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हैदरअली का जन्म परिचय

हैदरअली

हैदरअली का जन्म परिचय

हैदरअली का जन्म (haidaralee ka janm parichay) मैसूर के कोलार जिले में बुदीकोट नामक स्थान पर सन 1722 ई. में हुआ था। उसके पूर्वज दिल्ली से गुलबर्गा आये थे तथा कृषि करते थे। जब हैदरअली केवल सात वर्ष का था, उसके पिता फतहमुहम्मद का देहांत हो गया। बहुत कठिनाई से उसको मैसूर के राजा कृष्णराज की सेना में एक साधारण पद पर नियुक्ति मिली।

हैदरअली का जन्म परिचय

हैदरअली कहाँ का शासक था?

हैदरअली का उत्कर्ष केवल मैसूर के इतिहास में ही नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण घटना है। हैदरअली अपनी योग्यता और साहस के बल पर उन्नति की ओर बढा था। हैदरअली की योग्यता तथा प्रतिभा से प्रभावित होकर मैसूर के प्रधानमंत्री नंदराज ने उसे फौजदार का पद प्रदान किया। थोङे ही दिनों में उसने अपनी सैनिक शक्ति काफी बढा ली। उसने मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टम पर आक्रमण करके प्रधानमंत्री नंदराज को बंदी बना लिया और शासन सत्ता पर अधिकार कर लिया।

1761 ई. तक उसने मैसूर राज्य की समस्त शक्ति अपने हाथ में केन्द्रित कर ली। 1776 में जब मैसूर के राजा की मृत्यु हो गयी, तब हैदरअली ने स्वयं को मैसूर का शासक घोषित कर दिया, लेकिन दक्षिण की अन्य तीन प्रमुख शक्तियाँ – मराठे, निजाम तथा अंग्रेज हैदरअली के इस उत्कर्ष के प्रति उदासीन नहीं थे। शीघ्र ही हैदरअली का इन तीन शक्तियों से संघर्ष हो गया।

हैदरअली का राज्य विस्तार

हैदरअली ने बेदनूर, मालाबार, बरामहल और कोयम्बटूर आदि को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। दक्षिण भारत के पोलीगारों को उसने अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया और सुन्डा, सीटी और और गुंटी को भी अपने राज्य में मिला लिया। बल्लापुरा आदि दुर्गों पर उसका अधिकार पहले ही हो चुका था। उसने कोचीन तथा पालघाट के राजाओं को भी अपने अधीन किया। इस प्रकार हैदरअली राज्य की सीमाओं का भारी विस्तार कर अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टम में राज्य करने लगा। हैदरअली मैसूर का वास्तविक शासक था, यद्यपि वहाँ नाममात्र के लिए हिन्दू राजा को रखा गया था, जिसके दर्शन प्रजा को वर्ष में एक बार करा दिये जाते थे।

हैदरअली तथा निजाम के मध्य संधि

हैदरअली की बढती हुई शक्ति से चौकन्ने होकर मराठों ने सन 1764 में मैसूर पर आक्रमण कर दिया। वलहली के युद्ध क्षेत्र में हार कर हैदरअली को मराठों से संधि करनी पङी, जिसके अनुसार उसे गुटी और सावनूर के जिले तथा 32 लाख रुपये मराठों को देने पङे।

सन 1766 में मराठों, निजाम और अंग्रेजों ने हैदरअली के विरुद्ध एक त्रिगुट बनाया, लेकिन इस गुट के सदस्यों को एक दूसरे पर विश्वास न था। हैदरअली ने बढी चतुरता से काम लिया। उसने मराठों को 35 लाख रुपये (18 लाख रुपये नकद और 17 लाख रुपये के बदले कौलार जिला) देकर मराठों को त्रिगुट से अलग कर दिया। इसी प्रकार हैदर ने निजाम को उत्तरी सरकार का प्रदेश दिलाने में सहायता का वचन देकर उसे भी अपनी ओर मिला लिया। इस प्रकार हैदर की कूटनीति से अंग्रेज अकेले पङ गये।

हैदरअली तथा मराठों के मध्य संधि (1780ई.)

प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध सन 1767 से 1769 के मध्य लङा गया। इसमें अंग्रेज पराजित हुए। अंग्रेजों को हैदरअली से 1769 ई. में संधि करनी पङी। अंग्रेजों के साथ की गयी 1769 की संधि से प्रोत्साहित होकर हैदरअली ने मराठों को कर देना बंद कर दिया, जिससे 1771-72 में मराठों ने मैसूर पर फिर आक्रमण कर दिया। हैदरअली ने मराठों को कुछ प्रदेश और धन देकर उन्हें वापिस भेज दिया।

पेशवा माधवराव की मृत्यु के बाद मराठा संघ की कलह और अव्यवस्था का लाभ उठाकर हैदरअली ने मराठों को दिए गए, अधिकांश प्रदेश को फिर अपने राज्य में मिला लिया तथा कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच का भाग मैसूर में मिला लिया। अंत में दोनों पक्षों में 1780 में संधि हो गयी। हैदरअली ने मराठों को अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता देने का वचन दिया, बदले में मराठों ने हैदरअली से वसूल की जाने वाली चौथ की रकम में भारी कमी कर दी।

हैदरअली तथा आंग्ल-मैसूर युद्ध

प्रथम मैसूर युद्ध (1767-69ई.) – त्रिगुट के दो सदस्यों मराठों और निजाम को संतुष्ट कर अब हैदरअली को केवल अंग्रेजों से ही लङना शेष रह गया। सन 1767 में दोनों पक्षों में युद्ध छिङ गया। प्रारंभ में अंग्रेजों ने हैदरअली तथा निजाम की संयुक्त सेनाओं को पराजित कर दिया। अतः निराश होकर निजाम ने हैदरअली का साथ छोङ दिया और अंग्रेजों से संधि कर ली। परंतु हैदरअली ने अँग्रेजों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा। उसने अंग्रेजों को पराजित करके मंगलौर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद हैदरअली मार्च, 1769 में मद्रास के निकट पहुँच गया।

अंग्रेजों से भयभीत होकर 1769 में हैदरअली से एक संधि कर ली, जिसे मद्रास की संधि कहते हैं। इस संधि के अनुसार दोनों पक्षों ने एक दूसरे के प्रदेश लौटा दिए, अंग्रेजों ने हैदरअली को हर्जाने के तौर पर बहुत सा धन दिया तथा दोनों ने भविष्य में एक दूसरे को आक्रमण होने पर सहायता देने का वचन दिया।

इस युद्ध में सफलता पाने पर हैदरअली की शक्ति और प्रतिष्ठा बहुत बढ गयी, लेकिन अंग्रेज इस संधि के प्रति निष्ठावान नहीं रहे। जब मराठों ने सन 1771-72 में हैदरअली पर आक्रमण किया, तो अंग्रेजों ने उसकी सहायता नहीं की। इस विश्वासघात के कारण हैदरअली जीवनपर्यंत अंग्रेजों से घृणा करता रहा।

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-84ई.)- द्वितीय आंग्ल – मैसूर युद्ध की प्रमुख विशेषताएँ निम्न थी-

कारण – मराठों के आक्रमण (1771-72) के समय अंग्रेजों द्वारा संधि की शर्तों के अनुसार, अपनी सहायता न करने पर हैदरअली बहुत क्रुद्ध हो गया था और उनसे बदला लेने को आतुर था। उसकी यह हार्दिक इच्छा थी कि अंग्रेजों को भारत से खदेङ दिया जाये। सन 1780 में हैदरअली को अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध आरंभ करने का अवसर मिल गया। उन दिनों अमेरिका का इंग्लैण्ड के विरुद्ध स्वतंत्रता का युद्ध चल रहा था, जिसमें फ्रांसीसी अमेरिकनों की सहायता कर रहे थे। इस युद्ध के कारण भारत में भी अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में युद्ध आरंभ हो गया। अंग्रेजों ने मालाबार तट पर स्थित फ्रांसीसी बस्ती माही पर अधिकार कर लिया।

मालाबार हैदरअली के राज्य का अंग था और माही को अपने अधिकार में समझता था। अतः उसने अंग्रेजों को वहाँ से हटने को कहा, किन्तु अंग्रेजों ने इनकार कर दिया। इन्हीं दिनों अंग्रेजों और मराठों का (प्रथम) युद्ध चल रहा था। हैदरअली ने स्थिति का लाभ उठाते हुए निजाम और मराठों को अपनी ओर मिला लिया और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, लेकिन वारेन हेस्टिंग्ज ने अपनी कूटनीति से निजाम और मराठों को हैदरअली से अलग कर दिया।

युद्ध –

सन 1780 में हैदरअली की विशाल सेना ने अंग्रेजों के मित्र कर्नाटक के नवाब पर आक्रमण किया। उसने 10 सितंबर, 1780 को अंग्रेज सेनापति कर्नल बैली को परास्त किया और उसे घायल अवस्था में बंदी बना लिया गया । दूसरा अंग्रेज सेनापति मुनरो भयभीत होकर मद्रास की ओर भाग गया। अक्टूबर, 1780 में हैदर अली ने कर्नाटक की राजधानी अर्काट पर अधिकार कर लिया। इन पराजयों से अँग्रेजों की प्रतिष्ठा को प्रबल आघात पहुँचा। तब बारेन हेस्टिंग्ज ने सर आयरकूट के नेतृत्व में एक अंग्रेजी सेना भेजी, जिसने 1781 में पोरटोनोवो और शोलिगढ के युद्धों में हैदरअली को पराजित किया, लेकिन अंग्रेजों की भी बहुत क्षति हुई। दूसरी ओर कर्नल ब्रेथवेट की सेना को हैदरअली ने हरा दिया।

वारेन हेस्टिंग्ज ने अब कूटनीति का सहारा लेकर मराठों के साथ सालबाई की संधि कर ली और निजाम को गुण्टूर का प्रदेश दे दिया, जिससे दोनों ने हैदरअली को सहायता देना बंद कर दिया। दोनों पक्षों में संघर्ष चलता रहा, लेकिन इसी बीच दिसंबर, 1782 में हैदरअली की मृत्यु हो गयी। उसके पुत्र टीपू ने संघर्ष जारी रखा। युद्ध, 1784 के प्रारंभिक महीनों तक चलता रहा, किन्तु हार-जीत का कोई निर्णय नहीं हो सका। अंत में 7 मार्च, 1784 ई. को टीपू और अंग्रेजों के मध्य मंगलौर की संधि हुई।

मंगलौर की संधि (7 मार्च, 1784 ई.)

दोनों ही पक्ष युद्ध से उकता गये थे। इसी बीच 1783 में यूरोप में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच संधि हो चुकी थी। इसलिए टीपू को फ्रांसीसी सहायता मिलनी बंद हो गयी। अंत में 7 मार्च, 1784 में अंग्रेजों और टीपू में संधि हो गयी, जिसके अनुसार- 1.) दोनों पक्षों ने एक-दूसरे के जीते हुए प्रदेश वापिस कर दिये तथा युद्ध बंदियों को मुक्त कर दिया। 2.) अंग्रेजों ने यह आश्वासन दिया कि वे मैसूर के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखेंगे और संकटकाल में मैसूर की सहायता करेंगे। 3.) टीपू ने अंग्रेजों को कोई व्यापारिक अधिकार अपने राज्य में प्रदान नहीं किए।

मंगलौर की संधि का महत्त्व

यह संधि अंग्रेजों के लिए बहुत अपमानजनक थी। लोगों में यह भावना फैल गयी कि अंग्रेजों को पराजित होकर टीपू के समक्ष संधि की भीख माँगनी पङी। यदि टीपू की अन्य भारतीय राज्य सहायता करते, तो अंग्रेजों की दशा बहुत शौचनीय हो जाती और संभवतः उनको भारत से भाग जाना पङता। किन्तु अंग्रेजी कूटनीति ने इस संकटकाल में अपार सफलता प्राप्त कर स्थिति को संभाल लिया। प्रतिष्ठा खोने के साथ-साथ अंग्रेजों को कर्नाटक से भी हाथ धोना पङा। यह संधि टीपू की कूटनीतिक सफलता थी।

यह संधि कोई स्थायी समझौता नहीं थी। यह स्पष्ट दिखाई देता था कि अंग्रेजी कंपनी और मैसूर राज्य एक बार फिर अपनी-अपनी शक्ति को दूसरे के विरुद्ध तौलेंगे। स्वयं वारेन हस्टिंग्ज इस संधि से संतुष्ट न था, परंतु मद्रास सरकार के जोर देने पर उसे यह संधि स्वीकार करनी पङी।

हैदरअली का मूल्यांकन

हैदरअली 18 वीं शताब्दी का एक असाधारण शासक था, जो अपनी योग्यता और चतुरता के बल पर एक साधारण सैनिक के पद से मैसूर जैसे बङे राज्य का स्वामी बन बैठा। हैदरअली एक कठोर अध्यवसायी, उच्च कोटि का पारखी, विलक्षण स्मरण शक्ति वाला, न्यायप्रिय शासक तथा धार्मिक सहिष्णुता अपनाने वाला व्यक्ति था। वह यद्यपि अनपढ था, किन्तु वह एक कुशल कूटनीतिज्ञ और योग्य सेनापति था। वह एक अनपढ होते हुये भी पाँच भाषाएँ बोल सकता था। हिन्दी, मराठी, तमिल, तेलगू तथा कन्नङ भाषाओं को अच्छी तरह बोल सकता था। द्वितीय कर्नाटक युद्ध में अनुभव का लाभ उठाते हुए उसने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित करवाया। हैदरअली ने सेना के अश्वारोही अंग पर समुचित ध्यान दिया, जिसकी उस समय के शासकों ने उपेक्षा की थी। उसमें अद्भुत संगठन की क्षमता थी। उसने विशाल सेना संगठित करके मैसूर को दक्षिण का एक शक्तिशाली राज्य बना दिया।

अनेक अंग्रेज इतिहासकारों ने हैदरअली के चरित्र और कार्यों के बारे में न्याय नहीं किया है। उन्होंने उसे लुटेरा और दूसरे का राज्य हस्तगत करने वाला कहा है, परंतु यह मत न्यायसंगत नहीं है। उस युग की परिस्थितियों और नैतिकता के आधार पर उसने अपनी शक्ति और योग्यता से एक शक्तिशाली राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। यदि अंग्रेजों से उसकी शत्रुता हुई तो इसमें उसके चरित्र का दोष नहीं माना जा सकता। हैदरअली को अंग्रेजों के अलावा मराठों और निजाम से भी संघर्ष करना पङा था। अंग्रेजों के विरुद्ध उसने प्रथम युद्ध में विजय प्राप्त की और द्वितीय युद्ध के दौरान उसकी मृत्यु हो गयी।

हैदरअली एक योग्य शासक था, उसके समय में मैसूर एक धन-संपन्न तथा समृद्धिशाली राज्य बना हुआ था। वह अपनी प्रजा की भलाई के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता था। वह प्रशासनिक कार्यों में बङा निपुण था। उसकी आर्थिक अवस्था बङी सुदृढ थी तथा उसकी वार्षिक बचत लगभग तीन करोङ रुपये थी।

हैदरअली एक चतुर राजनीतिज्ञ भी था। उसने अंग्रेजों की कूटनीतिक चालों का सफलतापूर्वक जवाब दिया। जब 1765 में अंग्रेजों ने निजाम तथा मराठों से मिलकर उसके विरुद्ध एक त्रिगुट का निर्माण किया तो उसने अपनी कूटनीतिक योग्यता से इस त्रिगुट को भंग कर दिया। 1780 में भी हैदरअली ने अँग्रेजों के विरुद्ध निजाम तथा मराठों को अपने साथ मिलाकर एक संयुक्त मोर्चे का निर्माण कर अपनी कूटनीतिक योग्यता का परिचय दिया।

हैदरअली एक धर्म सहिष्णु व्यक्ति था। वह सभी धर्मों का सम्मान करता था। उसके शासन काल में राजकीय पदों के द्वार सभी धर्मों के लोगों के लिए खुले हुए थे। उसके अधिकांश मंत्री हिन्दू थे।

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