त्रिपुरी का कलचुरि-चेदि राजवंश के इतिहास के साधन
चंदेल राज्य के दक्षिण में चेदि के कलचुरियों का राज्य स्थित था। उसकी राजधानी त्रिपुरी में थी, जिसकी पहचान मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में स्थित तेवर ग्राम से की जाती है। चेदि पर शासन करने के कारण उन्हें चेदिवंश का भी कहा जाता है। लेखों में वे अपने को हैयवंशी सहस्रार्जुन कीर्तिवीर्य का वंशज कहते हैं, जिससे लगता है, कि वे चंद्रवंशी क्षत्रिय थे।
इतिहास के साधन
कलचुरि-चेदि वंश के इतिहास को हम उसके लेखों तथा साहित्यिक ग्रंथों से ज्ञात करते हैं। इस वंश के प्रमुख लेख इस प्रकार हैं-
- युवराज का बिलहारी का लेख।
- लक्ष्मणराज द्वितीय का कारीतलाई अभिलेख।
- कोक्कल द्वितीय के मुकुन्दपुर तथा प्यावां के लेख।
- कर्ण का रीवां (1948-49 ईस्वी) का लेख।
- कर्ण के वाराणसी तथा गोहरवा (प्रयाग) से प्राप्त ताम्रपत्र-अभिलेख।
- यशःकर्ण के खैरा तथा जबलपुर के लेख।
इन लेखों में कर्ण के लेख सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं, जो उसकी उपलब्धियों का विवरण देने के साथ-साथ इस वंश के इतिहास की भी जानकारी देते हैं।
कलचुरि नरेश युवराज के दरबार में राजशेखर ने कुछ समय तक निवास किया था तथा वहीं उसने अपने दो ग्रंथों – काव्यमीमांसा तथा विद्धशालभंजिका की रचना की थी। इन लेखों के माध्यम से हम तत्कालीन संस्कृति की जानकारी प्राप्त करते हैं। इन ग्रंथों में राजशेखर युवराज की मालवा तथा कलिंग की विजय का उल्लेख करते हुये उसे चक्रवर्ती राजा बताया गया है। कलिंग कहाँ स्थित है?
हेमचंद्र के द्वाश्रयकाव्य से कर्ण तथा पाल शासक विग्रहपाल के बीच संघर्ष की सूचना मिलती है। बिल्हण कृत विक्रमांकदेवचरित से कर्ण तथा चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम के संबंधों पर प्रकाश पङता है।
पूर्व मध्यकालीन भारत में कलचुरि वंश की कई शाखाओं के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है। कलचुरियों की प्राचीनतम शाखा 6वीं शती में महिष्मती में शासन करती थी। इस शाखा का संस्थापक कृष्णराज था। उसका पौत्र बुद्धराज कन्नौज नरेश हर्ष एवं बादामी के चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का समकालीन था। उसके पूर्वजों कृष्णराज एवं शंकरगण का महाराष्ट्र, गुजरात, राजपूताना, कोंकण आदि पर अधिकार था। पुलकेशिन् के सैनिक अभियान ने उन्हें उत्तर भारत की ओर विस्थापित कर दिया। इसके बाद कुछ समय तक कलचुरियों का इतिहास अंधकारपूर्ण हो गया था।
चालुक्यों तथा प्रतिहारों के दबाव के कारण कलचुरि बुंदेलखंड तथा बघेलखंड की ओर बढे तथा कालंजर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया।किन्तु शीघ्र ही प्रतिहारों ने उन्हें वहाँ से भी हटा दिया था। उसके बाद कलचुरि गोरखपुर तथा देवरिया जिलों की भूमि पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में फैल गये। यहाँ उनकी सत्ता का संस्थापक राजा राजपुत्र था।
कहला तथा कसिया लेखों से पता चलता है, कि यहाँ दो कलचुरि वंश शासन कर रहे थे। गोरखपुर क्षेत्र में इस वंश के शासन का प्रारंभ 9वीं शथी के प्रारंभ में हुआ था। राजपुत्र की दसवीं पीढी में सोढदेव राजा हुआ। राजपुत्र के बाद शिवराज तथा शंकरगण प्रथम राजा बने। इनकी किसी भी उपलब्धि के बारे में पता नहीं चल पाया है।
शंकरगण को ही त्रिपुरी के कलचुरि नरेश कोक्कल प्रथम ने अभयदान दिया था। उसका उत्तराधिकारी गुणाम्बोधि हुआ। गुणाम्बोधि ने भोजदेव से कुछ भूमि प्राप्त की तथा युद्ध में गौङ की लक्ष्मी का अपहरण कर लिया। ऐसा लगता है, कि उसने प्रतिहार नरेश भोज की ओर से पालों के विरुद्ध युद्ध में भाग लिया था।
इस प्रकार स्पष्ट है, कि गुणाम्बोधि तथा उसके उत्तराधिकारी गुर्जर प्रतिहारों के अधीन सामंत थे।
भामान नामक राजा ने प्रतिहारों के सामंत रूप में धारा के परमार राजा से युद्ध कर ख्याति प्राप्त की। इस वंश का 10 वाँ राजा सोढदेव हुआ, जिसका लेख मिलता है। वह एक स्वतंत्र राजा था। उसके समय तक गंगा-यमुना घाटी में तुर्कों के आक्रमण तथा चंदेलों के विस्तार के कारण प्रतिहार साम्राज्य विनष्ट हो गया था, जिससे सोढदेव को स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में सहायता मिली। उसने घाघरा तथा गंडक के किनारे एक स्वाधीन राज्य कायम कर लिया। परममाहेश्वर की उपाधि से उसका शैव होना सूचित होता है।
इस वंश का अंतिम स्वतंत्र राजा सोढदेव ही था।
11वीं शता. में कन्नौज के गहङवाल वंश के उदय के साथ ही कलचुरियों का अंत हो गया था। इसके साथ ही बनारस तथा कन्नौज से लेकर अयोध्या तक का क्षेत्र गाहङवालों के अधीन आ गया था।
इस प्रकार सरयूपार में गोरखपुर एवं देवरिया के कलचुरियों की शाखायें समाप्त हो गयी। अब त्रिपुरी अथवा डाहल का कलचुरि वंश शक्तिशाली हुआ।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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