कन्नौज के लिये त्रिकोणात्मक संघर्ष किस-किस के बीच हुआ
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त्रिकोणीय संघर्ष [tripartite struggle] का मुख्य कारण कन्नौज की समृद्ध स्थिति
हर्ष के बाद कन्नौज विभिन्न शक्तियों के आकर्षण का केन्द्र बन गया। इसे वही स्थान प्राप्त हुआ, जो गुप्तयुग तक मगध का था। वस्तुतः हर्ष तथा यशोवर्मन ने इसे साम्राज्यिक सत्ता का प्रतीक बना दिया था। उत्तर भारत का चक्रवर्ती शासक बनने लिये कन्नौज पर अधिकार करना जरूर समझा जाने लगा। राजनैतिक महत्त्व होने के साथ-2 कन्नौज नगर का आर्थिक महत्त्व भी काफी हद तक बढ गया तथा यह भी इसके प्रति आकर्षण का महत्त्वपूर्ण कारण सिद्ध हुआ था।
इस पर अधिकार करने से गंगाघाटी तथा इसमें उपलब्ध व्यापारिक एवं कृषि संबंधी समृद्ध साधनों पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता था। गंगा तथा यमुना के बीच स्थित होने के कारण कन्नौज का क्षेत्र देश का सबसे अधिक उपजाऊ प्रदेश था। व्यापार-वाणिज्य की दृष्टि से भी यह नगर काफी महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि यहाँ से विभिन्न दिशाओं को व्यापारिक मार्ग जाते थे। एक मार्ग कन्नौज से प्रयाग तथा फिर पूर्वीतट तक जाकर दक्षिण में काच्ची तक जाता था। दूसरा मार्ग वाराणसी और गंगा के मुहाने तक जाता था। तीसरा मार्ग पूर्व में कामरूप तथा उत्तर से नेपाल और तिब्बत तक के लिये था। चौथा मार्ग कन्नौज से दक्षिण की ओर जाते हुये दक्षिण तट पर स्थित वनवासी नगर से मिलता था तथा पांचवां मार्ग कन्नौज से बजाज तक तथा उसके बाद गुजरात की राजधानी तक पहुंचता था।
जिस प्रकार पूर्व काल में मगध उत्तरापथ के व्यापारिक मार्ग को नियंत्रित करता था, उसी प्रकार की स्थिति कन्नौज ने भी प्राप्त कर ली थी। इस प्रकार राजनैतिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टियों से इस पर आधिपत्य स्थापित करना लाभदायक था। अतः इस पर अधिकार करने के लिये 8 वीं शता. की तीन बङी शक्तियों – पाल, गुर्जर-प्रतिहार, राष्ट्रकूट – के बीच त्रिकोण संघर्ष प्रारंभ हो गया, जो 8-9वीं शता. के उत्तर भारत के इतिहास की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटना है।
त्रिकोणीय [tripartite struggle] संघर्ष किन-किन शक्तियों के बीच हुआ था
- पाल,
- गुर्जर-प्रतिहार,
- राष्ट्रकूट
त्रिकोणीय संघर्ष का विस्तार से वर्णन
8वीं शता. के अंत में गुर्जरप्रतिहार नरेश वत्सराज (780-805 ईस्वी) राजपूताना और मध्य भारत के विशाल भू-भाग पर शासन करता था। बंगाल में इसी समय पालों का एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित हुआ। वत्सराज का पाल प्रतिद्वंद्वी धर्मपाल(770-810ईस्वी) था। दक्षिण में राष्ट्रकूटों ने अपना राज्य स्थापित कर लिया। वत्सराज और धर्मपाल का समकालीन राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव (780-793 ईस्वी) था। वह भी दक्षिण भारत में अपना राज्य सुदृढ कर लेने के बाद राजधानी कन्नौज पर अधिकार करना चाहता था। अतः कन्नौज पर आधिपत्य के लिये प्रथम संघर्ष वत्सराज, धर्मपाल तथा ध्रुव के बीच हुआ।
सर्वप्रथम कन्नौज पर वत्सराज तथा धर्मपाल ने अधिकार करने की चेष्टा की। परिणामस्वरूप दोनों में गंगा-यमुना के दोआब में कहीं युद्ध हुआ। इस युद्ध में धर्मपाल की पराजय हुई। इसका उल्लेख राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय के राधनपुर लेख (808ईस्वी) में हुआ है, जिसके अनुसार मदांध वत्सराज ने गौङराज की राजलक्ष्मी को आसानी से हस्तगत कर उसके दो राजछत्रों को छीन लिया। पृथ्वीराजविजय में भी इस संबंध में एक संदर्भ मिलता है, जिसके अनुसार चाहमान नरेश दुर्लभराज ने गौङ देश को जीतकर अपनी तलवार को गंगा सागर के जल में नहलाया था। संभवतः वह वत्सराज का सामंत था तथा उसी की ओर से उसने गौङ नरेश के विरुद्ध युद्ध में भाग लिया था। इस प्रकार वत्सराज ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया तथा वहाँ का शासक इन्द्रायुद्ध उसकी अधीनता स्वीकरा करने लगा। इसी समय राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव ने विन्ध्यपर्वत पार कर वत्सराज पर आक्रमण किया। वत्सराज बुरी तरह पराजित हुआ तथा वह राजपूताना की ओर भाग खङा हुआ।
राधनपुर लेख में कहा गया है, कि उसने वत्सराज के यश के साथ ही उन दोनों राजछत्रों को भी धीन लिया, जिन्हें उसने गौङनरेश से लिया था। ध्रुव ने पूर्व की ओर बढकर धर्मपाल को भी पराजित कर दिया। संजन तथा सूरत के लेखों में ध्रुव की इन सफलताओं का उल्लेख मिलता है। संजन लेख के अनुसार उसने गंगा-यमुना के बीच भागते हुए गौङराज की लक्ष्मी के लीलारविन्दों और श्वेतछत्रों को छीन लिया। परंतु इन विजयों के बाद ध्रुव दक्षिण भारत लौट गया जहाँ 793 ईस्वी में उसकी मृत्यु हो गयी। उल्लेखनीय है, कि त्रिकोण संघर्ष में भाग लेने वाले राष्ट्रकूट दक्षिण की पहली शक्ति थे, जिन्होंने उत्तर भारत की राजनीति में हस्तक्षेप कर वहाँ आक्रमण किया था। 18 वी. शता. में मराठों ने यही भूमिका अदा की थी।
ध्रुव के उत्तर भारत के राजनीतिक दृश्य सो ओझल होने के बाद पालों तथा गुर्जर-प्रतिहारों में पुनः संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस बार पालों का पलङा भारी था। भागलपुर अभिलेख से पता चलता है, कि धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण किया तथा वहाँ इंद्रायुद्ध को हटाकर अपनी ओर से चक्रायुध को राजा बनाया। इसमें कहा गया है, कि धर्मपाल ने इंद्राराज और दूसरे शत्रुओं को परास्त कर कन्नौज नगर पर अधिकार कर लिया, किन्तु उसे चक्रायुध को उसी प्रकार वापस दे दिया, जिस प्रकार बलि ने इंद्र आदि शत्रुओं को जीतकर भी वामनरूपधारी विष्णु को तीनों लोक प्रदान किया था।
स्पष्ट है, कि यहाँ इन्द्र की समता इंद्रराज से तथा विष्णु की समता चक्रायुध से की गयी है। खालीमपुर अभिलेख में वर्णन मिलता है, कि धर्मपाल ने कान्यकुब्ज के राजा के रूप में स्वयं को अभिषेक करने का अधिकार प्राप्त कर लिया, लेकिन पंचाल के प्रसन्न वृद्धों द्वारा उठाये गये अभिषेक कलश से कान्यकुब्ज के राजा का अभिषेक किया। इसे भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु,यदु, यवनं, अवंति, गंधार तथा कीर के राजाओं ने अपना मस्तक झुकाकर धन्यवाद देते हुये स्वीकार किया था। इस विवरम से स्पष्ट है, कि कन्नौज के राजदरबार में उपस्थित उक्त सभी शासक धर्मपाल की अधीनता स्वीकार करते थे। धर्मपाल एक बङे भूभाग का शासक बन बैठा। परंतु उसकी विजयें स्थायी नहीं हुई। गुर्जर-प्रतिहार वंश की सत्ता वत्सराज के पराक्रमी पुत्र नागभट्ट द्वितीय (805-833ईस्वी) के हाथों में आई। उसने सिंध, आंध्र, विदर्भ तथा कलिंग को जीता तथा कन्नौज पर आक्रमण कर चक्रायुध को वहाँ से निकाल दिया। ग्वालियर प्रशस्ति में कहा गया है, कि चक्रायुध की नीचता इसी बात से सिद्ध थी, कि वह दूसरों के ऊपर निर्भर रहता था। यहाँ दूसरों से तात्पर्य धर्मपाल से है।
नागभट्ट कन्नौज को जीतने मात्र से ही खुश नहीं हुआ, अपितु उसने धर्मपाल के विरुद्ध भी अभियान कर दिया था। मुंगेर में नागभट्ट तथा धर्मपाल की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ, जिसमें पालनरेश की पराजय हुई। ग्वालियर लेख इसका काव्यात्मक विवरण इस प्रकार प्रस्तुत करता है – बंगनरेश अपने गजों, अश्वों एवं रथों के साथ घने बादलों के अंधकार की भाँति आगे बढकर उपस्थित हुआ, किन्तु त्रिलोकों को उस प्रसन्न करने वाले नागभट्ट ने उदीयमान सूर्य की भाँति उस अंधकार को काट डाला। इस विवरण से स्पष्ट है, कि युद्ध में धर्मपाल की पराजय हुई। भयभीत पालनरेश ने राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय(793-814ईस्वी) से सहायता माँगी। फलस्वरूप गोविन्द तृतीय ने नागभट्ट पर आक्रमण किया । संजन ताम्रपत्र से पता चलता है, कि उसने नागभट्ट द्वितीय को पराजित किया तथा मालवा पर अधिकार कर लिया। धर्मपाल तथा चक्रायुद्ध ने स्वतः उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। गोविन्द आगे बढता हुआ हिमालय तक जा पहुँचा, परंतु वह उत्तर में अधिक दिनों तक नहीं ठहर सका। उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर दक्षिण के राजाओं ने उसके विरुद्ध एक संघ बनाया, जिसके फलस्वरूप उसे शीघ्र ही अपने गृह-राज्य वापस आना पङा।
गोविन्द तृतीय के वापस लौटने के बाद पालों तथा गुर्जर-प्रतिहारों में पुनः संघर्ष छिङ गया। इस समय पालवंश का शासन धर्मपाल के पुत्र देवपाल (810-850 ईस्वी) के हाथों में था। वह एक शक्तिशाली शासक था। उसने 40 वर्षों तक राज्य किया तथा उसका साम्राज्य विशाल था। देवपाल के मुंगेर लेख से पता चलता है,कि उसने उत्कल, हूण, द्रविण एवं गुर्जर राजाओं के गर्व को चूर्म कर दिया। यहाँ गुर्जर नरेश से तात्पर्य रामभद्र से ही है, जो नागभट्ट का उत्तराधिकारी था। देवपाल के बाद विग्रहपाल (850-854ईस्वी) तथा फिर फिर नारायणपाल (854-908 ईस्वी) शासक हुये। इनके समय में पालों की शक्ति निर्बल पङ गयी। इसी समय गुर्जर -प्रतिहार वंश के के शासन की बागडोर एक अत्यंंत पराक्रमी शासक मिहिरभोज प्रथम (836-885ईस्वी) के हाथों में आई। वह इतिहास में भोज के नाम से प्रसिद्ध था। उसने अपने वंश की प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित करने की खोशिश की। सर्वप्रथम भोज ने कन्नौज तथा कालंजर को जीतकर अपने राज्य में मिलाया। किन्तु वह पालशासक देवपाल तथा राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय (878-914 ईस्वी) द्वारा पराजित किया गया। ऐसा लगता है, कि भोज ने देवपाल के शासन के अंत में उसे पराजित कर दिया, क्योंकि ग्वालियर लेख में कहा गया है,कि लक्ष्मी ने धर्म के पुत्र को छोङकर भोज का वरण किया। यहाँ धर्म के पुत्र से तात्पर्य धर्मपाल के पुत्र देवपाल से ही है। कृष्ण द्वितीय के देवली तथा करहद के लेखों में कहा गया है, कि उसने भोज को भयभीत किया था। किन्तु ये भोज की प्रारंभिक असफलतायें थी। इससे उसे विशेष क्षति नहीं हुई। इसी समय देवपाल की मृत्यु हो गयी तथा पालवंश की सत्ता निर्बल व्यक्तियों के हाथों में आई। पालों पर राष्ट्रकूटों ने भी आक्रमण किया। इससे भोज को अपनी शक्ति संगठित करने का अवसर मिल गया। उसने चेदि तथा गहलोत वंशों के साथ मैत्री संबंध स्थापित कर अपनी स्थिति को सुदृढ कर लिया था। उसके बाद उसने देवपाल के उत्तराधिकारी शासक को बुरी तरह परास्त किया। इस समय राष्ट्रकूटों तथा चालुक्यों में पारस्परिक संघर्ष चल रहा था। चालुक्यनरेश विजयादित्य तथा भीम ने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय को परास्त किया। कृष्ण की उलझन का लाभ उठाते हुये भोज ने नर्मदा नदी के किनारे उसे परास्त किया तथा मालवा को उससे छीन लिया। उसके बाद भोज ने काठियावाङ, पंजाब, अवध आदि प्रदेशों की विजय की। उसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की तथा कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। 885 ईस्वी में भोज की मृत्यु हो गयी।
भोज प्रथम के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम शासक हुआ, जिसने 910 ईस्वी तक शासन किया। बिहार तथा उत्तरी बंगाल के कई स्थानों से उसके लेख मिलते हैं, जिनमें उसे परमभट्टारकपरमेश्वरमहाराजाधिराजमहेन्द्रपाल कहा गया है। इनसे स्पष्ट है, कि मगध तथा उत्तरी बंगाल के प्रदेश भी पालों से गुर्जर – प्रतिहारों ने जीत लिया। इन प्रदेशों के मिल जाने से प्रतिहार -साम्राज्य अपने उत्कर्ष की पारकाष्ठा पर पहुंच गया।
इस प्रकार साम्राज्य के लिये 9वीं शता. की तीन प्रमुख शक्तियाँ- गुर्जर-प्रतिहार, राष्ट्रकूट,पाल में जो त्रिकोणात्मक संघर्ष प्रारंभ हुआ था, उसकी समाप्ति हुई। स्पष्ट है, कि इस संघर्ष में प्रतिहारों को ही सफलता प्राप्त हुई तथा कन्नौज के ऊपर उनका आधिपत्य स्तापित हो गया। देवपाल की मृत्यु के बाद पाल उत्तरी भारत की राजनीति से ओझल हो गये तथा प्रबल शक्ति के रूप में उसकी गणना न रही।
ऐसा लगता है,कि प्रतिहार-शासक महीपाल प्रथम (912-943 ईस्वी) के समय में राष्ट्रकूट राजाओं इन्द्र तृतीय ने कन्नौज नगर पर आक्रमण किया तथा थोङे समय के लिये प्रतिहारों के अधिकार को चलायमान कर दिया, किन्तु राष्ट्रकूटों की सफलता क्षणिक रही और उनके हटने के बाद वहाँ प्रतिहारों का अधिकार वापस हो गया। अब प्रतिहारों की गणना उत्तर भारत की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में होने लगी।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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