इतिहासराजस्थान का इतिहास

जोधपुर का उत्तराधिकार संघर्ष

जोधपुर का उत्तराधिकार संघर्ष

जोधपुर का उत्तराधिकार संघर्ष (Succession struggle of Jodhpur) –

राजस्थान में सबसे महत्त्वपूर्ण उलझन जोधपुर राज्य के उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर उत्पन्न हुई थी और वह कई युगों तक चलती रही। जोधपुर के महाराजा अभयसिंह का भाई भख्तसिंह, अभयसिंह को गद्दीच्युत कर स्वयं जोधपुर का शासक बनना चाहता था।

दोनों भाइयों के बीच तनावपूर्ण स्थिति का लाभ उठाते हुए अप्रैल, 1735 ई. में राणोजी सिन्धिया और मल्हारराव होल्कर ने जोधपुर राज्य पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने मेङता में भयंकर लूटमार की और दुर्ग को घेर लिया। अभयसिंह ने सेनाएँ भेजकर मराठों को वहाँ से खदेङ दिया। फरवरी, 1736 ई. में पेशवा बाजीराव ने उन्हें जोधपुर से वापिस बुला लिया। जून, 1749 ई. में अभयसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र रामसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा। नवम्बर, 1750 ई. में बख्तसिंह ने रामसिंह को परास्त कर उससे जोधपुर की गद्दी हथिया ली।

रामसिंह भागकर जयपुर आया और माधोसिंह का प्रश्रय प्राप्त कर मराठों से सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया। 1752 ई. में जब बख्तसिंह ने अजमेर पर अधिकार कर लिया तब उसका विरोध करने के लिये मराठों को एक नया कारण मिल गया, क्योंकि मराठे स्वयं अजमेर पर अधिकार करना चाहते थे। अतः रामसिंह की सहायता करने जून, 1752 ई. में जयप्पा सिन्धिया राजस्थान में आया और उसने बख्तसिंह पर आक्रमण किया। किन्तु जब तक बख्तसिंह जीवित रहा, रामसिंह और उसके सहयोगियों को सफलता नहीं मिली।

जोधपुर का उत्तराधिकार संघर्ष

21 सितंबर, 1752 ई. को बख्तसिंह की मृत्यु हो गयी, तब उसका पुत्र विजयसिंह जोधपुर की गद्दी पर आसीन हुआ। विजयसिंह अपने पिता के समान चतुर, साहसी, दृढप्रतिज्ञ और गंभीर नहीं था। अतः जून, 1754 ई. में रघुनाथराव ने रामसिंह को पुनः जोधपुर पर आक्रमण करने भेजा। उधर रामसिंह भी अपने समर्थक सरदारों की सेनाओं को लेकर जयप्पा के सात हो गया। 15 सितंबर, 1754 ई. को मेङता के पास दोनों पक्षों में भीषण युद्ध हुआ, जिसमें विजयसिंह परास्त होकर नागौर की तरफ भागा और नागौर दुर्ग में शरण ली।

जयप्पा ने विजयसिंह का पीछा किया और नागौर पहुँच कर दुर्ग घेर लिया। यह घेरा एक साल से भी अधिक समय तक चलता रहा। पेशवा का आदेश था कि विजयसिंह को अधिक न दबाया जाये, किन्तु जिद्दी जयप्पा ने किसी की भी न सुनी और नागौर में ही अटका रहा। नागौर दुर्ग का घेरा दिन-ब-दिन कठोर होता जा रहा था तथा दुर्ग की रसद सामग्री भी समाप्त होती जा रही थी। इधर जयप्पा का अभियान और राजपूतों के प्रति अपमानजनक व्यवहार भी बढा जा रहा था, जिससे चिढकर विजयसिंह ने 25 जुलाई, 1755 ई. को धोखे से जयप्पा की हत्या करवा दी।

किन्तु जयप्पा के मारे जाने से विजयसिंह ने 25 जुलाई 1755 ई. को धोखे से जयप्पा की हत्या करवा दी। किन्तु जयप्पा के मारे जाने से विजयसिंह को कुछ भी लाभ नहीं हुआ। जयप्पा के भाई दत्ताजी सिन्धिया ने, जो उस समय वहीं था, सारी स्थिति संभाल ली और घेरे को चलाये रखा। विजयसिंह ने मराठों के विरुद्ध मुगल सम्राट, जाटों, रुहेलों और अन्य राजपूत राजाओं को संगठित करने का प्रयास किया, किन्तु उसके सारे प्रयत्न विफल रहे।

केवल जयपुर का माधोसिंह, विजयसिंह का साथ देने को तैयार हुआ। उसने अनिरुद्धसिंह खंगारोत के नेतृत्व में विजयसिंह की सहायतार्थ एक सेना भेजी, किन्तु मराठों के समक्ष उसे भी पराजित होना पङा और मराठों को पाँच लाख रुपये देने का वायदा कर अपना पिण्ड छुङाना पङा। उधर नागौर में घिरे हुए विजयसिंह की भी हालत अच्छी नहीं थी। जब विजयसिंह को स्थिति असहनीय हो गयी तब उसे विवश होकर मराठों की सारी शर्तें स्वीकार करनी पङी।

अजमेर नगर और परगना मराठों ने अपने अधिकार में रख लिया, जालौर नगर और मारवाङ का आधा राज्य रामसिंह को देना स्वीकार करना पङा, हर्जाने के रूप में 50 लाख रुपये मराठों को देने का वायदा भी उसे करना पङा, 25 लाख रुपये प्रथम किश्त के रूप में प्रथम वर्ष में दिये जाते थे और शेष रकम दो वार्षिक किश्तों में चुकानी थी, किन्तु ये रुपये भी किसी प्रकार वसूल नहीं किये जा सके।

इस प्रकार फरवरी, 1756 ई. के अंत तक मराठों के साथ विजयसिंह की संधि हो गयी। कुछ रुपया वसूल करने की आशा में एकाध माह नागौर के पास ठहरने के बाद दत्ताजी वहाँ से रवाना हो गया।

जयप्पा सिन्धिया के इस आक्रमण के बाद वर्षों तक मराठों ने जोधपुर राज्य पर कोई आक्रमण नहीं किया। किन्तु विजयसिंह न तो युद्धकुशल था और न राजनीतिज्ञ ही। अतः उसे सदैव यही डर बना रहा कि कहीं रामसिंह उसे पदच्युत कर पुनः स्वयं जोधपुर की राजगद्दी पर न बैठ जाय। प्रारंभ में उसने एक बार प्रयत्न भी किया कि नागौर की संधि द्वारा रामसिंह को दिये गये परगने वापिस अपने राज्य में मिला ले।

किन्तु मराठों के दबाव के कारण उसे ऐसा करने में सफलता नहीं मिली। जब 1772 ई. में रामसिंह की मृत्यु हुई तब वह इन परगनों को वापिस अपने राज्य में मिला सका। 1759 ई. के बाद कोई डेढ वर्ष तक किसी भी प्रमुख मराठा सरदार को राजस्थान की ओर ध्यान देने का अवसर नहीं मिला, क्योंकि मराठे अहमदशाह अब्दाली का विरोध करने में लगे रहे।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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