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शैव धर्म के प्रमुख संप्रदाय

शैव धर्म के प्रमुख संप्रदाय

शिव के उपासकों के कई संप्रदाय बन गये। जिनके आधार एवं नियम अलग-अलग थे।
शैव धर्म का उदय कैसे हुआ?

शैव मत के कुछ संप्रदायों का परिचय निम्नलिखित है-

पाशुपत संप्रदाय

यह शैवों का सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है, जिसकी उत्पत्ति ईसा-पूर्व दूसरी शती में हुई थी। पुराणों के अनुसार इस सम्प्रदाय की स्थापना लकुलीश अथवा लकुली नामक ब्रह्मचारी ने की थी। इस संप्रदाय के अनुयायी लकुलीश को शिव का अवतार मानते हैं। इस संप्रदाय के लोग अपने हाथ में एक अगुड या दंड धारण करते थे, जिसे शिव का प्रतीक माना जाता था। इसका प्राचीनतम अंकन कुषाण शासक हुविष्क (द्वितीय शती) की एक मुद्रा पर मिलता है।

गुप्तकाल में भी इस संप्रदाय के अनुयायी थे। चंद्रगुप्त द्वितीय कालीन मथुरा लेख में उदिताचार्य नामक एक पाशुपत मतानुयायी का उल्लेख मिलता है, जिसने दो लिंगों की स्थापना करवायी थी। बाणभट्ट ने कादंबरी में इस संप्रदाय का उल्लेख किया है। तथा लिखा है, कि इसके अनुयायी अपने मस्तक पर भस्म पोतते थे तथा हाथ में रुद्राक्ष की माला धारण करते थे। ह्वेनसांग सिन्ध तथा अहिच्छत्र के लोगों को पाशुपत मतानुयायी कहता है।

राजपूत काल में इस सम्प्रदाय का व्यापक प्रचार था तथा कई शासक इसके पोषक थे। चाहमान विग्रहपाल के एक लेख में पाशुपात संप्रदाय की चर्चा है। कलचुरि-चेदि वंश के शासक भी इस मत के मानने वाले थे। कहीं – कहीं पाशुपत तथा शैव को एक दूसरे का पर्याय बताया गया है। शैव संतों के लिये पाशुपत आचार्य संज्ञा का प्रयोग मिलता है। महेश्वर कृत पाशुपतसूत्र तथा वायु पुराण से पाशुपत संप्रदाय के सिद्धांतों का पता चलता है।

पाशुपत संप्रदाय के अन्तर्गत पाँच पदार्थों की सत्ता को स्वीकार किया गया है-

  1. कार्य- जिसमें स्वतंत्र शक्ति नहीं है उसे कार्य कहा जाता है। इसमें जङ तथा चेतन की भी सत्तायें आ जाती हैं।
  2. कारण –जो सभी वस्तुओं की सृष्टि तथा संहार करता है, यही कारण है। यह स्वतंत्र तत्व है, जिसमें असीम ज्ञान तथा शक्ति होती है। यही परमेश्वर (शिव) है।
  3. योग- इसके द्वारा चित्त के माध्यम से जीव तथा परमेश्वर में संबंध स्थापित होता है। इसके दो प्रकार हैं – क्रियात्मक (जय, तप आदि) तथा अक्रियात्मक (क्रियाओं से निवृत्त होकर तत्व-ज्ञान की प्राप्ति करना।)
  4. विधि- जीव को महेश्वर की प्राप्ति कराने वाले साधन को विधि कहा गया है। मुख्य (चर्या) तथा गौण इसके दो विभेद हैं। शरीर पर भस्म लगाना, मंत्र, जप, प्रदक्षिणा आदि इसके प्रमुख अंग माने गये हैं।
  5. दुःखान्त –इसका अर्थ है, दुःखों से मुक्ति पाना। इसके दो भेद बताये गये हैं- अनात्मक अर्थात् मात्र दुःखों से छुटकारा तता सात्मक अर्थात् ज्ञान और कर्म की शक्ति द्वारा अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करना।

भारत तथा विश्व के कुछ अन्य भागों में आज भी पाशुपत सम्प्रदाय का प्रचार है। नेपाल के काठमाण्डू का पशुपतिनाथ मंदिर आज भी इस मत के श्रद्धालुओं का विशिष्ट केन्द्र है।

कापालिक संप्रदाय

शैव धर्म का दूसरा संप्रदाय कापालिक है, जिसके उपासक भैरव को शिव का उपचार मानकर उनकी उपासना करते हैं। इस मत के अनुयायी सुरा-सुन्दरी का पान करते हैं, जटा-जूट रखते हैं, माँस ग्रहण करते हैं, शरीर पर श्मशान की भस्म लगाते हैं तथा हाथ में नरमुण्ड धारण करते हैं। इसके आचार वीभत्स हैं। इस मत के उपासक अत्यन्त क्रूर स्वभाव के होते हैं। भवभूति के मालतीमाधव नाटक से पता चलता है, कि श्रीशैल नामक स्थान कापालिकों का प्रमुख केन्द्र था। वे नरमुण्डों की माला पहने रहते थे। भैरव को प्रसन्न करने के लिये वे मनुष्यों तक की बलि देते थे।

लिंगायत संप्रदाय

लिंगायत अथवा वीर शैव धर्म का ही एक संप्रदाय था जिसका बारहवीं शता. में दक्षिण भारत (कर्नाटक तथा तेलुगु प्रदेश) में व्यापक रूप से हुआ। इस सम्प्रदाय ने दक्षिण के सामाजिक-धार्मिक जीवन में वास्तविक क्रांति लाने के लिये एक जन-आंदोलन का सूत्रपात किया।

लिंगायत संप्रदाय का संस्थापक बसव कल्याणी के कलचुरि नरेश विज्जल (विजयादित्य, 1145-1167 ई.) का मंत्री था। शैवागम परंपरा के अनुसार इस मत के संस्थापक पाँच ऋषि थे – रेणुकाचार्य, दारुकाचार्य, एकोरामाचार्य, पंडिताराध्य तथा शिवाराध्य। इनका जन्म शिव के पाँच विशिष्ट लिंगों से हुआ था। कुछ लेखक इसके सिद्धांतों को ऋग्वेद तथा उपनिषदों से निःसृत बताते हैं। किन्तु इस प्रकार की मान्यता के लिये कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है।

वास्तविकता यह है, कि हम बसव तथा उसके शिष्य चन्नबासव के आधार पर ही लिंगायत मत के विषय में प्रमाणिक जानकारी प्राप्त करते हैं। बसव का जन्म बीजापुर जिले के वगेवाडी नामक ग्राम में हुआ था। वे मादिराज तथा मादलाम्बिका के पुत्र थे, जो धर्मनिष्ठ ब्राह्मण थे। परंपरा के अनुसार उनका जन्म शैव संप्रदाय के उद्धार के लिये हुआ जो उस समय पतनोन्मुख था। आठ वर्ष की आयु में उन्होंने शैव मत का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया।

उन्होंने अपने को शिव विशेष भक्त बताया तथा घोषणा की कि वे संसार में जाति प्रथा को समाप्त करने के लिये आये हैं। कल्याणी नरेश विज्जल ने उन्हें अपना प्रधानमंत्री, प्रधान सेनापति तथा कोषाध्यक्ष नियुक्त कर दिया। इन पदों पर रहते हुये उन्होंने अपने मत का जोरदार प्रचार किया। इस कार्य में उन्हें अपने योग्य भांजे चन्नबसव की सहायता मिली। इस प्रक्रिया में उन्होंने जैन आदि कुछ धार्मिक सम्प्रदायों पर अत्याचार भी किया।

धीरे-धीरे उनके मतानुयायियों की संख्या बढती गयी तथा उनके संप्रदाय ने एक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। उसके एक कट्टर अनुयायी का नाम एकान्तद रामय्य मिलता है, जिसने इस मत के प्रचार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। फ्लीट महोदय का तो कहना है, कि लिंगायत आंदोलन का वास्तविक जनक यही था तथा बसव ने काफी बाद में इसको राजनैतिक सहायता प्रदान किया था। बसव पुराण से इस बात की पुष्टि होती है।

लिंगायत मत के प्रचारकों ने अपना पूरा साहित्य कन्नङ में लिखा। इसे वचन कहा जाता है। वचन एक दूसरे से पृथक अनुच्छेद है। प्रत्येक के अंत में शिव का कोई न कोई नाम आता है,जिससे उनकी वन्दना की जाती है। प्रायः 200 वीर शैव लेखक हुए, जिनमें कुछ महिलायें भी थी। धन का घमंड, कर्मकाण्ड तथा पुस्तकीय ज्ञान की निस्सारता, जीवन की अनिश्चितता, शिव भक्तों का आध्यात्मिक विशेषाधिकार आदि इनके विषय हैं। लोगों को सांसारिक धन-दौलत एवं सुख के साधनों के परित्याग, संसार में अलिप्तता का जीवन व्यतीत करने तता शिव की शरण में जाने का उपदेश दिया गया है। वचन के उपदेश अत्यन्त उपदेशात्मक, भक्तिपूर्ण तथा सारगर्भित हैं। बसव ने अपना जनेऊ तोङ दिया, वर्णाश्रम धर्म, तप आदि को नकारते हुये मोक्ष का अधिकार सभी जातियों को प्रदान किया।

लिंगायत संप्रदाय के अनुयायी अपने साथ सदा एक छोटा सा शिवलिंग रखते थे। यह सामान्यतः एक चाँदी की डिबिया में रहता था। जिसे वे अपी गहदन में धागे से बांधकर लटकाये रहते थे। ये लिंग तथा नंदि की पूजा करते थे। बसव को नन्दि का अवतार बताया गया है। ये ब्राह्मण-विरोधी हैं तथा मूर्ति पूजा एवं पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते। वेदों की प्रामाणिकता इन्हें मान्य नहीं है तथा यज्ञों के अवसर पर दी जाने वाली बलि का भी ये विश्वास नहीं करते।

इनमें बाल-विवाह को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था तथा विधवा-विवाह को मान्यता दी गयी थी। धार्मिक एवं सामाजिक पाखंडों पर बसव द्वारा दिया गया यह व्यंग उल्लेखनीय है-
बूचङखाने से लाई जाने वाली भेङ उस माला के पत्ते को खाती है, जिससे उसे सजाया जाता है। साँप के मुँह में पङा हुआ ढकेला जाने वाला व्यक्ति दूध और घी पीता है…………. जब वे पत्थर में खुदा हुआ साँप देखते हैं तो उस पर दूध चढाते हैं और यदि जीवित साँप दिखाई देता है, तो वे मारो-मारो चिल्लाते हैं। परमात्मा के सेवक को जो भोजन परोसने पर खा सकता है- वे कहते हैं, भाग जा, भाग जा, परंतु परामात्मा की प्रतिज्ञा को जो खा नहीं सकती – वे भोग लगाते हैं।

लिंगायतों के संगठन में मठों का प्रमुख स्थान था। इस संप्रदाय के सभी सदस्यों के बीच पूर्ण सामाजिक एवं धार्मिक समानता देखने को मिलती है। ऐसा इस्लाम एवं जैन मत के प्रभाव से संभव हुआ। बसव ने तीर्थ-यात्रा, यज्ञ-बलि आदि का विरोध किया। शव-दाह का भी वह विरोधी था तथा मृतकों को समाधिस्थ करने की बात कही। उसके कुछ अनुयायी आज भी भू-समाधिस्थ किये जाते हैं। लिंगायतों के अधिक उदार सामाजिक विचारों के कारण निम्न जाति के लोगों का उन्हें समर्थन प्राप्त हुआ तथा उनके धर्म ने एक लोक धर्म का रूप ग्रहण कर लिया।

ये 63 नायनार संतों के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं। तथा उन्हें अपना तत्व माना गया है। जो पूर्णतया अहंता तथा स्वतंत्र है। सृष्टि की उत्पत्ति शिव से होती है। तथा भक्ति के कारण उसका शिव से तादात्म्य होता है। इस संप्रदाय में लिंग पूजा का विशिष्ट स्थान है।

लिंग के तीन भेद किये गये हैं –

  1. भाव लिंग – यह सर्वश्रेष्ठ परम तत्व है, जो दिक् काल की सीमा से परे है। यह कलाविहीन एवं सत्य स्वरूप है। इसका साक्षात्कार केवल श्रद्धा से किया जा सकता है।
  2. प्राण लिंग – यह कलाविहीन तथा कलायुक्त दोनों ही। इसका ज्ञान सूक्ष्म दृष्टि से हो सकता है। यह सूक्ष्म तत्व है।
  3. इष्ट लिंग – यह स्थूल रूप है, जिसे नेत्रों से देखा जा सकता है।

इन तीनों को क्रमशः सत्, चित् तथा आनंद कहा गया है। लिंग की शक्ति को कला तथा अंग की शक्ति को भक्ति कहा गया है। शिव के दो भेद हैं – अंग स्थल तथा लिंग स्थल। पहला उपास्य तथा दूसरा उपासक (जीव) है। लिंगायतों के अनुसार जो विधिवत उनके मत में दीक्षित होता है, उसे मुक्ति प्राप्त होती है। कुछ विद्वानों की मान्यता है, कि यहाँ लिंग शिश्न का प्रतीक न होकर परमात्मा की प्राप्ति का प्रतीक है।

इस प्रकार लिंगायत संप्रदाय बारहवीं शती में एक सामाजिक-धार्मिक आंदोलन के रूप में प्रवर्तित हुआ, जिसने अपने समकालीन समाज एवं धर्म की कुरीतियों पर जोरदार प्रहार किया। लेकिन इसके बावजूद दक्षिण में वर्णाश्रम धर्म का प्रचलन बना रहा तथा ब्राह्मणों की जातिगत श्रेष्ठता विद्यमान रही। हैदराबाद तथा मैसूर के कुछ भागों में आज भी लिंगायत अपनी सत्ता बनाये हुये हैं।

कश्मीरी शैव संप्रदाय

कश्मीर में शैव धर्म का एक नया संप्रदाय विकसित हुआ, जो सिद्धांत तथा आचार में अन्य संप्रदायों से भिन्न था। यह शुद्ध रूप से दार्शनिक अथवा ज्ञानमार्गी संप्रदाय है, जिसमें कापालिकों के घृणित आचारों जैसे सुरा-सुन्दरी पान, शरीर पर श्मशान की राख लगाना, नरकपाल में भोजन, मानव तथा पशु की बलि चढाना आदि की कटु शब्दों में निन्दा की गयी है। ज्ञान को ही परमात्मा की प्राप्ति का एकमात्र साधन माना गया है।

कश्मीरी शैव मत में शिव को अद्वैत शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। वह सर्वव्यापी है तथा जगत उसी का रूप है। शक्ति के साथ मिलकर वह सृष्टि की रचना करता है। चित्, आनंद, ज्ञान क्रिया, इच्छा – ये उसकी शक्तियाँ मानी गयी हैं। जीव अपने वास्तविक रूप में शिव ही है, किन्तु अज्ञान के कारण उसे वास्तविकता का बोध नहीं हो पाता। अज्ञान का आवरण हटते ही वह शिव की प्राप्ति कर लेता है। यह मोक्ष है। भक्ति की महत्ता को भी इस मत में स्वीकार किया गया है।

उपर्युक्त प्रमुख संप्रदायों के साथ-साथ शैव धर्म में कुछ अन्य संप्रदायों का भी प्रचलना हुआ। दसवीं शती के अंत में मत्स्येन्द्रनाथ ने नाथपंथ नामक संप्रदाय चलाया। इसमें शिव को आदिनाथ मानते हुये नौ नाथों को दिव्य पुरुष के रूप में मान्यता प्रदान की गयी है। इनकी क्रियायें तथा आचार वज्र यानी बौद्धों से मिलते – जुलते हैं। नाथों की साधना-पद्धति में नारी का प्रमुख स्थान है। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में बाबा गोरखनाथ ने इस मत का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार किया था।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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