इतिहासकल्याणी का चालुक्य वंशदक्षिण भारतप्राचीन भारतबादामी का चालुक्य वंशवेंगी के चालुक्य

चालुक्यों की प्रशासनिक व्यवस्था

बादामी के चालुक्यों ने दो शदाब्दियों तक दक्षिणापथ पर शासन किया था।

राजा

चालुक्यों का राजपद आनुवंशिक होता था। सम्राट प्रशासन की विविध समस्याओं में व्यक्तिगत रुचि लेता था तथा अपने साम्राज्य का दौरा करता था। वहाँ उसके स्तंधावार लगाये जाते थे। इस प्रकार वह नाममात्र का शासक नहीं होता था, अपितु उसकी सत्ता वास्तविक होती थी। याज्ञवल्क्य महोत्साह को राजा का प्रथम गुण बताते हैं। चालुक्य शासकों में यह गुण विद्यमान था। युद्ध के अवसर पर सम्राट स्वयं सेना का संचालन करता था। सामान्यतः सम्राट के बाद उसका ज्येष्ठ
पुत्र ही राजसिंहासन का उत्तराधिकारी होता था, किन्तु उसके अवयस्क होने की स्थिति में सम्राट का भाई शासन का भार ग्रहण करता था। कीर्त्तिवर्मन प्रथम के भाई मंगलेश ने इसी प्रकार राजसिंहासन प्राप्त किया। इस युग में रानियों का भी महत्त्व था। राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था।उन्हें पुराण, रामायण, महाभारत, दंडनीति सहित समस्त शास्त्रों की शिक्षा दी जाती थी। हम उन्हें ताम्रपत्र प्रचलित करवाते हुये तथा दान देते हुये पाते हैं। अपने पतियों के साथ वे स्कंधावार में भी जाती थी। वे विदुषी एवं दानशील होती थी। विक्रमादित्य प्रथम के बङे भाई चंद्रादित्य की रानी विजयाभट्टारिका ने अपने नाम से दो ताम्रपत्र लिखवाये थे। वह एक अच्छी कवयित्री भी थी। विजयादित्य ने अपनी छोटी बहन कुमकुम देवी के कहने पर एक विद्वान ब्राह्मण को एक गाँव दान में दिया था। कीर्त्तिवर्मन द्वितीय की महारानी महादेवी उसके साथ रक्तपुर के स्कंधवार में उपस्थित थी।

मंत्रिपरिषद का उल्लेख नहीं मिलता

चालुक्य लेखों में किसी मंत्रिपरिषद का उल्लेख नहीं मिलता है। प्रशासन में राजपरिवार के सदस्य ही मुख्यतः शामिल थे। राजा अपने परिवार के विभिन्न को उनकी योग्यतानुसार प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करता था। इससे उसे परिवार के सदस्यों का पूरा समर्थन मिल जाता था। राजा के आदेश प्रायः मौखिक होते थे, जिन्हें सचिव लिपिबद्ध कर संबद्ध अधिकारियों या व्यक्तियों के पास भेज देते थे। लेखों में महासान्धिविग्रहिक, विषयपति, ग्रामकूट, महत्तराधिकारिन् आदि केन्द्रीय पदाधिकारियों के नाम दिये गये हैं। इस युग में सामंतवाद का भी अस्तित्व था। चालुक्य शासकों ने विजित प्रांतों में अपने अधीन सामंतों को शासन करने का अधिकार दिया था। आलुप, सिन्द, सेन्द्रक, बाण, गंग, तेलगु-चोड आदि चालुक्यों के सामंत थे। वे समय-समय पर सम्राट को कर देते थे तथा युद्धों के समय अपनी-अपनी सेनायें लेकर सम्राट की सेवा में उपस्थित होते थे। सामंत अपने – अपने क्षेत्रों में स्वतंत्रतापूर्वक शासन करते थे। सामंत अपने नाम के आगे तत्पादपद्मोपजीवी विरुद लगाते थे। उनकी अलग राजधानी होती थी, जहाँ वे अपने दरबार लगाते थे। इनके अपने अलग मंत्री तथा अन्य अधिकारी होते थे। नगर को पट्टण या पुर कहा जाता था। पट्टणस्वामी तथा नगरसेट्टि का उल्लेख मिलता है। कुछ नगर विशेष महत्त्व के थे। बङे नगरों में तीन बङी-बङी सभायें होती थी, जिनमें प्रत्येक को महाजन कहा जाता था। पहली सभा नगर के सामान्य कार्यों, दूसरी ब्राह्मण निवासियों तथा तीसरी नगर सेट्टियों की सभा थी। नगर सभाओं में प्रबंध समितियाँ भी होती थी, जो दैनिक प्रशासन चलाती थी। किन्तु समितियों के सदस्यों के निर्वाचन अथवा उनकी संख्या के विषय में ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं होती है। इस प्रकार प्रशासन उत्तरोत्तर विकेन्द्रित होता जा रहा था। राजकुल के सदस्यों को विभिन्न भागों में राज्यपाल बनाया जाता था।

ग्राम

ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। कुछ लेखों में ग्राम के अधिकारी को गामुंड कहा गया है। उसकी नियुक्ति केन्द्र द्वारा होती थी। कीर्त्तिवर्मन द्वितीय के समय के दो गामुन्डों के विषय में हमें सूचना मिलती है, जिन्होंने एक-एक जैन मंदिर का निर्माण करवाया था। इसके अलावा महाजन का भी उल्लेख मिलता है, जो ग्राम शासन में सहायता करता था। वे गाँवों के प्रशासक तथा सामाजिक -आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित करते थे। विजयादित्य के एक लेख से पता चलता है, कि बेन्नियूर ग्राम का शासन महाजन (महत्तर) ही चलाते थे। विक्रमादित्य के समय के लक्ष्मेश्वर लेख से सरकार तथा ग्राम संस्थाओं के संबंधों की कुछ जानकारी प्राप्त होती है। पता चलता है, कि स्थानीय संस्थाओं के शासन में सरकार तथा ग्राम संस्थाओं के संबंधों की जानकारी मिलती है। पता चलता है, कि स्थानीय संस्थाओं के शासन में सरकारी हस्तक्षेप बहुत अधिक था तथा उसका संचालन राजाज्ञाओं द्वारा ही होता था। समाज के विभिन्न समुदायों में काफी मेलजोल था तथा वे परस्पर सहयोग से कार्य करते थे। अग्रहारों का प्रशासन ब्राह्मणों के जिम्मे था। गाँव के कर्मचारियों को पारिश्रमिक के रूप में कुछ जमीन दी जाती थी। कारीगरों तथा व्यापारियों की अपनी श्रेणियाँ होती थी, जो अपनी आर्थिक स्थिति के कारण काफी महत्त्वपूर्ण थी।

कर प्रणाली

चालुक्य लेखों से तत्कालीन कर प्रणाली के भी संकेत मिलते हैं। लक्ष्मेश्वर लेख में भूमि तथा भवन कर का उल्लेख मिलता है। जिनके पास अपने मकान नहीं थे, उन्हें भी अपनी स्थिति के अनुसार कर देने पङते थे। पुलकेशिन द्वितीय के हैदराबाद दानपत्र में निधि, उपनिधि (निक्षेप), विलप्त (लगान का बंदोबस्त) तथा उपरिकर (अधिभार) का उल्लेख मिलता है। सत्याश्रय शिलादित्य के नौसारी दानपत्र में उद्रग (तहबजारी) तथा परिकर (चुंगी) का उल्लेख हुआ है। इन करों के अलावा विभिन्न प्रकार के धार्मिक कर भी लिये जाते थे। कुछ सामयिक कर भी होते थे। जैसे पुलकेशिन द्वितीय ने बाण राज्य को जीतने के बाद वहाँ के लोगों पर तेरेपोन (सुवर्ण के रूप में कर) लगाया था। विशेष अवसरों पर विद्यालय, मंदिर आदि कुछ संस्थाओं के निर्वाह के लिये अनाज के रूप में उगाही की जाती थी।

कुल लेखों में सिद्धाय पन्नाय, दंडाय का उल्लेख मिलता है।

  • सिद्धाय – परंपरागत करों को सिद्धाय कहते थे।
  • पन्नाय – इस कर से तात्पर्य पण्य से प्राप्त आय या चुंगी से है।
  • दंडाय – जुर्माने के रूप में प्राप्त होने वाली आय को दंडाय कहते थे।

कुछ विशेष अवसरों पर करों में छूट दिये जाने का भी विधान था। चालुक्य नरेश उदार प्रशासक थे तथा उन्होंने विभिन्न नगरों को दान दिये थे।

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