आधुनिक भारतइतिहासदयानंद सरस्वती

स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय

स्वामी दयानंद सरस्वती

अन्य संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य

दयानंद सरस्वती (Swami Dayanand Saraswati) का जन्म 1824 ई. में गुजरात के टंकारा परगने के शिवपुर ग्राम में एक धनी रूढिवादी परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मूलशंकर था। जब वे 14 वर्ष के थे, तब एक बार शिवरात्रि के पर्व पर अपने पिता के साथ शिव मंदिर गये। वहाँ उन्होंने एक चूहे को शिवलिंग पर चढकर प्रसाद खाते देखा तो उनका मूर्तिपूजा से विश्वास उठ गया। जब उनके पिता ने उनके विवाह का प्रबंध किया तो 1845 में 21 वर्ष की आयु में उन्होंने आध्यात्मिक खोज के लिए भगवान बुद्ध की भाँति गृह-त्याग कर दिया। 1860 में वे मथुरा पहुँचे और वहाँ दंडी स्वामी वृजानंद के चरणों में बैठकर ज्ञान प्राप्त किया। स्वामी वृजानंद वैदिक साहित्य,भाषा एवं दर्शन के प्रकांड पंडित थे। उन्होंने दयानंद को वेदों में निहित ज्ञान की व्याख्या समझाई। अतः यहाँ पर दयानंद को विश्वास हो गया कि वेद ही समस्त ज्ञान के स्त्रोत हैं। स्वामी वृजानंद जीवन भर गुरु के इस आदेश का पालन करते रहे।

दयानंद अंग्रेजी भाषा से अनभिज्ञ थे तथा पाश्चात्य सभ्यता व ईसाई धर्म से भी अप्रभावित थे। उनका उद्देश्य हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता स्थापित करना था।तथा हिन्दू धर्म की बुराइयों को निकालना था। वे अपने धर्म-प्रचार के कार्यों में संस्कृत भाषा का प्रयोग करते थे, किन्तु केशवचंद्रसेन के परामर्श से उन्होंने हिन्दी भाषा के माध्यम से जन-साधारण को अपना संदेश दिया। उन्होंने 1863 में आगरा से अपने धर्म-प्रचार का कार्य आरंभ किया। 1874में उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश की रचना की। वाराणसी में कर्मकांडी पंडितों से हुे शास्त्रार्थ में उन्होंने प्रमाणित किया कि वेद ही समस्त ज्ञान के आधार हैं तथा मूर्तिपूजा वेदों की शिक्षा के प्रतिकूल है। उन्होंने हिन्दू धर्म, सभ्यता और भाषा के प्रचार के लिए 10अप्रैल,1875 में बंबई में आर्य समाज की स्थापना की। उसके बाद स्वामी जी दिल्ली गये,जहाँ ईसाई,मुसलमान और हिन्दू पंडितों की एक सभा बुलाई,किन्तु दो दिन के विचार-विमर्श के बाद भी कोई निष्कर्ष नहीं निकला। दिल्ली से स्वामीजी पंजाब गये, जहाँ उनके प्रति बङा उत्साह जागृत हुआ। जून,1877 में लाहौर में आर्य समाज की एक शाखा खोली गई और कालांतर में इस आंदोलन का प्रमुख कार्यालय लाहौर में ही बन गय। इसके पश्चात् भारत के विभिन्न प्रांतों में अपने विचारों का प्रचार करते रहे तथा आर्य समाज की शाखाएँ स्थापित करते रहे।

अपने विचारों का प्रचार करने के लिए स्वामी जी ने तीन ग्रंथ लिखे थेऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका में उन्होंने वेदों के संबंध में अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट किया । दूसरे ग्रंथ वेदभाष्य में उन्होंने यजुर्वेद और ऋग्वेद की टीका लिखी। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश है। इसमें स्वामी जी ने सभी धर्मों का आलोचनात्मक विश्लेषण करते हुय़े यह प्रमाणित किया कि वैदिक धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है। उन्होंने इस ग्रंथ में पौराणिक हिन्दू धर्म की कुरीतियों का खंडन जिस निर्भयता से किया है, उसी ढंग से इस्लाम तथा ईसाइयत के ढोंग,आडंबर तथा अंधविश्वासों की भी तीव्र आलोचना की है। इससे हिन्दू जनता को यह जानकर संतोष हुआ कि पौराणिकता के मामले में ईसाइयत और इस्लाम भी हिन्दुत्व से अच्छे नहीं है। दूसरा यह कि हिन्दुओं का ध्यान अपने धर्म के मूल रूप की ओर आकृष्ट हुआ और वे अपनी प्राचीन परंपरा के लिए गौरव का अनुभव करने लगे। ईसाइयत की श्रेष्ठता की भावना जो बल पकङ रही थी, स्वामीजी ने उस पर रोक लगा दी। स्वामीजी ने सत्यार्थ प्रकाश में अवतारवाद, तीर्थ-यात्रा,व्रत-अनुष्ठान आदि पौराणिक बातों का बङे ही युक्तिपूर्वक ढंग से खंडन किया। उन्होंने प्रतिदिन वेद में निर्दिष्ट यज्ञ तथा संध्या करना प्रत्येक आर्य के लिए आवश्यक बताया। स्वामीजी ने छुआछूत के विचारों को अवैदिक बताया और उनके समाज ने सहस्त्रों अंत्यजों को यज्ञोपवीत देकर उन्हें हिन्दुत्व के भीतर आदर का स्थान दिया। स्वामीजी ने बाल विवाह,बहु विवाह तथा पर्दा -प्रथा का खंडन किया। उन्होंने स्त्री-शिक्षा पर जोर दिया तथा अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया।

स्वामी दयानंद के अंतिम दिन राजस्थान में व्यतीत हुए, जहाँ अनेक राजा तथा जागीरदार उनके शिष्य बने। उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंह ने उनसे मनुस्मृति,राजनीति तथा राजधर्म की शिक्षा ग्रहण की। 1881 में उदयपुर के ही एक जागीरदार बनेङा के राजा गोविंदसिंह का निमंत्रण प्राप्त कर वे बनेङा गये। बनेङा में स्वामी सोलह दिन रहे। और इस दौरान स्वामीजी ने राजा गोविन्दसिंह के दोनों पुत्रों -अक्षयसिंह और रामसिंह – को सस्वर वेद पाठ करना सिखाया। स्वामीजी ने दोनों राजकुमारों को वर्णोच्चारण शिक्षा नामक पुस्तक उपहार में दी। उसके बाद चित्तौङगढ चले गये। मार्च,1883 में वे जोधपुर आये, जहाँ किसी के द्वारा स्वामीजी को विष दे दिया गया। धर्म के ऐसे महान आचार्य की 30अक्टूंबर, 1883 को दीपमालिका के दिन अजमेर में जीवन लीला समाप्त हो गई।

स्वामी दयानंद के अंतिम दिन राजस्थान में व्यतीत हुए, जहाँ अनेक राजा तथा जागीरदार उनके शिष्य बने। उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंह ने उनसे मनुस्मृति,राजनीति तथा राजधर्म की शिक्षा ग्रहण की। 1881 में उदयपुर के ही एक जागीरदार बनेङा के राजा गोविंदसिंह का निमंत्रण प्राप्त कर वे बनेङा गये। बनेङा में स्वामी सोलह दिन रहे। और इस दौरान स्वामीजी ने राजा गोविन्दसिंह के दोनों पुत्रों -अक्षयसिंह और रामसिंह – को सस्वर वेद पाठ करना सिखाया। स्वामीजी ने दोनों राजकुमारों को वर्णोच्चारण शिक्षा नामक पुस्तक उपहार में दी। उसके बाद चित्तौङगढ चले गये। मार्च,1883 में वे जोधपुर आये, जहाँ किसी के द्वारा स्वामीजी को विष दे दिया गया। धर्म के ऐसे महान आचार्य की 30अक्टूंबर, 1883 को दीपमालिका के दिन अजमेर में जीवन लीला समाप्त हो गई।

स्वामीजी की मृत्यु के बाद थियोसोफिस्ट अखबार ने उनकी प्रशंसा करते हुए लिखा था, उन्होंने जर्जर हिन्दुओं के गतिहीन जनसमूह पर भारी प्रहार किया और अपने भाषणों से लोगों के ह्रदय ऋषियों और वेदों के लिए अपरिमित उत्साह की आग जला दी। सारे भारतवर्ष में उनके समान हिन्दी और संस्कृत का वक्ता दूसरा कोई और नहीं था।

Reference :https://www.indiaolddays.com/

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