इतिहासराजस्थान का इतिहास

रामस्नेही संप्रदाय क्या था

रामस्नेही संप्रदाय

रामस्नेही संप्रदाय – 18 वीं शताब्दी राजस्थान के राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन के पतन का युग था। सशक्त सार्वभौम केन्द्रीय सत्ता के अभाव में सारा राजनैतिक वातावरण विक्षुब्ध हो रहा था। सामाजिक मान्यताओं का अवमूल्यन हो रहा था। मूल धर्म पर व्रत, उपवास, तीर्थ, पूजा, अनुष्ठान आदि पाखंड का आवरण छा रहा था।

ऐसे विक्षुब्ध वातावरण को शुद्ध करने का कार्य रामस्नेही संप्रदाय ने किया। 18 वीं शताब्दी में राजस्थान में इस संप्रदाय के चार प्रमुख केन्द्र थे – रेण, शाहपुरा, सिंहथल और खेङापा । वे चारों शाखाएँ मूल रूप से रामानंद की शिष्य परंपरा से उत्पन्न हुई थी। इनमें रेण और शाहपुरा की शाखाएँ दुलचासर (बीकानेर) के संत जैमलदास से संबंधित हैं।

इन चारों में रेण और शाहपुरा की शाखाएँ अधिक प्रसिद्ध हैं। रामस्नेही संतों ने राजस्थान और उसके बाहर राम भक्ति की निर्गुण शाखा का व्यापक प्रचार किया था।

संत दरियावजी व रेण के रामस्नेही –

रामस्नेही संप्रदाय

रामानंद की शिष्य परंपरा में 9 वीं पीढी में दांतङा के संत संतदास हुए और संतदास की शिष्य परंपरा में तीसरी पीढी में संत दरियावजी (1676-1758 ई.) और संत रामचरण जी (1719-1798ई.) हुए थे। संत दरियावजी रेण (जोधपुर राज्य में मेङता से 10 मील दूर) के तथा संत रामचरणजी शाहपुरा (मेवाङ)की रामस्नेही शाखा के प्रवर्तक हुए।

संत दरियावजी का जन्म 1676 ई. में जोधपुर राज्य में जैतारण नामक कस्बे में हुआ था। सात वर्ष की आयु में जब उनके पिता का देहांत हो गया तब वे अपनी माता के साथ अपनी ननिहाल रेण आ गये। कुछ समय बाद वे अपने नाना के साथ काशी गये जहाँ वे पंडित स्वरूपानंद से काफी प्रभावित हुए।

अतः यहीं पर इन्होंने फारसी और संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त कर कुरान, गीता, उपनिषद, ज्योतिष आदि का अध्ययन कर लिया। रेण लौट आने के बाद उन्होंने अनुभव किया कि गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। अतः कुछ समय बाद जब दांतङा के संतदासजी के शिष्य पेमादास इनके घर आये, तब दरियावजी ने उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लिया और 1712 ई. में उनके दीक्षित हो गये। तत्पश्चात वे मेङता व रेण के बीच स्थित खेजङा नामक स्थान पर साधना करने लगे और जब साधना परिपक्व हो गयी तब इन्होंने उपदेश देना आरंभ कर दिया।

इन्होंने अनेक स्थानों का भ्रमण किया, जहाँ इनके अनेक शिष्य हो गये। राम-भक्ति का प्रचार करते हुए 1758 ई. में रेण में इनका देहांत हो गया। यहाँ इनका समाधि स्थल बना हुआ है। चैत्र शुक्ला पूर्णमा को यहाँ मेला लगता है।

संत दरियावजी ने गुरू को देवता मानते हुए कहा कि गुरु भक्ति से ही मोक्ष संभव है। भक्ति के समस्त कर्मकाँडों की अपेक्षा राम नाम का स्मरण श्रेष्ठ है तथा पुनर्जन्म के बंधन से मुक्ति पाने का अनुपम साधन भी है। राम शब्द में हिन्दू मुस्लिम समन्वय की भावना बताते हुए उन्होंने कहा कि रा तो स्वयं राम का प्रतीक है और म प्रतीक है – मोहम्मद का, तथा इन दो अक्षरों में ही वेद, कुरान और पुराणों का सार समाहित है।

उन्होंने साधु संगति पर विशेष बल दिया, किन्तु मोक्ष प्राप्त करने के लिए गृहस्थ त्याग आवश्यक नहीं माना। आवश्यक है साधक का कपट रहित होना। दरियावजी ने ब्रह्म में लीन होने की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए कहा है कि निरंतर राम नाम स्मरण से यह नाम नाभि और मेरुदंड तक पहुँच कर पुनः ऊपर की ओर चढता है और त्रिकुटों में पहुँच जाता है और फिर ब्रह्म में लीन हो जाता है, जहाँ साधक के समस्त भ्रमों का अंधकार समाप्त हो जाता है और उसको परम सुख की प्राप्ति होती है।

संत दरिजावदी ने समाज में प्रचलित पाखंडों एवं आडंबरों का खंडन किया। उन्होंने कहा तीर्थ यात्राएँ करने, तीर्थ स्नान करने, जप, तप, व्रत, उपवास, गले में कंठी, हाथ में माला आदि धारण करने से ब्रह्मकी प्राप्ति नहीं हो सकती। समाज में प्रचलित मूर्ति-पूजा, चारों वर्ण, चारों आश्रम, षड् दर्शन आदि सभी मिथ्या हैं तथा वेद व पुराण संसार को भ्रमित करते हैं।

सांख्य और योग, राम के बिना रोग हैं और इन्द्रिय सुख दुखःदायी हैं। संत दरियावजी ने अन्य संतों की भाँति स्री-जाति की निन्दा नहीं की बल्कि उन्होंने तो कहा कि स्री जाति विश्व की जननी है तथा विश्व का पालन पोषण करने वाली है। मनुष्य मूर्खतावश राम को भूल कर दोष नारी को देता है।

संत दरियावजी के 72 शिष्य व 8 शिष्याएँ प्रसिद्ध हैुई जिन्होंने राजस्थान के अनेक कस्बों में अपने केन्द्र स्थापित कर रामस्नेही संप्रदाय का प्रचार किया। दरियावजी के बाद 19 वीं व 20 वीं शताब्दी में उनके शिष्यों प्रशिष्यों ने केवल राजस्थान में ही नहीं बल्कि राजस्थान के बाहर भी रामद्वारों की स्थापना की जहाँ इस शाखा के साधु रहते हैं और रेण को अपना गुरुद्वारा मानते हैं, जो उनकी मुख्य पीठ है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : रामस्नेही संप्रदाय

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