इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजस्थान में राजनैतिक जागृति एवं इसके कारण

राजस्थान में राजनैतिक जागृति – 1857 ई. में कंपनी की सत्ता के विरुद्ध भारतव्यापी क्रांति का शंखनाद हुआ। भारतव्यापी इस क्रांति से राजस्थान की वीर प्रसूता भूमि कैसे अछूती रह सकती थी? अतः 1857 ई. में राजस्थान में भी इस क्रांति का विस्फोट हुआ, जिसे आधुनिक इतिहासकारों ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम की संज्ञा दी है। राजस्थान में यह क्रांति इतिहास की एक युगांतकारी घटना प्रमाणित हुई। यद्यपि राजस्थानी राज्यों में ब्रिटिश अधिकारियों के अनाधिकार हस्तक्षेप के कारण राजस्थानी नरेशों में भी अँग्रेजों के प्रति रोष था, लेकिन राजस्थानी नरेशों को ब्रिटिश सरकार द्वारा सुरक्षा का आश्वासन निल जाने के कारण, वे ब्रिटिश सत्ता के प्रति निष्ठावान बने रहे तथा क्रांति का दमन करने में वे अँग्रेजों से सहयोग करते रहे। इस प्रकार राजस्थानी नरेश इस क्रांति की आँधी को रोकने के लिये बलवर्द्धक प्रमाणित हुए। ब्रिटिश सैन्य शक्ति तथा राजस्थानी नरेशों के अपूर्व सहयोग से, यद्यपि इस क्रांति को पूरी तरह कुचल दिया गया, तथापि ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध आक्रोश तथा ब्रिटिश आधिपत्य का अंत कर देश को स्वतंत्र कराने की जनभावना को नहीं कुचला जा सका। वस्तुतः यह क्रांति स्वाधीनता सेनानियों के लिये प्रेरणा-स्रोत प्रमाणित हुई और इस क्रांति ने भावी राष्ट्रीय आंदोलन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। निर्भीक धर्म-प्रचारकों एवं उग्र राष्ट्रवादी विचारों वाले नेताओं ने ब्रिटिश आधिपत्य से मुक्त होने की भावना की उस मंद चिन्गारी को बुझने नहीं दिया, बल्कि वे लोगों में ब्रिटिश विरोधी भावना का प्रचार कर उनमें राजनैतिक चेतना जागृत करते रहे। भारत के कुछ बुद्धजीवियों ने ब्रिटिश भारत के लोगों को नागरिक अधिकार दिलाने व भारतीयों को प्रशासन से संबद्ध करने हेतु 1885 ई. में अखिल भारतीय काँग्रेस की स्थापना की, जिससे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम का एक नया अध्याय आरंभ हुआ। अखिल भारतीय काँग्रेस की गतिविधियों का प्रभाव देशी रियासतों पर भी पङा और धीरे-धीरे देशी रियासतों में भी स्वाधीनता प्राप्ति की भावना फैलने लगी। इस प्रकार 19 वीं शताब्दी के अंत में तथा 20 वीं शताब्दी के प्रारंभ में नवयुवकों ने 1857 ई. की बुझी हुई मशाल को पुनः प्रज्जवलित किया, जिसका अंतिम परिणाम देश की स्वाधीनता के रूप में प्रकट हुआ। 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध व 20 वीं शताब्दी के दो दशकों के बीच राजस्थान में कुछ ऐसी घटनाएँ घटित हुई, जिससे राजस्थान में राजनैतिक जागृति फैल गई, जिसके फलस्वरूप 20 वीं शताब्दी के तीसरे और चौथे दशक में राजस्थान भी राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा से जुङ गया।

राजनैतिक जागृति के लिये उत्तरदायी कारण

राजस्थान की देशी रियासतों का राजनैतिक ढाँचा उस समय अनुकूल नहीं था। 1857 ई. की क्रांति के बाद राजस्थान के राजनीतिक क्षितिज पर ब्रिटिश साम्राज्य रूपी सूर्य अपनी प्रखर किरणों के साथ देदीप्यमान होने लगा। ब्रिटिश सैन्य शक्ति एवं कूटनीति के समक्ष राजस्थानी नरेश पूरी तरह नतमस्तक हो गये और उन्होंने अँग्रेजों का सफलतापूर्वक विरोध करने की आशा ही छोङ दी थी। अब तो अँग्रेजी साम्राज्य की पूर्ण निष्ठा से सेवा कर उनसे प्रशंसा तथा आदर प्राप्त करने में ही, राजस्थानी नरेश, जागीरदार और जन-सामान्य गौरव एवं सम्मान का अनुभव करने लगे। राजस्थान में पराधीनता और राजनैतिक विवशता का घना कुहरा सर्वत्र छाया हुआ था। फिर भी, कुछ भारतीय नेताओं की यह मान्यता थी कि भारतीय रियासतों में स्थिति ब्रिटिश प्रान्तों की अपेक्षा अच्छी थी। उनकी इस मान्यता का कोई आधार नहीं था, क्योंकि वस्तुस्थिति उनकी मान्यता से बिल्कुल विपरीत थी। रियासती जनता दोहरी गुलामी में जीवन यापन कर रही थी। एक ओर तो शासकों का निरंकुश शासन था तो दूसरी तरफ रियासतों पर ब्रिटिश सत्ता का नियंत्रण । ऐसी परिस्थितियों में भारतीय रियासतों में स्थिति ब्रिटिश प्रान्तों की अपेक्षा कैसे अच्छी हो सकती थी, क्योंकि ब्रिटिश प्रान्तों में तो केवल अँग्रेजों का निरंकुश शासन था। भारतीय नेताओं की यह मान्यता तो तब धूमिल हुई, जब राजस्थान में किसान आंदोलन उठ खङे हुए। 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक तो संपूर्ण राजस्थान में अनात्मविश्वास की गहरी बर्फ पङी हुई थी। किन्तु राजस्थान के कुछ नवयुवकों ने अखिल भारतीय काँग्रेस से प्रेरणा लेते हुए राजस्थान में राजनैतिक जागृति उत्पन्न करने का प्रयास किया। फलस्वरूप 20 वीं शताब्दी के प्रथम दो दशकों तक राजस्थान में राजनैतिक जागृति उत्पन्न करने का प्रयास किया। फलस्वरूप 20 वीं शताब्दी के प्रथम दो दशकों तक राजस्थान में राजनैतिक जागृति फैल गई। राजस्थान में राजनैतिक जागृति के लिये निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे-

किसान आंदोलन

कुछ विद्वानों ने राजस्थान में हुए किसान आंदोलन को राजनैतिक जागृति का प्रमुख कारण बताया है, जो केवल आंशिक सत्य है। किसान आंदोलनों का राजनैतिक गतिविधियों से कोई सीधा संबंध नहीं था। कुछ स्थानों पर तो किसान आंदोलनों ने राजनैतिक गतिविधियों से संबंध विच्छेद भी कर लिया था। बिजौलिया के किसानों ने अपने आपको मेवाङ प्रजा मंडल से अलग घोषित कर लिया था। अलवर और भरतपुर के मेव आंदोलन मूल रूप से साम्प्रदायिक थे। जोधपुर में मारवाङ किसान सभा ने भी वहाँ लोक परिषद का समर्थन नहीं किया, जबकि बीकानेर में प्रजा परिषद ने किसानों की माँगों का समर्थन किया तथा सीकर के किसान आंदोलन ने जयपुर प्रजा मंडल का समर्थन किया था। इन साक्ष्यों से स्पष्ट है कि किसान आंदोलन राजनीतिक जागृति का सहायक कारण था। किसान आंदोलनों ने प्रचलित सामंती व्यवस्था की बुराइयों को उजागर कर उसे बदलने की आवश्यकता पर बल दिया। इन आंदोलनों का लक्ष्य राजनीतिक नहीं था फिर भी निरंकुश सत्ता के विरुद्ध आवाज उठाने से प्रचलित राजनीतिक व्यवस्था की आलोचना का मार्ग प्रशस्त हो गया। नये मध्यम वर्ग और राजनीतिक जागृति से प्रेरित लोगों ने किसानों की शिकायतों का समर्थन करके सत्ताधारी वर्ग को जन सामान्य के हितों का विरोधी बताया। शासकों और जागीरदारों के अनुत्तरदायी प्रशासन ने संपूर्ण राजनीतिक ढाँचे पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया। फलस्वरूप न केवल किसानों में बल्कि जन-साधारण में भी राजनैतिक चेतान का विकास हुआ।

आर्य समाज का योगदान

राजस्थान की जनता में राजनीतिक चेतना जागृत करने के लिये उत्तरदायी कारणों में एक मुख्य कारण आर्य समाज के प्रवर्त्तक स्वामी दयानंद सरस्वती की राजस्थान यात्रा और राजस्थान में आर्य समाज की गतिविधियाँ थी। आर्य समाज आंदोलन मूल रूप से धार्मिक एवं सामाजिक होते हुए भी राजनीतिक जागृति में सहायक हुआ। स्वामी दयानंद सर्वप्रथम राजकीय मेहमान के रूप में 1885 ई. में करौली आये। करौली से वे जयपुर और अजमेर गये। उन्होंने भरतपुर, चूरू, उदयपुर, चित्तौङ आदि स्थानों की यात्रा की। इन सभी स्थानों पर शासकों, सरदारों और प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ अपनी बातचीत के दौरान उन्होंने स्वधर्म, स्वदेशी और स्वभाषा पर अधिक बल दिया। 10 अप्रैल, 1875 ई. को उन्होंने बंबई में आर्य समाज की स्थापना की तथा 1880-1890 के मध्य तक राजस्थान में भी विभिन्न स्थानों पर आर्य समाज की शाखाएँ प्रारंभ हो गयी। आर्य समाज के सिद्धांतों एवं विचारों को प्रचारित करने की दृष्टि से वैदिक यंत्रालय को इलाहाबाद से अजमेर स्थानान्तरित कर दिया गया। 1883 ई. में स्वामीजी ने उदयपुर में एक सामाजिक संस्था परोपकारिणी सभा की स्थापना की। मेवाङ के महाराणा सज्जनसिंह को इस सभा का अध्यक्ष बनाया गया तथा इस सभा के प्रमुख सदस्यों में श्यामजी कृष्ण वर्मा, महादेव गोविन्द रानाडे एवं शाहपुरा नरेश विशेष उल्लेखनीय हैं। स्वामीजी की शिक्षाओं ने राजस्थान के लोगों को न केवल सामाजिक और धार्मिक सुधारों की आवश्यकता अनुभव करवा दी, बल्कि राजनैतिक सुधारों के प्रति भी जागरुक बना दिया।

प्रारंभ में राजस्थान के शासकों ने स्वामीजी और उनके आर्य समाज का स्वागत किया। किन्तु कुछ समय बाद उन्होंने अपने निहित स्वार्थों के लिये इसका विरोध करना आरंभ कर दिया। मेवाङ के महाराणा फतेसिंह ने 1893 ई. में पुनर्गठित परोपकारिणी सभा की अध्यक्षता स्वीकार नहीं की और जोधपुर के सर प्रताप ने अध्यक्ष पद स्वीकार करके भी कभी इसकी बैठकों में भाग नहीं लिया। जयपुर का शासक सवाई माधोसिंह द्वितीय तो आर्य समाजियों को अपने राज्य से निकालना चाहता था, किन्तु जोबनेर व अचरोल के ठाकुरों के विरोध के कारण ऐसा न कर सका। अलवर, धौलपुर और बीकानेर के शासकों ने भी आर्य समाज पर अनेक प्रतिबंध लगाये। फिर भी आर्य समाज ने राजस्थान के राजनैतिक जागरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। आर्य समाज का मुख्यालय अजमेर में था तथा विचारों और प्रचार की स्वतंत्रता जितनी अजमेर में थी, वह अन्यत्र नहीं थी। आर्य समाज ने सामाजिक व धार्मिक सुधारों के साथ-साथ राष्ट्रीय शिक्षा और राष्ट्रीय भाषा का भी प्रचार किया, जिससे राजनीतिक चेतना का विकास होना स्वाभाविक ही था।

अँग्रेजी शिक्षा का योगदान

अँग्रेजों के संपर्क में आने से पूर्व यहाँ शिक्षा परंपरागत हिन्दू पोशाल और मुस्लिम मकतब द्वारा दी जाती थी। किन्तु 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से 20 वीं शताब्दी के आरंभ तक राजस्थान के शासकों ने अपने-अपने राज्य में अनेक अँग्रेजी शिक्षण संस्थाएँ स्थापित की। फिर भी राजस्थान में अँग्रेजी शिक्षा का प्रसार बहुत धीमा रहा। डॉ. एम.एस.जैन के अनुसार 1931 ई. में अजमेर-मेरवाङा क्षेत्र को छोङकर समस्त राजस्थान में एक प्रतिशत से कम लोग अँग्रेजी बोलना जानते थे। किन्तु वे लोग जो राजस्थान से बाहर जाकर अँग्रेजी शिक्षा ग्रहण करते थे, अल्प संख्या में होते हुए भी प्रभावशाली सिद्ध हुए। ऐसे अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोग राजकीय सेवा में नियुक्ति पाने के इच्छुक थे किन्तु राजकीय सेवा में नियुक्तियाँ कुटुम्ब और राजनीतिक महत्त्व के आधार पर दी जाती थी, जिसमें योग्यता की प्रायः उपेक्षा ही की जाती थी। सामंती वर्ग के सदस्यों को, अयोग्य व अशिक्षित होने के बावजूद उच्च पदों पर आसीन कर दिया जाता था। कुछ राज्यों में तो, पोलीटिकल अधिकारियों के कहने पर, ब्रिटिश भारत के शिक्षित व्यक्तियों को बुलाकर उच्च पदों पर नियुक्त कर दिया जाता था। इस प्रकार की गयी नियुक्तियाँ राजनीतिक असंतोष को बढाने में सहायक सिद्ध हुी, क्योंकि यह शिक्षा व योग्यता का खुला अपमान था। इस शिक्षित वर्ग ने प्रचलित व्यवस्था के दोषों को उजागर किया और जन साधारण में असंतोष जागृत किया। यह शिक्षित वर्ग स्वतंत्रता और समानता की भावनाओं से परिपूर्ण अँग्रेजी साहित्य से भी परिचित हुआ, जिससे उनमें नई चेतना जागृत हुई। यूरोप में प्रचलित उदारवाद, प्रजातंत्रवाद और समाजवाद के अध्ययन से इस वर्ग में एक वैचारिक क्रांति उत्पन्न हुई। इसीलिए इस वर्ग ने आगे चलकर रियासतों में उत्तरदायी शासन की माँग की।

समाचार पत्रों एवं साहित्य का योगदान

राजस्थान में राजनीतिक चेतना के विकास में समाचार पत्रों का योगदान भी महत्त्वपूर्ण रहा। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद प्रेस और समाचार पत्रों पर नियंत्रण समाप्त कर दिये गये थे, तब राजस्थान के राज्यों में निरंकुश सत्ता के दोष समाचार पत्रों के माध्यम से बहुचर्चित हो गये। 1885 ई. में राजपूताना गजट और 1889 ई. में राजस्थान समाचार का प्रकाशन आरंभ हुआ, जिनमें विभिन्न राज्यों में ब्रिटिश पोलिटिकल अधिकारियों की व्यापक आलोचना होती थी। इसिलए थोङे समय बाद ही बंद हो गये। 1920 ई. में विजयसिंह पथिक ने राजस्थान केसरी का प्रकाशन आरंभ किया, जो साप्ताहिक था, किन्तु अल्प समय में वह भी बंद हो गया। 1922 ई. में राजस्थान सेवा संघ ने नवीन राजस्थान आरंभ किया, जिसने बिजौलियाबेगूँ के किसान आंदोलनों तथा भोमट के भील आंदोलन का समर्थन किया। यद्यपि 1923 ई. में इसे बंद करना पङा, लेकिन तरुण राजस्थान के नाम से इसका प्रकाशन पुनः आरंभ किया गया। इस पत्र के संपादन में शोभालाल गुप्त, रामनारायण चौधरी, जयनारायण व्यास आदि नेताओं का योगदान उल्लेखनीय रहा। इसमें निमुचना काण्ड के अलावा विभिन्न राज्यों के शासकों के निरंकुश अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठायी गयी। 1930 ई. के बाद समाचार-पत्रों की संख्या बढने लगी। प्रभात (1932ई.), नवज्योति (1936ई.), नव जीवन (1939 ई.), जयपुर समाचार (1935 ई.), लोकवाणी (1943 ई.), अलवर पत्रिका (1943ई.) आदि समाचार पत्रों में शोषण और अत्याचारों की व्यापक चर्चा होती थी। ऐसी चर्चाएँ राजनैतिक चेतना के विकास में सहायक सिद्ध हुई। 1927 ई. में हरिभाऊ उपाध्याय ने त्याग भूमि का प्रकाशन गाँधीवादी विचारधारा का प्रचार करने के उद्देश्य से किया था।

समाचार पत्रों के अलावा राजस्थान के साहित्यकारों ने भी अपनी लेखनी से जन जागृति पैदा की थी। केसरीसिंह बारहठ की कविताएँ राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत होती थी। सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा रचित वीर सतसई तो आज भी रोंगटें खङे कर देती है। 19 वीं शताब्दी का अधिकांश चारण साहित्य देश प्रेम की भावनाओं से ओत-प्रोत है। 20 वीं शताब्दी में श्री जयनारायण व्यास की कविताएँ और पंडित हीरालाल शास्री के जीवन कुटीर के गीत न केवल राष्ट्रीय जागरण में सहायक सिद्ध हुए, बल्कि उनसे सामाजिक सुधारों का मार्ग भी प्रशस्त हुआ।

प्रथम विश्वयुद्ध का प्रभाव

प्रथम विश्वयुद्ध ने भी राजस्थान के लोगों को उत्तेजित कर दिया और उत्तेजना राष्ट्रीय जागरण में सहायक सिद्ध हुई। जब इंग्लैण्ड ने धुरी राष्ट्रों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की, तब राजस्थान के शासकगण ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति असीम निष्ठा का परिचय देते हुए साम्राज्य की सेवा में लङने को तैयार हो गये। बीकानेर, किशनगढ, भरतपुर, धौलपुर, डूँगरपुर, झालावाङ, करौली, जयपुर, कोटा, बूँदी और जैसलमेर के शासकों ने अपने समस्त साधन और सैनिक ब्रिटिश सरकार की सेवा में प्रस्तुत कर दिये। जब राजपूत राज्यों के सैनिक विश्वयुद्ध में भाग लेने लगे, तब वे एक ऐसी दुनिया के संपर्क में आये जहाँ स्वतंत्रता और समता के आदर्शों से अनुप्राणित लोकतंत्रीय संस्थाएँ प्रचलित थी। ऐसे वातावरण को देखकर वे बङे प्रभावित हुए और स्वदेश लौटकर अपने मित्रों तथा अन्य लोगों में अपने अनुभव सुनाये, जिससे लोगों में राष्ट्रीय जागृति उत्पन्न हुई। राजस्थानी शासकों ने युद्ध कोष में भी भारी धनराशि प्रदान की और यह समस्त धनराशि साधारण जनता से वसूल की गयी, जो पहले ही अनेक करों के बोझ से दबी हुई थी। लोगों की इन आर्थिक कठिनाइयों ने प्रचलित व्यवस्था के प्रति घोर असंतोष उत्पन्न कर दिया। इस असंतोष ने राष्ट्रीय चेतना विकसित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

प्रवासी व्यापारी वर्ग का योगदान

प्रथम विश्वयुद्ध के पूर्व तक प्रवासी व्यापारी वर्ग सत्ता का समर्थक था, किन्तु इसके बाद विभिन्न कारणों से इस वर्ग की विचारधारा बदल गयी। एक ओर तो अपने व्यापार वाणिज्य के संबंध में उन्होंने अँग्रेजों के दुर्व्यवहार को निकट से देखा और दूसरी ओर अँग्रेजों की व्यापार नीति को अपने व्यापार वाणिज्य के विकास में बाधा समझा। अतः प्रवासी व्यापारियों ने अनुभव किया कि राष्ट्रीय विचारधारा को प्रबल बनाने से तथा उन्हें आर्थिक सहायता देने से उनके व्यापार वाणिज्य के विकास में सहायता मिल सकती है। अतः कलकत्ता और बंबई में विकसित मारवाङी मंडल अथवा मारवाङी सम्मेलन ने राष्ट्रीय विचारधारा को प्रोत्साहित करने का निश्चय किया। आर्थिक सम्पन्नता के कारण इस वर्ग ने अपने पैतृक राज्यों में सामाजिक प्रतिष्ठा को प्राप्त कर ली थी, किन्तु विभिन्न अवसरों पर उन्हें जागीरदारों अथवा राज्य कर्मचारियों से अपमानित होना पङता था। इसलिए वे राजनैतिक जागृति लाने के लिये अपनी धनशक्ति का प्रयोग करना चाहते थे, ताकि सामंतों के अहम एवं अनुत्तरदायी व्यवहार को नियंत्रित किया जा सके। इन व्यापारियों ने अखिल भारतीय स्तर पर ऑल इंडिया स्टेट पीपुल्स कॉन्फ्रेंस कार्यकर्त्ताओं को आर्थिक सहायता दी। प्रवासी व्यापरी वर्ग के अतिरिक्त प्रायः प्रत्येक राज्य में राजनैतिक चेतना विकसित करने वालों में भी व्यापारी वर्ग सम्मिलित था। बीकानेर में खूबराम सर्राफ व सत्यनारायण सर्राफ, जोधपुर में आनंदराज सुराणा, चाँदमल सुराणा और भँवरलाल सर्राफ, जयपुर में टाकाराम पालीवाल और गुलाबचंद कासलीवाल के नाम उल्लेखनीय हैं।

विभिन्न संगठनों का योगदान

निरंकुश शासन पद्धति में सर्वाधिक भय सावर्जनिक आलोचना से रहता है। राजस्थान में जागृति की भावना तो व्याप्त थी, किन्तु उन्हें मूर्तरूप देने के माध्यम के अभाव में जनता अपने विचार प्रकट नहीं कर सकती थी। 20 वीं शताब्दी के आरंभ में राजस्थान में ऐसे संगठनों का निर्माण हुआ। जनजातियों को संगठित करने तथा जनजातियों पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये संप सभा की स्थापना की गयी, जिसके माध्यम से मेवाङ, बाँसवाङा, डूँगरपुर, सिरोही और गुजरात के भीलों व गिरासियों में जागृति उत्पन्न की गयी। 1915 ई. में विजयसिंह पथिक ने सेवा समिति का निर्माण किया जिसने किसानों में जागृति उत्पन्न की। 1917-18 ई. में जोधपुर में चाँदमल सुराणा ने मारवाङ हितकारिणी सभा की स्थापना की तथा 1919 ई. में राजस्थान सेवा संघ स्थापित किया गया जिसका मुख्य उद्देश्य जनता के कष्टों का निवारण करना, शासकों और जागीरदारों के न्यायोचित अधिकारों का समर्थन करना तथा जागीरदारों और उनकी रैय्यत के बीच सौहार्द्रपूर्ण संबंधों का विकास करना था। 1919 ई. में अखिल भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के दिल्ली अधिवेशन के दौरान राजपूताना और मध्य भारत के प्रमुख कर्मठ कार्यकर्त्ताओं ने राजपूताना-मध्यभारत सभा की स्थापना की। इस सभा का मुख्य उद्देश्य रियासतों की जनता को राष्ट्रीय क्राँग्रेस की गतिविधियों से परिचित करवाकर राजनैतिक चेतना का विकास करना था।

क्रांतिकारियों का योगदान

भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की भिक्षा-वृत्ति की नीति (सरकार को ज्ञापन एवं याचिकाएँ मात्र देना) से असंतुष्ट होकर कुछ राष्ट्रीय नेताओं ने उग्र राष्ट्रवाद का सहारा लिया था। ब्रिटिश सरकार ने उग्रवादियों के विरुद्ध अपना दमन चक्र चलाया। फलस्वरूप देश में क्रांतिकारी एवं आतंकवादी सक्रिय हो उठे। राजस्थान भी क्रांतिकारी आंदोलनों से अछूता नहीं रह सका। उत्तर भारत के अनेक क्रांतिकारी, राजस्थान के क्रांतिकारियों से संपर्क बनाये हुए थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा (1857-1930 ई.) उच्च कोटि के विद्वान थे। उन्होंने 1885-97 ई. के मध्य रतलाम, उदयपुर और जूनागढ राज्यों में दीवान के पद पर कार्य किया था। स्वामी दयानंद सरस्वती के संपर्क में आने के बाद वे स्वदेशी वस्तुओं व वस्रों के पक्के समर्थक बन गये। 1897 ई. में महाराष्ट्र के पूना नगर में प्लेग कमिश्नर रैण्ड व उसके सहायक आयर्स्ट की हत्या कर दी गयी। ब्रिटिश सरकार को श्यामजी कृष्ण वर्मा पर संदेह हुआ। अतः श्यामजी कृष्ण वर्मा किसी तरह जान बचाकर इंगलैण्ड चले गये जहाँ उन्होंने इंडिया हाउस की स्थापना की। इंडिया हाउस भारतीय क्रांतिकारियों का गढ बन गया और वहाँ से भारत में क्रांतिकारियों को हरसंभव सहायता दी जाती रही। श्यामजी कृष्ण वर्मा राजस्थान के क्रांतिकारियों के प्रेरणा-स्रोत रहे। राजस्थान में क्रांतिकारियों का नेतृत्व अर्जुनलाल सेठी, केसरीसिंह बारहठ, खरवा के राव गोपालसिंह आदि ने किया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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