंच), सोपारा, कल्यान जैसे प्रसिद्ध बंदरगाह स्थित थे।

यहाँ से पश्चिमी देशों के लिये जहाज आते-जाते थे। पहली शता.ईस्वी में एक यूनानी नाविक हिप्पोलस ने भारतीयों को अरब सागर में चलने वाली मानसूनी हवाओं के विषय में बताया। फलस्वरूप भारतीय व्यापारी अरब सागर होकर पश्चिमी एशिया के बंदरगाह पर पहुँचने लगे।

कहा जाता है कि हिप्पालस की खोज के पूर्व जहां मिस्र के नगरों से पूर्व की ओर साल में लगभग 20 जहाज जाते थे, वहीं उसके बाद अब प्रतिदिन औसतन एक जहाज जाने लगा। भारत का व्यापार मिस्र, रोम, चीन तथा पूर्वी द्वीप समूहों के साथ होता था। सातवाहन नरेशों के कुछ सिक्कों पर दो पतवारों वाले जहाज के चित्र मिलते हैं। यह समुद्री व्यापार के विकसित होने का सूचक है।

पुलुमावी के समय में पूर्वी दक्कन में जहाजरानी का एक ऐतिहासिक युग आरंभ हुआ जो यज्ञश्री के समय में पूर्ण विकसित हो गया। उसके पास एक विशाल जहाजी बेङा था। दक्कन से रोम के निवासी अपने लिए रत्न, मलमल तथा विलासिता की सामग्रियाँ प्राप्त करते थे और इनके बदले में मुँह-माँगा सोना देते थे। भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं में रेशमी कपङे तथा मलमल, चीनी, इलायची, लौंग, हीरे, मानिक, मोती आदि थी। आयात की वस्तुओं में रोमन मदिरा, ताँबा, राँगा, सीसा, दवायें आदि प्रमुख थी। यह व्यापार भारत के लिये लाभकारी था। इस व्यापार के फलस्वरूप सातवाहन साम्राज्य आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध बन गया।

पश्चिमी देशों के साथ-2 सातवाहन काल में श्रीलंका तथा पूर्वीद्वीप समूहों – जावा, सुमात्रा आदि के साथ व्यापार मुख्यतः जल मार्ग से होता था। पेरीप्लस से पता चलता है, कि पोदुका के समीप नौकाओं का निर्माण होता था, जिनसे सुवर्णभूमि की यात्रा की जाती थी। श्रीलंका तथा सुवर्णभूमि की यात्रा के लिये मुख्य बंदरगाह तामलुक (ताम्रलिप्ति) था, जो पाटलिपुत्र से एक सङक मार्ग द्वारा जुङा हुआ था। ताम्रलिप्ति से पूर्वी द्वीपों को जाने वाले जहाज या तो बंगाल के तटवर्ती प्रदेश तथा बर्मा से या सीधे बंगाल की खाङी को पार कर जाते थे। पूर्वी द्वीप सुगंधित मसालों के लिये प्रसिद्ध थे, जिनकी प्रबल लालसा भारतीय व्यापारियों को वहाँ खींच ले गयी।

कालांतर में सांस्कृतिक प्रचारकों ने संबंध को दृढतर बनाया। मिलिन्दपन्ह से भी पता चलता है, कि भारत में अलसंद (मिस्री सिकंदरिया), सुवर्ण-भूमि तथा चीन को नियमित जहाज जाया करते थे। यह सुविकसित विदेशी व्यापार पुरुषपुर, तक्षशिला, मथुरा, कौशांबी, पाटलिपुत्र, उज्जैनी तथा प्रतिष्ठान जैसे प्रसिद्ध नगरों में फलने-फूलने वाली आंतरिक वाणिज्यिक गतिविधियों द्वारा पोषित होता था।

पेरीपल्स से पता चलता है कि सातवाहन साम्राज्य के पूर्वी तथा पश्चिमी भागों की जनसंख्या सघन थी, तथा लोग समृद्धिशाली थे। चार पहिये वाले गाङियों में पैठन से बहुत अधिक मात्रा में इन्द्रगोप मणि, तगर से मलमल तथा अन्य वस्त्र पश्चिमी भाग में स्थित व्यापारिक नगरों में पहुँचते थे तथा वहां से उऩ्हें भङौंच भेजा जाता था। पश्चिमी देशों से मालवाहक जहाज भी भङौंच पहुँचते थे। भङौंच से स्थल मार्गों द्वारा सामान अन्य स्थानों में भेजा जाता था।

इस प्रकार भङौंच इस काल का प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय बंदरगाह एवं व्यापारिक केन्द्र था।

शक-सातवाहन युग में जो व्यापारिक प्रगति प्रारंभ हुई, वह उसी वेग से कुषाणकाल में भी चलती रही। वस्तुतः ईसा-पूर्व दूसरी शताब्दी तक भारत में सिक्कों की भी प्रचुरता देखने को मिलती है। बहुसंख्यक ताँबे, कांसे, सीसे और पोटीन के सिक्के प्राप्त हुए हैं, जो विकसित व्यवसाय एवं वाणिज्य की सूचना देते हैं। सामान्य लेन-देन इन्हीं के माध्यम से होता था।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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