इतिहासप्राचीन भारतराजपूत काल

चौलुक्य (सोलंकी) स्थापत्य का इतिहास

सोलंकी शासक उत्साही निर्माता थे तथा उनके काल में अनेक मंदिर एवं धार्मिक स्मारक बनवाये गये। मंदिर निर्माण के कार्य में उनके राज्यपालों, मंत्रियों एवं धनाढ्य व्यापारियों ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस प्रकार संपूर्ण समुदाय की कार्यनिष्ठा एवं प्रत्येक व्यक्ति की लगन के फलस्वरूप इस समय गुजरात के अन्हिलवाङ तथा राजस्थान के आबू पर्वत पर कई भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया गया ये मुख्यतः जैन धर्म से संबंधित मंदिर हैं।

सोलंकी शासकों का राजनैतिक इतिहास

सोलंकी काल के मंदिरों में तीन भाग दिखाई पङते हैं-

  1. पीठ या आधार- इसके ऊपरी भाग पर पूरा निर्माण टिका हुआ है। इसमें कई ढलाइयाँ हैं, जो विविध अलंकरणों से युक्त हैं। राक्षस (श्रृगाररहित सिर), गजपीठ, अश्व तथा मानव आकृतियाँ आदि उत्कीर्ण हैं।
  2. मंडोवर अर्थात् मध्यवर्ती भाग- यह पीठ तथा शीखर के मध्य होता था और मंदिर का प्रमुख भाग माना जाता था। इसकी लंबवत् दीवारों में ताख बने हैं, जिनमें देवी-देवताओं, नार्तिकाओं आदि की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं।
  3. मीनार या शिखर-यह मंदिर का सबसे ऊपरी भाग है, जो नागरी शैली में हैं। इसके चारों ओर उरुश्रृंगों (गर्भगृह की मीनार पर चारों ओर बना शिखरनुमा आकार) का समूह बनाया गया है।

मंदिरों का निर्माण ऊँचे चबूतरे पर किया जाता था। सामान्यतः उनमें एक देवालय तथा एक कक्ष होता था तथा प्रवेश द्वार पर बरसाती नहीं रहती थी। ऊपरी शिखर खजुराहो के समान अनेक छोटी-छोटी मीनारों से सुसज्जित रहता था तथा छतें रोङादार गुंबदों जैसी होती थी। इन भीतरी छतों पर खोदकर चित्र बनाये जाते थे, ताकि वे एक वास्तविक गुंबद जैसे प्रतीत हो सकें।

गुजरात के प्रमुख मंदिरों में मेहसाना जिसे में स्थित मोडेहरा का सूर्य मंदिर उल्लेखनीय है। इसका निर्माण 11वीं शती में हुआ था। अब यह मंदिर नष्ट हो गया है। इसका निर्माण ऊँचे चबूतरे पर किया गया है। निर्माण में सुनहरे बलुए पत्थर लगे हैं। इसमें स्तंभों पर आधारित खुला द्वार मंडप है। इसके दंतुरित मेहराब भव्य एवं सुंदर हैं। पाटन स्थित सोमनाथ के मंदिर का भी उल्लेख किया जा सकता है, जिसका पुनर्निर्माण इस काल में हुआ। इस वंश के शासक कर्ण ने अन्हिलवाङ में कर्णमेरू नामक मंदिर बनवाया था। सिद्धपुर स्थित रुद्रमाहाकाल का मंदिर भी वास्तु कला का सुंदर उदाहरण है। गुजरात में अन्हिलवाङ के निकट सुनक स्थित नीलकंठ महादेव मंदिर भी एक विशिष्ट रचना है। इसी का समकालीन काठियावाङ का नवलाखा मंदिर कलात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट है।

आबू पर्वत पर कई मंदिर बनाये गये हैं।यहाँ दो प्रसिद्ध संगमरमर के मंदिर हैं।जिन्हें दिलवाङा कहा जाता है।सोलंकी नरेश भीमदेव प्रथम के मंत्री विमल शाह ने 11वीं शती में विमलशाही नामक मंदिर बनवाया था। अनुश्रुति के अनुसार विमलशाह ने पहले कुंभेराया में पार्श्वनाथ के 360 मंदिर बनवाये थे, किन्तु उनकी दृष्टि देवी अंबा ने किसी बात से नाराज होकर पाँच मंदिरों के सिवाय सभी को जला दिया तथा विमलशाह को दिलवाङा में आदिनाथ का मंदिर बनवाने का आदेश स्वप्न में दिया । उसने परमार नरेश से 56 लाख रुपये में भूमि क्रय कर इस मंदिर का निर्माण करवाया था। इस मंदिर में पचास से अधिक कक्ष बनाये गये हैं।

मंदिर का प्रवेश द्वार गुंबद वाले मंडप से होकर बनाया गया है। जिसके सामने एक वर्गाकार भवन हैं, जिसमें छः स्तंभ तथा दस गज प्रतिमायें हैं। इसके पीछे मध्य में बने मुख्य गर्भगृह में ध्यानमुद्रा में अवस्थित आदिनाथ की मूर्ति है। जिसकी आँखें हीरे की हैं। प्रवेशद्वार पर छः स्तंभ तथा दस गज-प्रतिमायें हैं। इसमें एक विशाल प्रांगण है। यह मंदिर बारीक नक्काशी तथा अद्भुत मूर्तिकारी के लिये प्रसिद्ध है। पाषाण शिल्पकला का इतना बढिया उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। मंदिर का बाहरी भाग अत्यंत सादा है, किन्तु भीतर का अलंकृत है। श्वेत संगमरमर के गुम्बद का भीतरी भाग, दीवारें, छतें तथा स्तंभ सभी पर नक्काशी मिलती है। मूर्तिकारी में विविध प्रकार के फूल-पत्ते, पशु-पक्षी, मानव आकृतियाँ आदि इतनी बारीकी से उकेरी गयी हैं, मानों शिल्पियों की छेनी ने कठोर संगमरमर का मोम बना दिया हो।

विमलशाही मंदिर के समीप ही दूसरा मंदिर स्थित है। इसे तेजपाल ने बनवाया था। निर्माता के नाम पर ही इसे तेजपाल मंदिर कहा जाता है। यह भी भव्य तथा सुंदर है। मंदिर में ठोस संगमरमर की लटकन है, जो स्फटिकमणिसे बनी प्रतीत होती है। उसके चारों ओर गोलाई में खोदकर कमल पुष्प बनाया गया है। लंबवत पाषाण पर खुदी हुई अनेक आकृतियाँ मनोहर हैं। गर्भगृह में नेमिनाथ की प्रतिमा स्थापित है तथा कक्ष के द्वार मंडपों पर उनके जीवन से ली गयी अनेक गाथायें उत्कीर्ण हैं। कलाविद् फर्ग्गुशन के शब्दों में केन्द्रीय गुंबद अधखिले कमल के समान दिखाई देता है। जिसकी पंखुङियाँ इतनी पतली, पारदर्शक तथा कुशलता से उकेरी गयी हैं, कि उनकी प्रशंसा करते हुये नेत्र रुक जाते हैं।

विमलशाही तथा तेजपाल मंदिरों के अलावा आबू पर्वत पर कुछ अन्य जैन मंदिर भी मिलते हैं। पर्वत शिखर पर मंदिर निर्माण की होङ सी लगी हुई थी, क्योंकि उत्तुंग पर्वत स्थान को देवता के आवास के लिये सबसे पवित्र माना जाता था। मंदिर ऊँचे परकोटे से घिरे होते थे, जिनके चारों ओर कोठरियाँ बनी होती थी। कठोरियों में जैन तीर्थंकरों अथवा देवताओं की बैठी प्रतिमायें दिखाई देती हैं। इनके शिखर छोटी मीनारों से अलंकृत हैं। मंदिर की भीतरी छतों पर खोदकर चित्रकारियाँ की गयी हैं। वास्तु की दृष्टि से ये मंदिर बहुत सुंदर तो नहीं हैं,किन्तु सभी मंदिर अपनी सूक्ष्म एवं सुंदर नक्काशी के लिये प्रसिद्ध हैं। इनमें सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हये हैं। कलात्मक होने के साथ-साथ इनके अलंकरण का बाहुल्य दर्शकों को उबा देने वाला प्रतीत होता है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
2. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास, लेखक-  वी.डी.महाजन 

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