इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजस्थान में मराठा शक्ति का विस्तार

राजस्थान में मराठा शक्ति (Maratha power in Rajasthan) –

पृष्ठभूमि

मराठा शक्ति के संस्थापक छत्रपति शिवाजी अपने आपको वैदिक कालीन क्षत्रियों का वंशज मानते थे और अपने को मेवाङ के सिसोदिया राजवंश का वंशज बताते थे। अतः शिवाजी ने इस रक्त संबंध के आधार पर राजपूतों से राजनैतिक संबंध स्थापित करने का प्रयास किया था।

शिवाजी के काल में राजपूत और मराठों के बीच अप्रत्यक्ष संबंध स्थापित हुए थे। शिवाजी मुगल साम्राज्य और बीजापुर के मुस्लिम राज्य के विरुद्ध अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहते थे, जबकि राजपूत शासक जसवंतसिंह और मिर्जा राजा जयसिंह मुगल साम्राज्य की सुरक्षा और विस्तार के लिये शिवाजी की गतिविधियों को नियंत्रित करके उसकी नवोदित शक्ति को कुचलना चाहते थे।

मेवाङ के महाराणा राजसिंह और शिवाजी समकालीन थे और दोनों ने मुगल सम्राट औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीति का विरोध किया था। औरंगजेब ने जब हिन्दुओं पर पुनः जजिया कर लगाया था तब केवल मेवाङ और महाराष्ट्र ने मुगल सम्राट के पास विरोध पत्र भेजे थे।

इससे स्पष्ट होता है कि मुगलों के प्रति नीति एवं लक्ष्य निर्धारित करने में महाराणा राजसिंह और शिवाजी के बीच घनिष्ठ और मधुर संबंध स्थापित हुए थे। औरंगजेब ने शिवाजी की शक्ति का दमन करने के लिये पहले शाइस्ताखाँ और जसवंतसिंह को भेजा था, लेकिन उन्हें अपने अभियान में सफलता नहीं मिली। खफीखाँ ने जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह द्वारा शिवाजी की शक्ति का दमन करने का दायित्व आमेर के मिर्जा राजा जयसिंह को सौंपा, जिसने शिवाजी को शाही दरबार में उपस्थित होने के लिये राजी कर लिया।

किन्तु जब औरंगजेब ने जयसिंह द्वारा शिवाजी को दिये गये वचन को भंग कर शिवाजी को बन्दी बना लिया, तब जयसिंह के पुत्र रामसिंह ने अप्रत्यक्ष रूप से शिवाजी की सहायता की और उसकी मुक्ति को संभव बनाया। 1667 ई. में जब औरंगजेब ने शाहजादे मुअज्जम और जसवंतसिंह को शिवाजी की शक्ति को कुचलने के लिए भेजा, तब शिवाजी ने जसवंतसिंह को पत्र लिखकर मुगलों से संधि करवाने में सहायता करने की प्रार्थना की थी

और जसवंतसिंह की सलाह पर ही औरंगजेब ने शिवाजी को क्षमा करते हुए उसके साथ समझौता कर लिया था। इन तथ्यों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि राजपूत शासकों ने मराठों से अपने भावनात्मक संबंधों के आधार पर उनकी सहायता की, लेकिन मराठों ने केवल अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति करने के लिये राजपूत शासकों से सहयोग माँगा। आगे चलकर राजपूत-मराठा संबंधों में इसी तथ्य की प्रधानता देखाई देती है।

शिवाजी की मृत्यु के बाद उसके पुत्र शंभाजी के शासन काल में जब मारवाङ के राठौङ सरदार, महाराजा जसवंतसिंह के मरणोपरांत उत्पन्न पुत्र अजीतसिंह को मारवाङ की गद्दी पर बैठाने के लिये मुगलों से संघर्ष कर रहे थे, उस समय औरंगजेब के पुत्र शाहजादे अकबर द्वारा राजपूतों के साथ मिलकर विद्रोह करने पर औरंगजेब ने उसे बंदी बनाना चाहा, तब वीर दर्गादास राठौङ के आग्रह पर शंभाजी ने शाहजादे अकबर को शरण देकर राजपूतों से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने का प्रयास किया।

राजस्थान में मराठा शक्ति का विस्तार

औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही भारतीय इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय समाप्त हो गया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में उत्तराधिकार संघर्ष छिङ गया। मुख्य संघर्ष उत्तर में स्थित शाहजादा मुअज्जम और दक्षिण में तैनात शाहजादा आजम के बीच था।

शंभाजी की मृत्यु के बाद मुगलों ने, शंभाजी की विधवा पत्नी येसूबाई, उसका छोटा पुत्र शाहू और परिवार के कुछ सदस्यों को बंदी बना लिया था, जो इस समय आजम की हिरासत में थे। जब आजम दक्षिण भारत से उत्तर के लिये रवाना हुआ तब अपने साथ शाहू और उसके परिवार को भी लेता गया। नर्बदा नदी पार करने के बाद उसने शाहू को (शाहू के परिवार को नहीं) मुक्त कर उसे महाराष्ट्र जाने दिया।

आजम और उसके सेनानायकों का विचार था कि शाहू के महाराष्ट्र में प्रवेश करते ही ताराबाई (शाहू के सौतेले भाई राजाराम की पत्नी) और शाहू के मध्य संघर्ष छिङ जायेगा जिससे मराठों को मुगल क्षेत्रों पर धावे मारने का समय ही नहीं मिल सकेगा। मुगलों का यह विचार सही निकला, मराठे गृह-युद्ध में उलझ गये, जिससे उन्हें मुगल-प्रान्तों और राजपूत राज्यों की ओर ध्यान देने का समय नहीं मिला।

फिर भी कुछ मराठा सेनानायक नर्बदा नदी के पार कर उत्तर भारत की ओर आये तथा मंदसौर के निकट मेवाङ के क्षेत्रों में लूटमार करने लगे। मई 1711 ई. में मराठों ने मेवाङ में प्रवेश कर लूटमार की, जिससे महाराणा संग्रामसिंह चिन्तित हो उठे। महाराणा संग्रामसिंह ने आमेर के सवाई जयसिंह तथा अन्य राजपूत शासकों को पत्र लिखकर मराठों के विरुद्ध एक संयुक्त योजना बनाकर मराठा शक्ति के विस्तार को रोकने के उपाय ढूँढने की बात कही।

1712 ई. में मुगल बादशाह की मृत्यु के बाद जहाँदरशाह गद्दी पर बैठा, किन्तु सैयद बंधुओँ की सहायता से फर्रुखसियर ने जहाँदरशाह को गद्दीच्युत कर स्वयं ने गद्दी हथिया ली। फर्रुखसियर के शासन काल में मराठों को मालवा से खदेङने के लिये आमेर के सवाई जयसिंह को मालवा की सूबेदारी दी गयी और जोधपुर के अजीतसिंह को गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया गया।

सवाई जयसिंह ने मालवा में अपनी प्रथम सूबेदारी के काल में मेवाङ तथा अन्य राजपूत शासकों की सहायता से मराठों को अनेक स्थानों पर पराजित किया। परंतु 1715 ई. में उसे जाटों के विरुद्ध भेज दिया गया। सवाई जयसिंह की अनुपस्थिति में मराठों के आक्रमण पुनः शुरू हो गये। राजपूत सैनिक मालवा में मराठों की घुसपैठ रोकने में पूर्णतया असफल रहे।

राजस्थान में मराठों के प्रवेश के समय राजपूत राज्यों की स्थिति

मुगल साम्राज्य के पतनोन्मुख होने के फलस्वरूप राजस्थान में भी भयंकर अराजकता व्याप्त हो गयी। अब राजस्थान की राजनीति विभिन्न नरेशों के निजी स्वार्थ प्राप्ति के उद्देश्यों से प्रेरित हो चली। प्रान्त के जातीय जीवन में सदाचार, विश्वास और सच्चाई के लिये कोई स्थान नहीं रह गया था। आंतरिक फूट, पारस्परिक वैमनस्य और निन्दनीय षड्यंत्रों ने मराठों को यहाँ की राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर प्रदान किया। फलस्वरूप प्रान्त में अशांति की प्रलयंकारी आग और भङक उठी।

मुगल सर्वोच्चता के काल में दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता राजस्थान के सभी राज्यों पर नियंत्रण रखती थी। किन्तु औरंगजेब की मृत्यु के बाद अब मुगल सम्राट केवल छाया मात्र रह गया और उसने अपने को हरमखाने तक सीमित कर विलासिता के रंग में डूब गया। तब राजपूत राज्यों पर अनुशासन रखने वाली शक्ति समाप्त होने लगी।

अब ऐसी कोई सर्वोच्च शक्ति नहीं रही जो केन्द्रीय आदेशों का पालन करवा सकती और महत्वाकांक्षा एवं अनधिकार चेष्टाओं के लिये होने वाले पारस्परिक युद्धों को रोक सकती तथा एक ही राजवंश के राजकुमारों के पारस्परिक झगङों को सुलझा सकती। अतः अब तक जो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ और रियासतों की आपसी प्रतिस्पर्द्धाएँ रुकी हुई थी, वे निर्बाध रूप से फूट पङी। इतिहासकार जदुनाथ सरकार के शब्दों में, समस्त राजस्थान एक ऐसा अजायबघर बन गया जिसके पिंजङों के फाटक और रक्षक ही हटा दिये गये हों।

समस्त राजस्थान में अत्यन्त जघन्य पाशविक प्रवृत्तियाँ जागृत हो उठी। ऐसा कोई पाप नहीं था जिसे राजपूत नहीं कर सकता हो। पिता, पुत्र की हत्या कर देता था और पुत्र, पिता की। राजघराने की स्रियाँ अपने ही खून के संबंधियों एवं विश्वसनीय रिश्तेदारों को विष दे दिया करती थी। शासक अपने स्वामिभक्त मंत्रियों की जान ले लेता था। प्रत्येक राजवंश में गृह कलह आरंभ हो गये और इन गृह कलहों में पङौसी रियासतें विरोधी पक्षों की सहायता के लिये युद्ध में शामिल होने लगी। इस अंधकार के युग में अनेक दुःखद घटनाएँ भी घटित हुई।

मेवाङ की राजकुमारी कृष्णाकुमारी का विषपान उनमें से एक है, जो राजपूत इतिहास का सबसे बङा कलंक है। मुहम्मदशाह के अंतिम दिनों से लेकर उस दिन तक जबकि समस्त राजस्थान के राजपूत राज्यों ने ब्रिटिश सर्वोच्चता को स्वीकार किया, समस्त राजस्थान में अराजकता , लूट-खसोत, आर्थिक विनाश और नैतिक पतन का ताण्डव नृत्य अपनी समस्त विभीषिकाओं के साथ सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगा।

मुगलों के आगमन काल से ही जनता की दृष्टि में, भारतीय हिन्दू नरेशों में मेवाङ के महाराणा का सर्वप्रथम स्थान था, किन्तु अब वह एकान्त और अंधकार में चला गया। यद्यपि समाज और राज्यों में मेवाङ के सिसोदिया वंश की पुरानी शान अभी भी बनी हुई थी, किन्तु 18 वीं शताब्दी के आरंभ से राजपूतों में महत्त्व और प्रधानता प्राप्त करने के लिये कछवाहों और राठौङों में होङ लगी रही। आमेर के शासक पहले तीसरे दर्जे के माने जाते थे

और राजस्थान की राजनीति में उनका कोई महत्त्व भी नहीं था, किन्तु डेढ सौ वर्षों तक उन्होंने जो मुगलों की महत्त्वपूर्ण सेवाएँ की, उससे उनको राजपूतों में प्रमुख स्थान प्राप्त हो गया। इस राजवंश की चार पीढियों ने कूटनीति तथा रणक्षेत्र में अपनी महान योग्यता का परिचय दिया।

अकबर के समय में राजा भगवानदास और मानसिंह ने, शाहजहाँ और औरंगजेब के समय में मिर्जा राजा जयसिंह ने और औरंगजेब के बाद के मुगल मुगल बादशाहों के समय में सवाई जसिंह ने अद्भूत वीरता एवं कूटनीतिज्ञता का परिचय दिया, जिससे उसने मुगल दरबार की राजनीति में प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया। राजस्थान की राजनीति में मराठों का प्रथम हस्तक्षेप भी सवाई जयसिंह के कारनामों का फल था।

  • मराठों का राजपूताना पर पहला आक्रमण – पंचोली के युद्ध में परास्त बुद्धसिंह ने पहले उदयपुर में और फिर अपने ससुर बेगूं (मेवाङ)के ठाकुर देवीसिंह के यहाँ आश्रय लिया। यहाँ अत्यधिक मद्यपान के कारण वह पागल सा हो गया, परंतु भाग्यवश यहाँ उसे एक ऐसा साथी मिल गया जिसकी उसने कल्पना भी न की थी।

    सालिमसिंह के बङे लङके प्रतापसिंह ने जब अपने छोटे भाई दलेलसिंह को बून्दी का राजा बनते देखा तो उसके स्वाभिमान को गहरा धक्का लगा और उसने बुद्धसिंह का पक्ष लेने का निश्चय कर लिया। उधर मालवा पर मराठों का नियंत्रण कायम हो चुका था तथा फरवरी, 1733 में मंदसौर के निकट मराठों से परास्त होने के बाद जयसिंह को उनके साथ अपमानजनक संधि के लिये विवश होना पङा था।

    मराठों की बढती हुई शक्ति को देखकर बुद्धसिंह की कछवाही रानी ने प्रतापसिंह को मराठों से सहायता प्राप्त करने के लिये दक्षिण भेजा। वस्तुतः कछवाही रानी अपने तथाकथित पुत्र भवानीसिंह को बून्दी के सिंहासन पर बैठाकर शासन सत्ता अपने हाथ में रखना चाहती थी। वैसे भवानीसिंह को उसने जन्म नहीं दिया था और न जाने कहाँ से उसे मँगवाया था और अपना पुत्र घोषित कर दिया था। बुद्धसिंह ने उसे अपना पुत्र मानने से इन्कार कर दिया था और बाद में जयसिंह के इशारे पर भवानीसिंह को मरवा दिया गया।

    तभी से कछवाही रानी अपने सौतेले भाई से बुरी तरह से नाराज हो गयी थी। 1730 ई. में बुद्धसिंह की भी मृत्यु हो गयी। परंतु उसके लङके उम्मेदसिंह को बून्दी-जयपुर संघर्ष विरासत में मिला। कछवाही रानी ने अब उम्मेदसिंह को पुनः बून्दी दिलवाने का बीङा उठाया और प्रतापसिंह को दक्षिण भेजा। प्रतापसिंह ने होल्कर और सिन्धिया को 6 लाख रुपया देने का आश्वासन दिया। अतः 18 अप्रैल, 1734 ई. को मल्हार राव होल्कर और राणोजी सिन्धिया के नेतृत्व में मराठा सेना ने बून्दी पर चढाई कर दी।

    चार दिन के संघर्ष के बाद 22 अप्रैल को बून्दी पर मराठों का अधिकार हो गया। इस संघर्ष में राजपूताना के भावी राजनीतिज्ञ जालिमसिंह हाङा को गहरी चोटें आई और मराठे उसे बंदी बनाकर अपने साथ ले गये। बून्दी में महाराव उम्मेदसिंह का शासन स्थापित हो गया। अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये कछवाही रानी ने होल्कर के राखी बाँधकर उसे अपना भाई बनाया।

    चूँकि उम्मेदसिंह अभी छोटा था अतः प्रतापसिंह को शासन कार्य सौंपा गया।मराठों के बून्दी से लौटते ही जयसिंह ने 20,000 सैनिकों को बून्दी पर आक्रमण करने के लिये भेजा। इस सेना ने बून्दी पर अधिकार कर दलेललसिंह को पुनः बून्दी का शासक बना दिया। प्रतापसिंह बून्दी से भागकर नेनगर नामक स्थान पर होल्कर से मिला, परंतु वह दुबारा हस्तक्षेप करने के लिये तैयार नहीं हुआ।

    वास्तव में पेशवा बाजीराव ने यह अनुभव कर लिया था कि जयसिंह बून्दी के मामलों में अपनी बात पर अङा हुआ है और कुछ लाख रुपयों के प्रलोभन के लिये उससे संबंध बिगाङना उचित नहीं होगा। इसीलिए 1735ई. के बाद मराठों ने जयसिंह के साथ अच्छे संबंध बनाये रखने का प्रयास किया, क्योंकि पेशवा मुगल सरकार के साथ समझौता करने में जयसिंह की सेवाओं का लाभ उठना चाहता था। यही कारण है कि उन्होंने जयसिंह के जीवनकाल में बून्दी के मामले में हस्तक्षेप नहीं किया।

मूल्यांकन

बून्दी के आंतरिक झगङे के कारण राजस्थान में मराठों का प्रथम प्रवेश हुआ और फिर प्रतिवर्ष मराठों के निरंतर आक्रमण होने लगे। पेशवा की तरह उसके मराठा सरदार भी अब ऋण भार से दबे जा रहे थे और धन प्राप्त करने के लिये उन्हें राजस्थान के राज्य ही दिखायी देते थे।

अतः वे किसी न किसी बहाने इन राज्यों पर आक्रमण कर धन प्राप्त करने को उत्सुक रहते थे। राजस्थानी शासक भी मराठों को येन-केन अपने राज्य से विदा करने हेतु उन्हें धन देने का वायदा कर लेते थे, लेकिन जब वायदे के अनुसार वे मराठों को धन नहीं देते तब वसूल करने के लिये मराठा उन पर सैनिक दबाव डालते। राजपूत शासक भी टालमटूल की नीति अपनाते रहे और अधिक दबाव पङने पर थोङा बहुत देकर उन्हें समझा बुझा दिया जाता।

दिनों दिन राजपूत शासकों की बिगङती हुई आर्थिक स्थिति के कारण इस नीति का अवलंबन करने के अलावा इन राज्यों के पास कोई अन्य विकल्प नहीं था। धीरे-धीरे समस्त राजस्थान पर मराठों का एकाधिपत्य स्थापित हो गया। रागरंग में डूबे, मदिरा की मस्ती में चूर, अफीम की पिनक में पङे राजस्थान के सभी शासक कूप मंडूक बने हुए थे। विदेश की बात तो दूर रही, देश और प्रान्त की बदलती हुई राजनीति से भी वे सर्वथा अनभिज्ञ थे।

यूरोपीय सेनानायकों द्वारा प्रशिक्षित सेनाओं की सफलता देखकर भी राजस्थानी शासकों ने अपनी सेना में समयानुकूल परिवर्तन करना आवश्यक नहीं समझा। अतः आक्रमणकारी एवं लुटेरे मराठों का सामना करने का किसी में साहस नहीं रहा। राजस्थान में मराठों की निरंतर विजयों से राजपूतों के आत्म गौरव व प्रतिष्ठा को भारी ठेस पहुँची, जिससे राजपूतों के मन में मराठों के प्रति तीव्र कटुता भर गयी।

मराठों को किसी तरह नीचा दिखाने हेतु उन्होंने उचित व अनुचित कार्य किये, किन्तु उसके भावी दुष्परिणामों की उपेक्षा की। फलस्वरूप राजस्थान का शोचनीय पतन हुआ।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References 
dsguruji : राजस्थान में धार्मिक आंदोलन

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