इतिहासदिल्ली सल्तनतमध्यकालीन भारत

दिल्ली सल्तनत की तकनीकी व आर्थिक स्थिति

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मध्ययुगीन भारत का आर्थिक जीवन मुख्यतः कृषि पर आधारित था, परंतु उसी के साथ-2छोटे स्तर की अन्य आर्थिक गतिविधियों के भी संकेत मिलते हैं। रहट का पहला विस्तृत लिखित विवरण 16वी. शताब्दी के बाबरनामा में मिलता है। सम्भवतः रहट का प्रयोग दिल्ली सल्तनत के युग में ही प्रारंभ हुआ। इस उपकरण का जन्म एवं प्रसार  मूलतः भारत के बाहर पश्चिम में में हुआ।

वस्त्र उद्योग के क्षेत्र में चरखे का यान्त्रिक उपकरण के रूप में बहुत महत्त्व रहा। भारत में इसका ( चरखे ) का पहला लिखित उल्लेख इसामी की फतूह-उस-सलातीन (1350ई.) में मिलता है। भारत में चरखे के वास्तविक उदय का समय 12वी.-14वी. शताब्दी मानना चाहिए।रेशम के कीङे पालने की प्रथा दिल्ली सल्तनत में ही प्रचलित हुई। पूर्व मध्यकाल की तुलना में इस काल में सिक्कों की संख्या में भारी वृद्धि हुई। इस काल में कुछ अन्य तकनीकी आविष्कारों  जैसे कागज आदि का निर्माण भी हुआ। 13वी. शताब्दी में यहाँ मुस्लिम लोग कागज का इस्तेमाल करने लगे थे। अमीर खुसरो ने 13वी. शता. के अंत में कागज के उपयोग का उल्लेख किया है।

इस काल का एक प्रमुख आविष्कार फिरोज तुगलक द्वारा समय-सूचक उपकरणों का प्रयोग है।

उद्योग एवं व्यापार –

7वी.शता.से 10वी.शता. तक का युग भारत तथा अरब जगत के मध्य व्यापारिक संबंधों का स्वर्णकाल कहा जाता है। व्यापारियों के समूह को तुज्जार-ए-खास कहा जाता था। मुहम्मद बिन तुगलक का काल व्यापारिक गतिविधियों के लिए चिरस्मरणीय रहेगा।

हिन्दुस्तान में लोदी शासक स्वयं ही व्यापारी थे।

देश के विभिन्न भागों में व्यापारिक वस्तुओं पर कर प्राप्त करने के लिए चौकियाँ स्थापित की गई थी, जिसका सर्वप्रथम उल्लेख मिनहाजुद्दीन सिराज के तबकाते नासिरी में मिलता है। चार पहिये वाले इक्के का वर्णन भी सल्तनत काल में ही मिलता है। नौका निर्माण का उद्योग इस काल में काफी जोरों पर था।

मध्यकाल में अनेक व्यापारिक मार्गों, सूर्य मंदिर तथा शेख बहाउद्दीन जकारिया की खानकाह होने के कारण मुल्तान सर्वाधिक प्रसिद्ध था। देवल ( गुजरात ) व्यापारिक दृष्टि से मध्यकाल में समृद्ध माना गया है। यह अंतर्राष्ट्रीय बंदरगाह का कार्य करता था।

विदेशी यात्री वार्थेमा ने विभिन्न देशों से प्रतिवर्ष खंभात आने वाले लगभग तीन सौ विदेशी जहाजों का उल्लेख किया है। खंभात का रेशम मूल्यवान वस्तुओं में से एक था जिस पर अलाउद्दीन खिलजी ने नियंत्रण लगा दिया था। अन्हिलवाङा नगर व्यापारियों के लिए तीर्थस्थान के समान था। यहाँ पर बङी संख्या में मुस्लिम व्यापारी निवास करते थे।

देवगिरि के निवासी अधिकतर व्यापारी थे जो रत्नों का व्यापार करते थे। यहाँ के रंग-बिरंगे वस्त्रों की तुलना अमीर खुसरो ने रंग-बिरंगे फूलों से की है।

बंगाल चावल एवं रेशम के लिए प्रसिद्ध था। प्रसिद्ध चीनी यात्री माहुआन वहाँ पर रेशम के कीङे पाले जाने का उल्लेख करता है।

मध्यकाल में बनारस एक विशेष प्रकार की पगङियों के निर्यात के लिए प्रसिद्ध था।

आयात-

घोङे- विभिन्न देशों से मंगाये जाने वाले व्यापारिक माल में घोङों का आयात सर्वोपरि था। इब्नबतूता एवं मार्कों पोलो तुर्किस्तान एवं ईरान से घोङे  के निर्यात का उल्लेख करता है।

अस्त्र-शस्त्र- घोङों के बाद हथियारों का विशेष स्थान था। मुहम्मद बिन तुगलक के काल में सैयद अबुल-हसन अल इबादी राज्य के पैसे से अस्त्रों का व्यापार करता था।

दास- इल्तुतमिश के दरबार में चीनी व्यापारियों द्वारा तुर्कीदास लाने का उल्लेख मिलता है। अलाउद्दीन के काल में  तुर्की दास लङकों एवं लङकियों के आयात का प्रसंग मिलता है। अदन एवं मिस्त्र से बराबर दासों  का व्यापार होता रहता था।

मेवे तथा फल- ईरान से भारत में अंगूर आता था। इब्नबतूता लिखता है कि भारत आने वाले विदेशी यात्रियों द्वारा भेंट में लाई गई वस्तुओं में सूखे मेवे प्रमुख थे।

निर्यात-

लोहा व हथियार- मार्कोपोलो ने लाहौर से इस्पात के निर्यात किये जाने का उल्लेख किया है।

सूती वस्त्र-भारत में सूती वस्त्र उत्तम किस्म का होता था, जिसे अनेक देशों में निर्यात किया जाता था। बाबरनामा में भारतीय श्वेत वस्त्रों की प्रशंसा की गई है।

नील- भारत में नील का उत्पादन बङे पैमाने पर होता था। लाहौर एवं बयाना नील के लिए बहुत प्रसिद्ध थे।

इन सबके अलावा जङी-बूटियाँ, मसाले, शक्कर आदि का निर्यात भी होता था।

सिक्के-

प्रारंभ में दिल्ली सुल्तानों ने भारत में प्रचलित सिक्कों को अपनाया। इसलिए मुहम्मद गौरी के सिक्कों पर उसका नाम तथा दूसरी ओर देवी लक्ष्मी की आकृति अंकित  मिली है।

मुहम्मद बिन तुगलक ने मुद्रा संबंधी महत्त्वपूर्ण प्रयोग किये थे। एडवर्ड टॉमस ने उसे धनवानों का युवराज  कहा है। उसने सोने का नया सिक्का चलाया जिसे इब्नबतूता ने दीनार कहा है। उसने सोने तथा चाँदी के सिक्कों के बदले अदली नामक सिक्के जारी किये जिनका वजन 140 ग्रेन चाँदी के बराबर होता था।

फिरोज तुगलक ने अद्धा एवं बिख नामक क्रमशः आधे एवं चौथाई जीतल के ताँबा और चाँदी मिश्रित दो सिक्के चलाए। ताँबे के सिक्के को सल्तनत काल में दिरहम कहा जाता था।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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