इतिहासप्राचीन भारतराजपूत काल

राजपूतकालीन कला और स्थापत्य-वास्तुकला-मंदिर

गुप्तकाल के बाद संपूर्ण भारत में मंदिर निर्माण की परंपरा आरंभ हो गयी थी। वास्तुशास्रों में मंदिर की उपमा मानव शरीर से देते हुए उसके 8 अंगों का विधान किया गया । ये इस प्रकार मिलते हैं-

  1. आधार या चौकी (इसका एक अन्य नाम जगतीपीठ भी है।)
  2. वेदिबंध (आधार के ऊपर का गोल अथवा चौकोर अंग)
  3. अंतर पत्र (वेदिबंध के ऊपर की कल्पबल्ली या पत्रावली पट्टिका)
  4. वरंडिका (ऊपर का बरामदा)
  5. शुकनासिका (मंदिर के ऊपर का बाहर निकला हुआ भाग)
  6. कंठ या ग्रीवा (शिखर के ठीक नीचे का भाग)
  7. शिखर (शीर्ष भाग जिस पर खरबुजिया आकार का आमलक होता था)
  8. प्रवेश – द्वार (तोरण) को कई शाखाओं में विभाजित करने तथा उसे विविध प्रकार के अलंकरणों से सजाने की प्रथा भी प्रचलित हुई।

मंदिर निर्माण के उपर्युक्त 8 अंग संपूर्ण देश में प्रचलित हो गये।

7 वीं शता. से संपूर्ण भारत में स्थापत्य कला में एक नया मोङ आया तथा उत्तर, मध्य एवं दक्षिण की कलाकृतियाँ अपनी निजी विशेषताओं के साथ प्रस्तुत की गयी। अनेक शास्रीय ग्रंथों – मानसोल्लास मानसार, समरांगणसूत्रधार, अपराजितपृच्छा, शिल्पप्रकाश, सुप्रभेदागम्, कामिनिकागम् आदि की रचना हुई तथा इनमें मंदिर वास्तु के मानक निर्धारित किये गये। इनके अनुपालन में कलाकारों ने अपनी कृतियां प्रस्तुत की। शिल्पग्रंथों में स्थापत्य कला के क्षेत्र में तीन प्रकार के शिखरों का उल्लेख मिलता है, जिनके आधार पर मंदिर निर्माण की तीन शैलियों का विकास हुआ-

  1. नागर शैली
  2. द्रविङ शैली
  3. वेसर शैली

ये सभी नाम भौगोलिक आधार पर दिये गये हैं।

नागर शैली का विस्तार- नागर शैली उत्तर भारत की शैली थी, जिसका विस्तार हिमालय से विन्ध्य पर्वत तक दिखाई देता है।

द्रविङ शैली का विस्तार – द्रविङ शैली का विस्तार कृष्णा नदी से कन्याकुमारी तक था।

वेसर शैली का विस्तार- विन्ध्य तथा कृष्णा नदी के बीच के क्षेत्र में वेसर शैली प्रचलित हुई। क्योंकि इस क्षेत्र में चालुक्य वंश का अधिकार था। अतः इस शैली को चालुक्य शैली भी कहा गया है।

वेसर का शाब्दिक अर्थ खच्चर होता है, जिसमें घोङे तथा गधे दोनों का मिला-जुला रूप है। इसी प्रकार वेसर शैली के तत्व नाग तथा द्रविङ दोनों से लिये गये हैं।

नागर तथा द्रविङ दोनों शैलियों में मुख्य अंतर – इन दोनों शैलियों में मुख्य अंतर शिखर संबंधी है, जिसे विमान कहते हैं। नागर शैली में आयताकार गर्भगृह के ऊपर ऊँची मीनार के समान गोल या चौकोर शिखर बनाये जाते थे, जो त्रिकोण की भाँति ऊपर पतले होते थे। द्रविङ शैली के शिखर वर्गाकार तथा अलंकृत गर्भगृह के ऊपर बनते थे। ये कई मंजिलों से युक्त पिरामिडाकार हैं। बाद में द्रविङ मंदिरों को घेरने वाली प्राचीर में चार दिशाओं में विशाल तोरण द्वार बनाये गये। इनके ऊपर बहुमंजिले भवन बनने लगे जिन्हें देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत किया गया। ये कभी-कभी विमान से भी ऊँचे होते थे। तोरण द्वार पर बनी इन अलंकृत एवं बहुमंजिली रचनाओं को गोपुरम् नाम दिया गया है।

पूर्व मध्यकालीन उत्तर भारत में सर्वत्र नागर शैली के मंदिर बनाये गये । इनमें दो प्रमुख लक्षण हैं- अनुप्रस्थिका (योजना) तथा उत्थापन (ऊपर की दिशा में उत्कर्ष या ऊँचाई) 6वीं शता.के मंदिरों में स्वस्तिकाकार योजना सर्वत्र दिखाई देती है। अपनी ऊँचाई के क्रम में शिखर उत्तरात्तर ऊपर की ओर पतला होता गया है। दोनों पार्श्वों में क्रमिक रूप से निकला हुआ बाहरी भाग जिसे अस्र कहते हैं। इनकी ऊँचाई भी शिखर तक जाती है। आयताकार मंदिर के प्रत्येक और रथिका तथा अस्रों का निजोजन होता है। शिखर पर आमलक स्थापित किया जाता है। जो संपूर्ण रचना को अत्यंत आकर्षक बनाता है।

राजपूत शासक बङे उत्साही निर्माता थे। अतः इस काल में अनेक भव्य मंदिर, मूर्तियों एवं सुदृढ दुर्गों का निर्माण किया गया। राजपूतकालीन मंदिरों के भव्य नमूने भुवनेश्वर, खजुराहो, आबू पर्वत(राजस्थान) तथा गुजरात से प्राप्त होते हैं।

इनका विवरण इस प्रकार है-

उङीसा के मंदिरों का इतिहास

नागर शैली का विकास अधिकतम निखरे रूप में उङिसा के मंदिरों में दिखाई देता है। यहाँ 8 वीं शता. से 13वीं शता. तक अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ। पहाङियों से घिरा होने के कारण यह प्रदेश अधिकांशतः विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित रहा और यही कारण है, कि यहाँ पर निर्मित कुछ श्रेष्ठ मंदिर आज भी सुरक्षित हैं।

उङीसा के मंदिर मुख्यतः भुवनेश्वर, पुरी तथा कोणार्क में हैं, जिनका निर्माण 8 वीं से 13वीं शता. के बीच हुआ। भुवनेश्वर के मंदिरों के मुख्य भाग के सम्मुख चौकोर कक्ष बनाया गया है। इसे जगमोहन (मुखमंडप अथवा सभामंडप) कहा जाता है। यहां उपासक एकत्रित होकर पूजा-अर्जना करते थे। जगमोहन का शीर्ष भाग पिरामिडाकार होता था। इनके भीतरी भाग सादे हैं, किन्तु बाहरी भाग को अनेक प्रकार की प्रतिमाओं तथा अलंकरणों से सजाया गया है । गर्भगृह की संज्ञा देउल थी। बङे मंदिरों में जगमोहन के आगे एक या दो मंडप और बनाये जाते थे, जिन्हें नटमंदिर तथा भोगमंदिर कहते थे।

शैली की दृष्टि से उङीसा के मंदिर तीन श्रेणियों में विभाजित किये जा सकते हैं-

  1. रेखा देउल- इसमें शिखर ऊँचे बनाये गये हैं।
  2. पीढा देउल- इसमें शिखर क्षितिजाकार पिरामिड प्रकार के हैं।
  3. खाखर (खाखह) – इसमें गर्भगृह दीर्घाकार आयतनुमा होता है तथा छत गजपृष्ठाकार बनती है।

मंदिरों में स्तंभों का बहुत कम प्रयोग किया गया है। इनके स्थान पर लोहे की शहतीरों का प्रयोग मिलता है। यह एक आश्चर्यजनक तथा प्राविधिक आविष्कार था। मंदिरों की भीतरी दीवारों पर खजुराहो के मंदिरों जैसा अलंकरण प्राप्त नहीं होता है।…अधिक जानकारी

गुजरात तथा राजस्थान के मंदिर

गुर्जर-प्रतिहास्थापत्य कला के नमूने को गुजरात तथा राजस्थान के मंदिरों में देखा जा सकता है। प्रतिहार शासकों के निर्माण कार्यों के बारे में जानकारी उनके द्वारा लिखे गये लेखों से प्राप्त की जा सकती है।

वाउक की जोधपुर प्रशस्ति से पता चलता है, कि उसने वहाँ सिद्धेश्वर महादेव का मंदिर बनवाया था। इसी प्रकार मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति से सूचित होता है, कि उसने अपने अंतःपुर में भगवान विष्णु के मंदिर का निर्माण करवाया था।

इन उल्लेखों से प्रकट होता है, कि प्रतिहार शासकों की निर्माण कार्यों में गहरी रुचि थी।

गुप्तोत्तर काल (8 वीं शता.में राजस्थान) वास्तुकला की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध रहा। मंदिरों तथा भवनों के अवशेष जोधपुर के उत्तर-पश्चिम में 56 किलोमीटर दूरी पर स्थित ओसिया नामक स्थान से प्राप्त होते हैं। प्राचीन मंदिरों में शिव, विष्णु, सूर्य, ब्रह्मा, अर्धनारीश्वर, हरिहर, नवग्रह, कृष्ण तथा महिषमर्दिनी दुर्गा के मंदिर उल्लेखनीय हैं। इन पर गुप्त स्थापत्य का प्रभाव है।

गुप्तकालीन स्थापत्य कला का इतिहास

ओसिया के मंदिरों की दो कोटियाँ दिखाई देती हैं। प्रथम कोटि के मंदिर जिनकी संख्या लगभग बारह है, दूसरी कोटि के मंदिरों में स्थानीय विशेषतायें मुखर हो गयी हैं। प्रत्येक का आकार एक दूसरे से अलग है। अर्थात् किन्हीं दो मंदिरों में समानता नहीं दिखाई देती है। इसके निर्माण में मोलिकता है। तीन हरिहर मंदिर आकार तथा अलंकरण की दृष्टि से सुंदर हैं। दो पंचायतन शैली में बने हैं। इनके शीर्ष पर आमलक बना हुआ है। नागभट्ट द्वितीय केसमय झालरपाटन मंदिर का निर्माण हुआ। इसी प्रकार ओसिया ग्राम के भीतर तीर्थंकर महावीर का एक सुंदर मंदिर है, जिसे वत्सराज के समय (770-800ई.) में बनवाया गया था। यह परकोटे के भीतर स्थित है। इसमें भव्य तोरण लगे हैं। तथा स्तंभों पर तीर्थंकरों की प्रतिमायें खुदी हुई हैं।…अधिक जानकारी

सोलंकी कालीन स्थापत्य

सोलंकी शासक उत्साही निर्माता थे तथा उनके काल में अनेक मंदिर एवं धार्मिक स्मारक बनवाये गये। मंदिर निर्माण के कार्य में उनके राज्यपालों, मंत्रियों एवं धनाढ्य व्यापारियों ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस प्रकार संपूर्ण समुदाय की कार्यनिष्ठा एवं प्रत्येक व्यक्ति की लगन के फलस्वरूप इस समय गुजरात के अन्हिलवाङ तथा राजस्थान के आबू पर्वत पर कई भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया गया ये मुख्यतः जैन धर्म से संबंधित मंदिर हैं।

सोलंकी शासकों का राजनैतिक इतिहास

सोलंकी काल के मंदिरों में तीन भाग दिखाई पङते हैं-

  1. पीठ या आधार- इसके ऊपरी भाग पर पूरा निर्माण टिका हुआ है। इसमें कई ढलाइयाँ हैं, जो विविध अलंकरणों से युक्त हैं। राक्षस (श्रृगाररहित सिर), गजपीठ, अश्व तथा मानव आकृतियाँ आदि उत्कीर्ण हैं।
  2. मंडोवर अर्थात् मध्यवर्ती भाग- यह पीठ तथा शीखर के मध्य होता था और मंदिर का प्रमुख भाग माना जाता था। इसकी लंबवत् दीवारों में ताख बने हैं, जिनमें देवी-देवताओं, नार्तिकाओं आदि की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं।
  3. मीनार या शिखर-यह मंदिर का सबसे ऊपरी भाग है, जो नागरी शैली में हैं। इसके चारों ओर उरुश्रृंगों (गर्भगृह की मीनार पर चारों ओर बना शिखरनुमा आकार) का समूह बनाया गया है।

मंदिरों का निर्माण ऊँचे चबूतरे पर किया जाता था। सामान्यतः उनमें एक देवालय तथा एक कक्ष होता था तथा प्रवेश द्वार पर बरसाती नहीं रहती थी। ऊपरी शिखर खजुराहो के समान अनेक छोटी-छोटी मीनारों से सुसज्जित रहता था तथा छतें रोङादार गुंबदों जैसी होती थी। इन भीतरी छतों पर खोदकर चित्र बनाये जाते थे, ताकि वे एक वास्तविक गुंबद जैसे प्रतीत हो सकें।…अधिक जानकारी

बुंदेलखंड के चंदेलकालीन मंदिर

बुंदेलखंड का प्रमुख स्थल मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित खजुराहो( khajuraaho ) नामक स्थान है। यहाँ चंदेल राजाओं के समय में 9वीं शता. से लेकर 12वीं शता. तक अनेक सुंदर तथा भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया गया। ये पूर्व मध्ययुगीन वास्तु एवं तक्षण कला के उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

खजुराहो में 25 मंदिर आज भी विद्यमान हैं। इनका निर्माण ग्रेनाइट तथा लाल बलुआ पत्थरों से किया गया है। ये शैव, वैष्णव तथा जैन धर्मों से संबंधित हैं।

खजुराहो के मंदिरों की विशेषतायें निम्नलिखित हैं-

  • मंदिरों का निर्माण ऊँची चौकी पर हुआ है, जिसके ऊपरी भाग को अनेक अलंकरणों से सजाया गया है।
  • चौकी या चबूतरे पर गर्भगृह, अंतराल, मंडप तथा अर्धमंडप हैं। सभी पर शिखर एक निश्चित रेखा में बने हैं, जो क्रमशः छोटे होते गये हैं। इन्हें आरोहवरोह कहा गया है।
  • शिखरों पर छोटे-छोटे शिखर संलग्न हैं, जिन्हें उरुश्रृंग कहा जाता है। ये छोटे आकार के मंदिर के ही प्रतिरूप हैं। उरुश्रृंगों से मंदिर की आकृति और भी सुंदर हो गयी है।
  • सर्वोच्च शिखर के ऊपर आमलक, स्तूपिका तथा कलश स्थापित हैं। दीवारों में बनी खिङकियों में छोटी-छोटी मूर्तियाँ रखी गयी हैं। गर्भगृह के ऊपर उत्तुंग शिखर हैं।
  • मंदिर आकार में बहुत बङे नहीं हैं तथा उनके चारों ओर दीवार भी नहीं बनाई गयी है।
  • प्रत्येक मंदिर में मंडप, अर्धमंडप तथा अंतराल मिलते हैं।
  • कुछ मंदिरों में विशाल मंडप बने हैं, जिससे उन्हें महामंडप कहा जाता है।
  • मंदिरों के प्रवेश-द्वार को मकर-तोरण कहा गया है, क्योंकि उनके ऊपर मकर मुख की आकृति बनी हुई है।
  • कुछ मंदिरों में गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ भी बनाये गये हैं।
  • गर्भगृह के प्रवेश-द्वार पर भी काफी अलंकरण मिलते हैं।
  • मंदिरों के सभी अंग एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से संबद्ध हैं, जिसके फलस्वरूप खजुराहो के मंदिर एक ऐसे पर्वत के समान लगते हैं, जिस पर छोटी-बङी कई श्रेणियाँ होती हैं।…अधिक जानकारी
References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
2. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास, लेखक-  वी.डी.महाजन 

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