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प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति के प्रमुख स्थल झूंसी

झूंसी नामक स्थल इलाहाबाद के पूर्व दिशा में लगभग 7 किलोमीटर की दूरी पर गंगानदी के तट पर स्थित है। इसका प्राचीन नाम प्रतिष्ठानपुर मिलता है। मूलतः यहाँ एक ठोस टीला था जो अब बरसाती नालियों तथा लोगों के अतिक्रमण के कारण कई टीलों में विभक्त हो गया है। समुन्द्रकूप नामक टीला जो भूतल से 16 मीटर ऊँचा है, अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित अवस्था में है।

रामायण काल में प्रतिष्ठान चन्द्रवंशी राजाओं की राजधानी थी। इसकी स्थापना इला नामक पौराणिक राजा ने किया। कालिदास ने अपने नाटक विक्रमोर्वशीय का दृश्यांकन यहीं किया था। अभिलेखीय साक्ष्यों से सूचित होता है कि 12वीं शती तक प्रतिष्ठान का महत्व था। प्रतिहार नरेश त्रिलोचनपाल का लेख (1027 ई.) यहाँ से मिलता है जिसमें उसके द्वारा यहाँ के ब्राह्मणों को को भूमिदान दिये जाने का विवरण सुरक्षित है।

गहड़वाल नरेश गोविन्दचन्द्र के दानपत्र (1126 ई.) में भी श्रीप्रतिष्ठान का उल्लेख मिलता है जो प्रयाग क्षेत्र के अन्तर्गत आता था। यह निश्चित नहीं है कि इस नगर का नाम प्रतिष्ठान से झूंसी कैसे हो गया। स्थानीय अनुश्रुतियों के अनुसार यहाँ पर हरबेंग नामक मुर्ख एवं मन्दबुद्धि राजा था। उसके राज्य के चारों ओर अराजकता फैल गयीं जिससे प्रजा आक्रान्त हो गयी। गोरखनाथ तथा उनके शिष्य मत्स्येन्द्रनाथ के शाप से नगर में भीषण अग्निकाण्ड हुआ और यह जलकर भस्म हो गया। इसी के ध्वंसावशेष झूंसी कहे गये जिसका शाब्दिक अर्थ जला हुआ नगर(a burnt town)।

झूंसी के टीलों का उत्खनन एवं अन्वेषण इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग द्वारा समय-2 पर करवाया गया। परिणामस्वरूप यहाँ से मिट्टी के बर्तन एवं मूर्तियाँ, सिक्के, मुहरें, मुद्रायें, ताम्र एवं हाथी दाँत की वस्तुयें आदि प्रान्त हुई है। इनका समय प्रायः एन. बी. पी. से मध्य निर्धारित किया गया है।

झूंसी का पहला उत्खनन मार्च-अप्रैल 1995 ई. में हुआ था जिसमें पाँच सांस्कृतिक कालों की जानकारी हुई-

प्रथम काल

यह प्राक्-एन. बी. पी. कालीन है। यहाँ जमाव 70 सेमीं है। काले पुते, काले चमकीले, काले-लाल मृद्भाण्ड इस काल से मिलते है। कुछ ऐसे लाल बर्तनों के ठीकरे है जिन पर काले रंग में चित्रकारियाँ की गयी है। मुड़ी वारी वाले साधार गहरे कटोरे, छिद्राकिंत बर्तन, एन. बी. पी. भाण्डों के टुकड़े, लघुपाषाणोकरण, हड्डियों के उपकरण आदि मिलते है। कुछ ठीकरों पर गोरे, डोरियों से लहरदार अलंकरण मिलता है। मिट्टी के जले हुए दीपों पर नरकुल की छाप है। गेहूँ, जौ, चावल, मूंग, सरसों आदि के दाने भी मिलते है किन्तु कोई लौह का उपकरण नहीं मिलता है।

द्वितीय काल

उसकी प्रमुख पात्र परम्परा एन. बी. पी. है। कुछ पात्रों खण्डों पर ज्यामितीय आकृतियाँ है। कटोरे, तश्तरियाँ, प्याले, ढ़क्कन, घड़े आदि प्रमुख पात्र है। साथ-2 सादे पुते, लाल, काले-लाल धूसर भाण्ड मिलते है। इस काल के लोग पक्की ईंट तथा गारे से मकान बनाते थे तथआ उस पर टट्टर डालते थे। इस काल की अन्य उपलब्ध वस्तुयें है- आहत लेख रहित ढले हुए ताम्र सिक्के, मृण्मुहरें एवं मुद्रा-छापें, मिट्टी की पशु आकृतियाँ, लौह उपकरण, अर्थ-कीमती पत्थरों के मनके, पाषाण के बटखरे आदि।

तृतीय काल

यह शककुषाण युग से सम्बन्धित है। प्रमुख पात्र परम्परायें हैं- लाल, पालिशदार काले, काले-लाल आदि। विभिन्न आकार-प्रकार के कटोरे, ढ़क्कन, प्याले, तश्तरियाँ, सुराहियां, हड्डियाँ आदि प्रतिनिधि पात्र है। कुछ पात्रों पर त्रिरत्न , नन्दिपद, चक्र जैसी आकृतियाँ है। गोल ताम्र सिक्के, एक अंकित मुहर, मनके, चूड़ियाँ, छोटी-2 मृण्मूर्तियाँ, ताम्र एवं लौह उपकरण, अस्थि नौकें, शंख की वस्तुयें आदि अन्य पुरानिधियां इस काल से प्राप्त होती है।

चतुर्थ काल

यह गुप्तयुगीन है। एक विशिष्ट प्रकार का चाक पर एवं सांचे में ढालकर बनाया गया लाल भाण्ड मिलता है। चित्रकारी एवं डिजाइन युक्त सुराहियां तथा घड़े मिलते है। इस काल में निर्माण के चार स्तर(Structural Phases)है। एक कमरे से सामान्य प्रकार का कलश, तीन बड़े भाण्डारण पात्र मिलते है। अर्धकीमती पत्थर के मनके, मिट्टी की बनी मानव एवं पशुओं की लघु मूर्तियाँ, चक्र, प्रस्तर तथा शंख की चूड़ियाँ, लौह उपकरण, ताम्रपात्र, अंगूठी, हड्डी के नोंक एवं बाणाग्र, प्रस्तर के सिल-लोढ़े आदि इस काल में प्रमुख पुरावशेष है।

पञ्चम काल

इससे कोई आवसीय स्थल नहीं मिलता। समीपवर्ती क्षेत्रों से विभिन्न आवासीय स्तरों की ईंट निर्मित दीवारें पाई गई है। सामान्य प्रकार के लाल बर्तन मिलते है जो पहले से अधिक परिष्कृत एवं पके हुए है। बहुरंगी काचित भाण्ड-सुराही, कटोरे, घड़े, हांडी, ढक्कन, आदि है। अर्थ-कीमती पत्थरों के मनके, पशुओं की छोटी-2 मृण्मूर्तियाँ, पत्ती जैसे लोहे के बाणाग्र, पत्थर के सिल आदि अन्य पुरानिधियां इस काल से सम्बन्धित है। हिन्दू देवता गणेश की छोटी-2 प्रस्तर मूर्तियाँ मिलती है। बहुसंख्यक पाषाण चिप्पियों(Chips) से पता चलता है कि पत्थर तराशने का काम बड़े पैमाने पर किया जाता था।

झूंसी के उत्खनन के फलस्वरूप ताम्राश्म एवं लौहयुगीन संस्कृतियों के नये आयाम प्रकाशित हुए है। भिन्न-2 काल के भवन, छिद्रकूपों, मृण्वस्तुओं, मुहर, सिक्के, मनके, चूड़ियाँ, हाथीदाँत के उपकरण, ताम्र तथा लौह उपकरण आदि प्रमुख रूप से प्राप्त किये गये है।

झूंसी मध्य गंगाघाटी के प्रमुख आद्य-ऐतिहासिक एवं पूर्व ऐतिहासिक स्थलों में से है। इसके कुषाणकालीन स्तर से पता चलाता है कि यहाँ सघन बस्ती वीरान हो गयी जिसकी पुनर्स्थापना पूर्व मध्यकाल में हुई। पता चलाता है कि यहाँ बस्ती एन. बी. पी. काल के शदियों पूर्व बसायी गयी थी। जिसकी तिथि द्वितीय सहस्त्राब्दी के मध्य निर्धारित की जा सकती है।

झूंसी के हेतापट्टी गाँव की खुदाई में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पुरातत्ववेत्ताओं को भी मिट्टी के बर्तन मिले है जिनमें जालियाँ(कार्ड इंप्रेशन) है और बर्तनों की मजबूती के लिए धान की भूसी के इस्तेमाल का भी प्रमाण है। उर्द, धान, मूंग, जौ आदि के दाने मिले है जिसे उस समय की उन्नत खेती से जोड़कर देखा जा सकता है। इसके साथ ही पालतू और जंगली पशुओं की हड्डियाँ भी मिलती है। हथियारों में हड्डियों के बाणाग्र और सेमी प्रेस्ड स्टोन के कुछ नुकीले टुकड़े ही है, जो एक तरह से तब की आबादी की कृषि पर बढ़ती निर्भरता की ओर इशारा करता है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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