इतिहासराजस्थान का इतिहास

संत शिरोमणि मीरा का इतिहास

मीराबाई – राजस्थान की धरती वीर, भक्ति और श्रृंगार की त्रिवेणी रही है। जिस समय राजस्थान में जाम्भोजी, दादू आदि संतों द्वारा धार्मिक समन्वय और समाज सुधार के लिये प्रयास किये जा रहे थे, उसी समय राजस्थान में सगुण भक्ति रस की धारा प्रवाहित करने वालों में संत शिरोमणि मीराबाई का नाम सर्वोपरि है।

उस भक्त कवयित्री का प्रामाणिक एवं क्रमबद्ध जीवन वृत्त अद्यावधि ज्ञात नहीं हो सका है, फलस्वरूप अनेक किंवदंतियों एवं भ्रांत धारणाओं को अनायास ही पोषण मिल गया है। ऐसी स्थिति में अल्प मात्रा में उपलब्ध ऐतिसाहिक सामग्री तथा अन्य अंतर्साक्ष्यों व बहिर्साक्ष्यों के आधार पर मीरा के जीवन और व्यक्तित्व की एक स्थूल रूपरेखा से ही हमें संतोष कर लेना पङता है। दुर्भाग्य की बात है

कि जिस मीरा के नाम से भक्ति, श्रृंगार और माधुर्य की त्रिवेणी का अविरल स्रोत दिखाई देता है उस नाम के संबंध में भी अनेक क्लिष्ट कल्पनाएँ करके भ्रांति उत्पन्न कर दी है। अनेक विद्वानों ने मीरा नाम को अस्वाभाविक मान कर उसके लिये व्युत्पत्तियाँ ढूँढ निकाली हैं। लेकिन यह नाम कोई अस्वाभाविक नाम नहीं है। स्वयं मीरा ने अपनी रचनाओं में अपने आपको मीरा ही कहा है।

मीराबाई

मीरा के नाम की भाँति उसकी जन्म तिथि भी विवादास्पद है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मीरा का जन्म वि.सं. 1573 माना है, जबकि नरोत्तम दास स्वामी मीरा का जन्म वि.सं. 1555 और 1561 के बीच मानते हैं। डॉ.हीरालाल माहेश्वरी मीरा का जीवन काल वि. सं. 1555से 1603 के बीच मानते हैं। मीरा के कुछ पदों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है

कि मीरा, कबीर, तुलसीदास और अकबर की समकालीन थी, किन्तु कबीर के जन्म और अकबर की मृत्यु के बीच 200 वर्षों से भी अधिक समय का अंतराल होने से यह सत्य प्रतीत नहीं होता। डॉ. पेमाराम ने मेङतिया राठौङों के कुछ गुरुओं की बहियों के आधार पर मीरा का समय 1555 वि. सं. से 1604 वि.सं. (1498-1574ई.) निर्धारित किया है, जो युक्ति संगत प्रतीत होता है।

मीरा का बाल्यकाल और विवाह

मीरा मेङता के राठौङ राव दूदा के पुत्र रतनसिंह की इकलौती पुत्री थी। मीरा का जन्म मेङता से लगभग 21 मील दूर कुङकी नामक गाँव में हुआ था। मीरा की अल्पायु में ही माँ का साया उठ गया, अतः राव दूदा ने मेङता में उसका पालन पोषण किया। राव दूदा कृष्ण भक्त थे तथा परिवार के अन्य सदस्य भी वैष्णव धर्म के अनुयायी थे।

अतः मीरा को घरेलू वातावरण ही भक्तिमय प्राप्त हुआ। राव दूदा ने एक गुर्जर गौङ विद्वान पंडित गजाधर को मीरा का शिक्षक नियुक्त किया। पंडित गजाधर पाठ पूजन के अलावा मीरा को भिन्न-भिन्न कथा, पुराण, स्मृत्तियाँ आदि सुनाया करते थे। फलस्वरूप कुशाग्रबुद्धि वाली मीरा थोङे ही वर्षों में पूर्ण विदुषी हो गयी। 1515 ई. में राव दूदा की मृत्यु के बाद वीरमदेव मेङता का शासक हुआ,

जिसने अपनी भतीजी मीरा का विवाह 1516 ई. में मेवाङ के महाराणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ कर दिया। दुर्भाग्य से विवाह के 7 वर्ष बाद ही कुँवर भोजराज का देहान्त हो गया और मीरा लौकिक सुहाग सुख से वंचित हो गयी। इसी भीषण आघात से मीरा का मन संसार से उचट गया और वह अपना अधिकांश समय सत्संग और भजन कीर्तन में व्यतीत करने लगी। इसके कुछ समय बाद खानवा के युद्ध में उसके पिता रतनसिंह मारे गये

और बाद में उसके श्वसुर महाराणा साँगा का भी देहान्त हो गया। उसके चाचा वीरमदेव को मालदेव ने पराजित कर मेङता से भगा दिया। अतः मीरा को न तो ससुराल में कोई ढांढस बँधाने वाला रह गया और न पीहर में। महाराणा साँगा की मृत्यु के बाद कुँवर रतनसिंह और बाद में विक्रमादित्य मेवाङ के शासक बने। मीरा की वैष्णव धर्म के प्रति आस्था थी तो रतनसिंह और विक्रमादित्य की शैव धर्म में। रतनसिंह और विक्रमादित्य की पहलवानों व तमाशबीनों की संगति थी

तो मीरा की साधु संतों से धर्म चर्चा। इन प्रवृत्तियों को वैधव्य के कङवे घूँट समझकर पी गयी। किन्तु जब उसे दी जाने वाली यातनाओं से उसके भजन कीर्तन में बाधा उत्पन्न होने लगी, तब वह मेङता आ गयी, किन्तु इसी समय वीरमदेव को मालदेव से पराजित होकर मेङता छोङना पङा था, अतः मीरा वृन्दावन चली गयी। यहाँ के रूप गोस्वामी ने स्रियों का मुँह न देखने का प्रण ले रखा था,

मीरा ने उनके प्रण को छुङवाया। राणा की कुटिल चालों के कारण मीरा को वृन्दावन छोङकर द्वारिका जाना पङा। इसी बीच उसके चचेरे भाई जयमल राठौङ ने पुनः मेङता अधिकृत कर लिया और मीरा को द्वारिका से बुलाना चाहा, लेकिन मीरा ने द्वारिका नहीं छोङा। कहा जाता है कि अंत में जयमल ने कुछ पुरोहितों को भेजा, जो मीरा के द्वार पर धरना देकर बैठ गये। तब मीरा मंदिर में गयी और एक भजन गाया जिसका अर्थ था कि, हे प्रभु मैं इस पुनीत धाम को कदापि नहीं त्याग सकती, यह मेरा प्रण है,

साथ ही अनजाने में इन ब्राह्मणों की मृत्यु से ब्रह्म हत्या का दोष भी लगेगा। अतः ऐसा उपाय करो कि मैं अपने प्रण को भी निभा सकूँ और ब्रह्म हत्या से भी बच सकूँ। इस भजन के गाते हुए ही मीरा के प्राण पखेरू उङ गये और द्वारकाधीश की प्रतिमा में विलीन हो गये। इस कहानी में कितना सत्य है, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन अधिकांश साक्ष्यों से इस बात की पुष्टि होती है कि मीरा का देहांत द्वारिका में हुआ था।

मीरा की भक्ति भावना
मीरादासी संप्रदाय
References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : मीरा

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