इतिहासराजस्थान का इतिहास

जयपुर का उत्तराधिकार संघर्ष

जयपुर का उत्तराधिकार संघर्ष

जयपुर का उत्तराधिकार संघर्ष (Succession struggle of Jaipur)-

1708 ई. में सवाई जयसिंह ने मेवाङ के महाराणा संग्रामसिंह की पुत्री चंद्रकुँवर बाई से विवाह किया था। विवाह के पूर्व जयसिंह ने एक इकरारनामे पर हस्ताक्षर किये थे, जिसमें मेवाङ की राजकुमारी से उत्पन्न पुत्र को ही, चाहे वह छोटा ही क्यों न हो, जयपुर के राजसिंहासन पर बैठाने की बात कही गयी थी।

तत्पश्चात् 1722 ई. में जयसिंह की खींची रानी सूरजकुँवर से एक पुत्र, ईश्वरीसिंह उत्पन्न हुआ और 1728 ई. में मेवाङ की राजकुमारी चंद्रकुँवर से एक पुत्र, माधोसिंह उत्पन्न हुआ, अतः जयसिंह के बाद माधोसिंह और ईश्वरीसिंह के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष निश्चित हो गया। जयसिंह ने इस भावी गृह युद्ध को बचाने के लिये 1729 ई. में महाराणा संग्रामसिंह से रामपुरा का पट्टा माधोसिंह के नाम करवा लिया।

सितंबर, 1743 ई. में सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र ईश्वरीसिंह गद्दी पर बैठा। किन्तु माधोसिंह केवल रामपुरा लेकर संतुष्ट होने वाला नहीं था। अतः उसने 1708 ई. के इकरारनामे के आधार पर जयपुर राज्य की गद्दी का दावा किया। इस प्रकार ईश्वरीसिंह और माधोसिंह में गृह-कलह आरंभ हो गया। माधोसिंह का मामा, मेवाङ का महाराणा जगतसिंह माधोसिंह की सहायता कर रहा था।

बून्दी के पदच्युत रावराजा बुद्धसिंह का पुत्र उम्मेदसिंह भी माधोसिंह का समर्थन कर रहा था। उम्मेदसिंह का पक्षपाती कोटा का महाराव दुर्जनसाल भी माधोसिंह के गुट में शामिल हो गया। दोनों पक्षों की ओर से मराठों से सहायता प्राप्त करने के प्रयत्न आरंभ हो गये। माधोसिंह की ओर से मल्हारराव होल्कर से सैनिक सहायता प्राप्त की गयी और इसके बदले में होल्कर को 20 लाख रुपये देने का आश्वासन दिया। उधर ईश्वरीसिंह ने राणोजी सिन्धिया से सहायता प्राप्त कर ली।

फरवरी 1745 ई. में माधोसिंह ने जयपुर पर चढाई कर दी, किन्तु ईश्वरी सिंह ने अपने मराठा साथियों की सहायता से माधोसिंह और उसके सहयोगियों को परास्त कर खदेङ दिया। तत्पश्चात् माधोसिंह, उम्मेदसिंह और महाराणा जगतसिंह 4 अक्टूबर, 1746 ई. को नाथद्वारा में मिले और ईश्वरीसिंह से अपनी पराजय का बदला लेने की योजना बनायी।

मल्हारराव से सैनिक सहायता प्राप्त करने के लिये उन्होंने एक प्रतिनिधि को कालपी भेजा और सैनिक सहायता के लिये उसे दो लाख रुपये देने को कहा। मल्हारराव ने अपने पुत्र खांडेराव को एक हजार सवारों के साथ इन तीनों (माधोसिंह, उम्मेदसिंह और जगतसिंह) राजपूतों की सहायता करने भेजा। फलस्वरूप 1 मार्च, 1747 ई. को दोनों पक्षों के बीच राजमहल (देवली की छावनी से 10 मील उत्तर में) नामक स्थान पर पुनः भीषण युद्ध हुआ।

राजमहल के इस युद्ध में ईश्वरीसिंह विजयी हुआ। मराठों की रीति-नीति के अनुसार खांडेराव व उसके मराठा सैनिक लूट का माल लेकर चलते बने। माधोसिंह के पक्षपाती अपने-अपने राज्यों की ओर लौट गये।

ईश्वरीसिंह को, जयपुर की गद्दी पर बैठने के बाद अपने भाई माधोसिंह को 24 लाख रुपये वार्षिक की जागीर देने का वचन देना पङा था, लेकिन दो वर्ष बाद ही उसने मराठों की सहायता से माधोसिंह को परास्त किया। तत्पश्चात राजमहल के युद्ध में उसने माधोसिंह को पुनः परास्त किया।

इस विजय से ईश्वरीसिंह में अत्यन्त दंभ आ गया। उसने माधोसिंह को किसी भी प्रकार की जागीर देने से इन्कार कर दिया। इस पर महाराणा का एक राजदूत पूना गया और पेशवा से निवेदन किया कि ईश्वरीसिंह को अपने वचनों का पालन करने के लिये बाध्य किया जाय, इस सहायता के बदले शाहू को दस लाख रुपये देने का वचन दिया।

राजमहल के युद्ध तक पेशवा का बहुत कुछ झुकाव ईश्वरीसिंह की ओर था, किन्तु राजमहल के युद्ध के बाद जब महाराणा की ओर से अधिक रुपया देने का लालच दिया गया, तब ऋण भार से दबे हुए पेशवा ने ईश्वरीसिंह का साथ छोङकर माधोसिंह का पक्ष ले लिया। इसी समय अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर आक्रमण किया।

उसका सामना करने हेतु मुगल साम्राज्य की सहायतार्थ ईश्वरीसिंह शाही सेना के साथ पंजाब गया, तब उसकी अनुपस्थिति से लाभ उठाने के लिये माधोसिंह ने अपने मराठा साथियों को लेकर जयपुर पर चढाई करने की योजना बनायी। इसकी सूचना मिलते ही ईश्वरीसिंह मानुपुर के युद्ध को बीच में ही छोङ जयपुर की ओर लौट पङा। माधोसिंह और उसकी साथियों को निराश होकर वापिस लौटना पङा।

इसके कुछ ही दिनों बाद दिल्ली से लौटते हुए पेशवा जयपुर पहुँचा और दोनों भाइयों में समझौता कराने का प्रयास किया। टोंक, टोडा, मालपुरा और निवाई में चौथ का बरवाङा ईश्वरीसिंह से दिलवा देने की शर्तें पर माधोसिंह मराठों को दस लाख रुपये देने को राजी हो गया, किन्तु ईश्वरीसिंह को ये शर्तें मान्य नहीं हुई। तब अकेले माधोसिंह के साथ समाझौता कर उसकी शर्तें ईश्वरीसिंह से मान्य करवाने के लिये जुलाई, 1748 ई. में मराठों ने जयपुर पर चढाई कर दी।

उन्होंने टोंक, टोडा और मालपुरा छीन कर माधोसिंह को दे दिये। जब मराठा पिपलोद व फागी के रास्ते से आगे बढने लगे तब उम्मेदसिंह, दुर्जनसाल आदि कई छोटे-मोटे राजपूत सरदार माधोसिंह से आ मिले। सांभर से 23 मील पूर्व में बगरू नामक स्थान पर मराठों के साथ ईश्वरीसिंह की मुठभेङ हुई। छः दिनों के युद्ध में ईश्वरीसिंह पराजित हुआ और उसे माधोसिंह को पाँच परगने देने, उम्मेदसिंह को बून्दी का राज्य लौटाने तथा मराठों को भारी धनराशि देने का वायदा करने को विवश होना पङा। 23 अक्टूबर, 1748 ई. को बून्दी में उम्मेदसिह का राज्याभिषेक किया गया।

बगरू के युद्ध के बाद ईश्वरीसिंह ने जो रुपया मराठों को देने का वायदा किया था, वह उन्हें नहीं दे सका। ऋण भार से दबा हुआ पेशवा इस रकम को वसूल करने के लिये उत्सुक हो उठा। पेशवा के आदेश से मल्हरराव होल्कर और गंगाधर तांत्या के सेनापतित्व में मराठों ने जयपुर पर चढाई कर दी।

नेणवे पर अधिकार कर 12 दिसंबर, 1750 ई. को वे जयपुर शहर से 2 मील की दूरी पर आ पहुँचे। यहाँ ईश्वरीसिंह का राजदूत दो लाख रुपया लेकर मराठा सेनानायकों से मिला। इन थोङे से रुपयों को देखकर होल्कर बङा क्रुद्ध हुआ और उसकी कोई बात सुने बिना सैनिक अभियान जारी रखने की आज्ञा दी।

जयपुर के राजदूत ने लौटकर जब ईश्वरीसिंह को सूचना दी तो ईश्वरीसिंह बङा भयभीत हुआ, क्योंकि मराठों को देने के लिए उसके पास रकम नहीं थी। इस समय ईश्वरीसिंह ने स्वयं को सर्वथा निस्सहाय और एकाकी पाया। तब निराश होकर राजाप्रसाद के शांत निस्तब्ध वातावरण में अर्द्ध-रात्रि के समय 13 दिसंबर, 1750 ई. को उसने आत्महत्या कर सारे राजनैतिक जंजालों से अपना पिण्ड छुङाया।

अब होल्कर ने माधोसिंह को बुलवाकर 2 जनवरी, 1751 ई. को उसे जयपुर की गद्दी पर बैठाया। जयपुर राज्य की ओर से मराठों को दिये जाने वाले द्रव्य के बारे में बातचीत चल रही थी। ईश्वरीसिंह के समय की बकाया राशि और इस समय माधोसिंह को दी गयी सहायता के लिये मराठों को धन देना आवश्यक था।

माधोसिंह ने उन्हें दस लाख रुपया दिया, लेकिन अब मराठों ने एक नयी माँग रखी कि जयपुर राज्य का तृतीयांश या कम से कम चतुर्थांश मराठों को दिया जाय। इससे माधोसिंह और उसके साथी राजपूत बङे नाराज हुए। माधोसिंह ने इसके लिये अनेक षड्यंत्र रचे, किन्तु उसकी समस्त योजनाएँ असफल रही। 10 जनवरी, 1751 ई. को उसे एक सुनहरा अवसर मिल गया।

इस दिन लगभग चार हजार मराठों में नवनिर्मित जयपुर नगर के कलात्मक मंदिरों व बाजारों को देखने के लिये नगर में प्रवेश किया। दोपहर में माधोसिंह ने नगर के सभी द्वार बंद करवा दिये और अचानक राजपूत सैनिकों और नागरिकों ने मराठों का कत्लेआम शुरू कर दिया। केवल 70 मराठा सैनिक परकोटे से कूदे और अपने हाथ-पैर तुङवा कर प्राण बचा पाये। मराठों की समस्त सम्पत्ति लूट ली गयी।

राजधानी के बाहर भी जहाँ कहीं मराठा संदेशवाहक मिले, डाले गये। अपर्याप्त सेना के कारण मराठों ने उस समय बदला लेना उचित नहीं समझा। इस समय दिल्ली के वजीर बंगश और रोहिले अफगानों के बीच युद्ध चल रहा था। वजीर पिछले कुछ दिनों से 50 लाख रुपयों के बदले मराठों की सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा था।

वजीर का प्रतिनिधि राजा रामनारायण इस समय मराठा शिविर में उपस्थित था और वजीर की सहायता के लिये तत्काल चलने हेतु मराठों पर जोर डाल रहा था। मराठों की माधोसिंह से निकट भविष्य में कुछ मिलने की उम्मीद नहीं थी। अतः फरवरी, 1751 के आरंभ में मराठों ने अपना शिविर उठाकर आगरा की तरफ कूच किया।

किन्तु इस घटना से राजपूतों और मराठों के बीच पारस्परिक अविश्वास और घृणा की भावना का बीजारोपण हो गया। राजस्थान की राजनीति में राजपूत-मराठा संघर्ष की एक नयी उलझन यहीं से आरंभ हुई, जो आगे चलकर इन दोनों जातियों के साथ-साथ राजस्थान के लिये भी घातक प्रमाणित हुई।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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