पल्लवकालीन महेन्द्र कला शैली (610-640ईस्वी)
पल्लव वास्तु का प्रारंभ वस्तुतः महेन्द्रवर्मन प्रथम के समय से हुआ, जिसकी उपाधि विचित्र चित्र की थी। मंडगपट्ट लेख में वह दावा करता है, कि उसने ईंट, लकङी, लोहा, चूना आदि के प्रयोग के बिना एक नयी वास्तु शैली को जन्म दिया। यह नयी शैली मंडप वास्तु की थी, जिसके अंतर्गत गुहा मंदिरों के निर्माण की परंपरा प्रारंभ हुई।
तोण्डमंडलम् की प्रकृत शिलाओं को उत्कीर्ण कर मंदिर बनाये गये, जिन्हें मंडप कहा जाता है। ये मंडप साधारण स्तंभयुक्त बरामदे हैं, जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गये हैं। इनके पार्श्व भाग में गर्भगृह रहता है। शैव मंडप के गर्भगृह में लिंग तथा वैष्णव मंडप के गर्भगृह में विष्णु प्रतिमा स्थापित रहती थी। मंडप के बाहर बने मुख्य द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियाँ मिलती हैं, जो कलात्मक दृष्टि से उच्चकोटि की हैं। मंडप के सामने स्तंभों की एक पंक्ति मिलती है। प्रत्येक स्तंभ सात फीट ऊँचा है। स्तंभ संतुलित ढंग से नियोजित किये गये हैं तथा दो स्तंभों के बीच समान दूरी बङी कुशलतापूर्वक रखी गयी है। स्तंभों के तीन भाग दिखाई देते हैं। आधार तथा शीर्ष भाग पर दो फीट का आयत है, जबकि मध्यवर्ती भाग अठकोणीय बना है।
स्तंभ प्रायः चौकोर हैं, जिनके ऊपर के शीर्ष सिंहाकार बनाये गये हैं। महेन्द्र शैली के मंडपों में मंडगपट्टु का त्रिमूर्ति मंडप, पल्लवरम् का पञ्चपाण्डव मंडप, महेन्द्रवाङी का महेन्द्रविष्णु गृहमंडप, मामण्डूर का विष्णुमंडप, त्रिचनापल्ली का ललितांकुर पल्लवेश्वर गृहमंडप आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
इस शैली के प्रारंभिक मंडप सादे तथा अलंकरणरहित हैं, किन्तु बाद के मंडपों को अलंकृत करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। पंचपाण्डव मंडप में छः अलंकृत स्तंभ लगाये गये हैं। इन पर कमल फुल्लक, मकर तोरण, तरंग मंजरी आदि के अभिप्राय अंकित हैं। महेन्द्रवर्मन प्रथम के बाद भी कुछ समय तक इस शैली का विकास होता रहा।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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