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19 वीं शताब्दी के समाज सुधार अधिनियम

19 वीं शताब्दी के समाज सुधार अधिनियम

19 वीं शताब्दी के समाज सुधार अधिनियम (Social Reform Acts of the 19th Century)

भारतीय पुनर्जागरण का स्वरूप

19 वीं शताब्दी के पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप जो समाज सुधार आंदोलन आरंभ हुआ, वह वास्तव में प्राचीन व्यवस्था के विरुद्ध एक व्यक्तिगत विद्रोह था। इन विद्रोही व्यक्तियों को व्यंगात्मक भाषा में सुधारक कहा जाता था। इन सुधारकों का उद्देश्य प्रचलित सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन करना नहीं था, बल्कि उसमें रहन-सहन की नवीन प्रणाली का समावेश करना था, भारत में व्यक्तिगत विद्रोह की प्रणाली प्राचीनकाल में चली आ रही थी। भारतीय पुनर्जागरण का स्वरूप

19 वीं शताब्दी के समाज सुधार अधिनियम

16 वीं से 18 वीं शताब्दी तक यह समाज सुधार का कार्य संतों एवं संन्यासियों द्वारा किया गया, जिसे भक्ति आंदोलन की संज्ञा दी जाती है। 19 वीं शताब्दी के समाज सुधार नामक कार्य में गृहस्थ व्यक्तियों का योगदान अधिक रहा। सुधारकों के विचारों को शिक्षित समाज में अधिक समझा जाता था।

ये सुधारक परंपरागत सामाजिक जीवन की प्रणाली से भिन्न जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा देते थे। इस सामाजिक आंदोलन के मुख्य रूप से तीन चरण थे-

1877 के पूर्व समाज सुधार आंदोलन मुख्य रूप से व्यक्तिगत आंदोलन ही रहा तथा इसकी कार्यविधि भी व्यक्तिनिष्ठ रही।
1877 से 1919 के बीच समाज सुधार के लिए संगठित प्रयास किये गए। इस अवधि में यह भी अनुभव किया गया कि समाज सुधार की अपेक्षा राजनीतिक स्वतंत्रता अधिक आवश्यक थी।

इधर अँग्रेज प्रशासक भी भारतीय नेताओं का ध्यान समाज सुधार की ओर केन्द्रित करना चाहते थे, ताकि राजनीतिक पराधीनता से उनका ध्यान हटा रहे। तिलक ने यह अनुभव कर लिया था कि राजनीतिक स्वतंत्रता के बिना सामाजिक सुधार संभव नहीं है। इसलिए समाज सुधार आंदोलन राष्ट्रीय जागरण को व्यापक बनाने में सहायक हुआ।

1919 के बाद समाज सुधार आंदोलन पूर्णतया राजनीतिक आंदोलन के अधीन हो गया तथा समाज सुधार आंदोलन मुख्य रूप से दलित वर्ग के उत्थान से संबंधित रहा।

19 वीं शताब्दी के समाज सुधार

अंग्रेज प्रशासक भारतीय नेताओं का ध्यान सामाजिक समस्याओं की ओर लगाये रखना चाहते थे, इसलिए ऐसे भारतीय नेताओं को, जो समाज सुधार की बातें करते थे, अंग्रेजों का समर्थन मिलता रहा। 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सरकार की ओर से दो प्रमुख सुधार अधिनियम पारित किये गये-

ब्रह्म मेरिजेज एक्ट(1872)

1886 में ब्रह्म समाज दो दलों में विभाजित हो गया था – आदि ब्रह्म समाज तथा भारतीय ब्रह्म समाज। भारतीय ब्रह्म समाज, समाज सुधार का अधिक पक्षपाती था। इसने विवाह की प्रचलित कुरीतियों को दूर कर उसमें परिवर्तन किया। इस परिवर्तन के फलस्वरूप कई अंतर्जातीय विवाह और विधवा विवाह सम्पन्न हुए।
किन्तु कानून विशेषज्ञों का कहना था कि हिन्दू कानून के अनुसार ऐसे विवाह वैध नहीं थे। अतः इन्हें वैध रूप देने के लिए एक विशेष अधिनियम की आवश्यकता थी।

केशवचंद्र सेन के अनुरोध पर 1868 में हेनरी मेन ने एक विधेयक प्रस्तुत किया, जिसे 1872 में पार कर दिया गया।

इस अधिनियम के अनुसार अन्तर्जातीय विवाह और विधवा विवाह हो सकते थे तथा बाल विवाह व बहुविवाह का निषेध कर दिया गया। इस अधिनियम में यह भी कहा गया कि 14 वर्ष से कम लङकी और 18 वर्ष से कम लङके का विवाह नहीं हो सकेगा। इसमें अधिक सफलता प्राप्त नहीं हुी, क्योंकि इस अधिनियम के अनुसार यह घोषणा करनी पङती थी, कि वे हिन्दू नहीं हैं। अतः यह अधिनियम समाज सुधार के क्षेत्र में कोई विशेष सफल नहीं हुआ।

सहवास-वय विधेयक (1892)

19 वीं शताब्दी में समाज सुधार हेतु दो विचारधाराएँ प्रचलित थी। कुछ समाज सुधारकों का विचार था कि ब्रिटिश सरकार की सहायता से कानून बनवा कर समाज की प्रचलित कुरीतियों को दूर किया जाय, क्योंकि उनके मतानुसार राजनीतिक प्रगति के लिए समाज सुधार आवश्यक है। इस विचारधारा के प्रबल समर्थक महादेव गोविन्द रानाडे थे।

इसके अलावा दूसरे कुछ लोग राजनीतिक स्वाधीनता के बाद ही समाज सुधार को संभव मानते थे। दूसरी विचारधारा के प्रबल समर्थक बाल गंगाधर तिलक थे।

महाराष्ट्र के समाज सुधारकों में महादेव गोविन्द रानाडे का नाम उल्लेखनीय है। वे प्रार्थना समाज के प्रमुख नेता थे। बंबई का प्रार्थना समाज बंगाल के ब्रह्म समाज से कई प्रकार से भिन्न था। प्रार्थना समाज ने ईसाई मिशनरियों से साँठ-गाँठ नहीं की थी।

महाराष्ट्र के समाज सुधार आंदोलन की विशेषता यह थी कि उसने प्राचीन परंपराओं को सुरक्षित रखते हुए उनके दोषों को दूर करने का प्रयास किया। इसलिए महाराष्ट्र में यह आंदोलन काफी सफल रहा। इसने बंगाल के समाज सुधार आंदोलन की भाँति अपनी प्राचीन परंपराओं का तिरस्कार नहीं किया, बल्कि उन दोषों को दूर करने का प्रयत्न किया, जो प्राचीन परंपराओं में घुस गए थे।

रानाडे का समाज सुधार से अभिप्राय विधवा विवाह, स्त्रियों की शिक्षा, बाल विवाह का निषेध तथा जाति-पाँति के भेदभाव को समाप्त करना था। उनका कहना था कि हमारी सामाजिक स्थिति, राजनीतिक एवं आर्थिक स्थिति से जुङी हुई है। यदि हम राजनीतिक प्रगति चाहते हैं तो सामाजिक प्रगति आवश्यक है, क्योंकि समाज सुधार के बिना राजनीतिक स्वाधीनता संभव नहीं है।

वे इस सिद्धांत में आस्था रखते थे कि सुधारों की योजना लागू करते समय अतीत से नाता नहीं तोङना चाहिए और दीर्घकाल से बनी हुई आदतों तथा प्रवृत्तियों को ध्यान में रखना चाहिये, क्योंकि सच्चे सुधारक को किसी साफ स्लेट पर नहीं लिखना है, बल्कि उसका काम तो अधिकांशतः अपूर्ण वाक्य को पूरा करना होता है।

इन विचारों के कारण ही वे 19 वर्ष की आयु में ही विधवा विवाह संघ के सदस्य बन गये। 1887 में उन्होंने राष्ट्रीय समाज सुधार समिति की स्थापना की। इसका अधिवेशन प्रतिवर्ष देश के अलग-अलग क्षेत्रों में होता था। रानाडे ने समाज सुधार समिति को राष्ट्रीय आधार दिया। उन्होंने नारी जाति के उत्थान के लिए विशेष प्रयत्न किये। उनका कहना था कि, नारी जाति पर किये गये जुल्मों से हमारा भारतीय समाज अपमानित हुआ है। वे सुधारों की ऐसी पद्धति अपनाने पर जोर दे रहे थे, ताकि समाज का तत्कालीन स्वरूप सुरक्षित रहे, लेकिन समाज प्रगति की ओर अग्रसर भी हो।

तिलक और महाराष्ट्र के समाज सुधारकों में मुख्य रूप से दो बातों पर मतभेद था। तिलक राजनीतिक स्वाधीनता के समक्ष सामाजिक सुधारों को गौण समझते थे। वे इस मत से सहमत नहीं थे कि हमारी सामाजिक रूढिवादिता के कारण राजनीतिक पराधीनता हुई है।

उन्होंने श्रीलंका, बर्मा और आयरलैण्ड का उदाहरण देते हुए कहा कि वहाँ सामाजिक स्वतंत्रता होते हुए भी राजनीतिक पराधीनता थी। तिलक सरकार द्वारा समाज सुधार किये जाने के विरोधी थे, जबकि रानाडे सामाजिक सुधारों को प्रथम आवश्यकता मानते थे तथा सरकारी अधिनियमों द्वारा समाज सुधार करने के पक्षपाती थे।

तिलक के इन विचारों के विरुद्ध मलाबारी, गुजराती, पारसी तथा बंगाली नेत सरकारी सहायता से कानून बनवाकर समाज सुधार चाहते थे। उन्हें समाज में बाल विवाह की प्रथा, सबसे बङी बुराई दिखाी दे रही थी। इसलिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार को इस संबंध में कानून बनाने को कहा तथा सहवास-वय को लङकियों के लिए न्यूनतम 12 वर्ष करने का सुझाव दिया।

ब्रिटिश सरकार ने 1890-91 में सहवाय-वय विधेयक प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार लङकियों के लिए सहवास-वय न्यूनतम 12 वर्ष निर्धारित कर दी। तिलक ने इस विधेयक का घोर विरोध किया, क्योंकि बाल-विवाह पर रोक सरकार द्वारा लगाई गयी थी। उनका कहना था कि इस प्रकार के प्रतिबंध स्वयं समाज द्वारा लगाये जायें तथा सरकार हमारे सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप न करे।

किन्तु विधेयक के समर्थकों ने इंग्लैण्ड की संसद के सदस्यों पर दबाव डालकर यह अधिनियम पारित करा दिया। किन्तु इस अधिनियम का समाज पर कोई प्रभाव नहीं पङा और बाल विवाह पूर्व की भाँति सम्पन्न होते रहे। फिर भी इस अधिनियम के पारित होने से लोगों में राजनीतिक जागृति अवश्य उत्पन्न हो गयी तथा विदेशी सत्ता के प्रति लोगों में संदेह उत्पन्न हो गया। अतः सरकार ने अब कानून पास करके समाज सुधार के प्रयत्न छोङ दिये।

19 वीं शताब्दी के समाज सुधार अधिनियम का मूल्यांकन

19 वीं शताब्दी के समाज सुधार आंदोलन मुख्य रूप से व्यक्तिगत प्रयत्नों तक सीमित रहे, किन्तु 1800 के बाद कुछ संगठित प्रयास किए गए। आरंभ में समाज सुधारकों का उद्देश्य यह नहीं था कि उनके विचार सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत मान लिये जायें, चाहे समाज उनका पालन न भी करे। विधवा विवाह और स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में सुधारकों को सफलता मिली। ज्यों-ज्यों शिक्षा का प्रसार होता गया, ये कुरीतियाँ धीरे-धीरे कम होती गयी।

लार्ड विलियम बैंटिक के काल में सती-प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा को गैर-कानूनी घोषित किया गया। इस कार्य में राजा राममोहन राय तथा द्वारिकानाथ टैगोर का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

कानून का समर्थन प्राप्त होने पर भारत में यह प्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो गयी। किन्तु सती-प्रथा के बंद होने से विधवाओं की समस्या पहले से भी अधिक गंभीर हो गयी। सती-प्रथा के गैर-कानूनी घोषित होने के बाद विधवाओं की संख्या में काफी वृद्धि हो गयी।

विधवाओं की समस्या बाल-विवाह के साथ जुङी हुई थी, क्योंकि बाल्यावस्था में लङकियों का विवाह हो जाता था और यौवन की देहली पर पैर रखते ही वे विधवा हो जाती थी। अतः 19 वीं सदी के सुधारकों ने विधवा विवाह के लिए भी आंदोलन किया। संस्कृत के महान विद्वान पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए प्रबल आंदोलन चालया।

ईश्ववरचंद्र विद्यासागर ने शास्त्रों से उद्धरण देते हुए यह प्रमाणित किया कि शास्त्रों में विधवाओं के पुनर्विवाह का निषेध नहीं है। उनके प्रयत्नों से 1856 में विधवा विवाह को वैध घोषित कर दिया गया। धीरे-धीरे भारतीयों ने इस परिवर्तन को स्वीकार कर लिया।

1872 में ब्रह्म मेरिजेज एक्ट पास किया गया, जिसमें विवाह-विवाह और अन्तर्जातीय विवाह को वैध मान लिया गया। बाल-विवाह को रोकने के लिए सहवास-वय अधिनियम पारित किया गया। इन सारे प्रयासों का यद्यपि तुरंत प्रभाव नहीं पङा, लेकिन लोगों के मन में यह बात अवश्य घर कर गयी कि बाल-विवाह अनुचित है और विधवा-विवाह उचित है।

महाराष्ट्र समाज सुधार की दृष्टि से अग्रणी रहा। महाराष्ट्र में ईसाई धर्म में दीक्षित हिन्दुओं को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल करने की परंपरा थी। बाल-विवाह और विधवा-विवाह के अलावा वहाँ की दशा बंगाल की तरह पिछङी हुई नहीं थी। जाति-पाँति के बंधन थे, किन्तु 19 वीं शताब्दी के मध्य में इन बंधनों को कम करने के लिए आंदोलन आरंभ हो चुका था।

समाज सुधार आंदोलन की सबसे बङी दुर्बलता यह थी कि सुधारकों ने समाज सुधार के जिन सिद्धांतों का प्रचार किया, उनका वे स्वयं पालन करना अनिवार्य नहीं समझते थे, जिसका समाज पर अच्छा प्रभाव नहीं पङा। इसके अलावा सभी सुधारक, समाज सुधार की प्रत्येक बात से सहमत हों, यह आवश्यक नहीं था।

कुछ सुधारक स्त्री-शिक्षा के समर्थक थे, लेकिन विधवा-विवाह के समर्थक नहीं थे। जो स्त्री-शिक्षा के समर्थक थे, उनमें भी इस बात पर मतभेद था कि स्त्रियों को किस प्रकार की शिक्षा दी जाय। कुछ सुधारकों की यह दृढ मान्यता थी कि सामाजिक मामलों में सरकार का हस्तक्षेप अवांछनीय है।

समाज सुधार आंदोलन की सफलता के बारे में प्रायः यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या यह आंदोलन समाज की सभी कुरीतियों को समाप्त करने में सफल हो सका? वस्तुतः भारतीय हिन्दू समाज शताब्दियों से एक व्यवस्था की परिधि में बँधा हुआ था अतः उस परिधि को तोङकर एकाएक परिवर्तन करना असंभव था।

अतः प्रश्न यह होना चाहिए कि क्या उन सामाजिक कुरीतियों को वही मान्यता प्राप्त थी, जो 19 वीं शताब्दी के आरंभ में थी? इसका निश्चित उत्तर यही है कि वे मान्यताएँ अव समाप्त होनी आरंभ हो गयी थी।

जिस मात्रा में वे मान्यताएँ लुप्त होती दिखाई देती हैं, उतनी ही मात्रा में यह आंदोलन सफल रहा। आज भी भारत में सती होने की घटनाएँ होती हैं, कुछ लोग आज भी विधवा-विवाह को हेय समझते हैं और बाल-विवाह भी होते हैं।

लेकिन इनका अर्थ यह नहीं कि समाज द्वारा इन प्रथाओं को मान्यता प्राप्त है। यह निर्विवाद है कि समाज इन प्रथाओं को उचित नहीं समझता। लेकिन परंपरागत व्यवस्था की परिधि को तोङने का साहस इन-गिने लोगों में ही है। अतः उन मान्यताओं को, चजो 19 वीं शताब्दी में प्रचलित थी, तोङ देना ही समाज सुधार आंदोलन की महान उपलब्धि कही जा सकती है।

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