इतिहासराजस्थान का इतिहास

मीरा की भक्ति भावना

मीरा की भक्ति भावना – मीरा में कृष्ण के प्रति भक्ति-भावना का बीजारोपण बाल्यकाल में ही हो गया था। अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि बचपन में किसी साधु ने मीरा को कृष्ण की मूर्ति दी थी और विवाह के बाद वह उस मूर्ति को चित्तौङ ले गयी। जयमल-वंश प्रकाश में कहा गया है

कि विवाह होने पर मीरा अपने विद्या गुरु पंडित गजाधर को भी अपने साथ चित्तौङ ले आयी थी। दुर्ग में मुरलीधर जी का मंदिर बनवा कर पूजा आदि का समस्त दायित्व पंडित गजाधर को सौंप दिया। इस कार्य के लिये गजाधर को मांडल व पुर में 2,000 बीघा जमीन प्रदान की जो अद्यावधि उसके वंशजों के पास है।

चित्तौङ में वह कृष्ण की पूजा-अर्चना करती रही। किन्तु विधवा होने के बाद तो उस पर विपत्तियों का पहाङ टूट पङा, जिससे उसका मन वैराग्य की ओर उन्मुख हो गया और उसका अधिकांश समय भगवद्-भक्ति और साधु संगति में व्यतीत होने लगा। मीरा का साधु संतों में बैठना विक्रमादित्य को उचित नहीं लगा। अतः उसने मीरा को भक्ति मार्ग से विमुख कर महल की चहारदीवारी में बंद करने हेतु अनेक कष्ट दिये। ज्यों-ज्यों मीरा को कष्ट दिये गये, त्यों-त्यों उसका लौकिक जीवन से मोह घटता गया और कृष्ण भक्ति के प्रति निष्ठा बढती गयी।

चित्तौङ के प्रतिकूल वातावरण को छोङकर वह मेङता आ गयी और कृष्ण भक्ति व साधु संतों की सेवा में लग गयी। मीरा ने अपना शेष जीवन वृंदावन और द्वारिका में भजन कीर्तन और साधु संगति में बिताया। इस प्रकार मीरा की कृष्ण भक्ति निरंतर दृढ होती गयी तथा वृंदावन व द्वारिका पहुँचने तक तो वह कृष्ण को अपने पति के रूप में स्वीकार कर अमर सुहागिन बन गयी।

मीरा की भक्ति भावना

यदि मीरा के पदों का गहन अध्ययन किया जाय तो मीरा की आध्यात्मिक यात्रा तीन सोपानों में दिखाई देती है। पहला सोपान, प्रारंभ में उसका कृष्ण के लिये लालायित रहने का है, जब वह व्यग्र होकर गा उठती है मैं विरहणी बैठी जागूँ, जग सोवे री आली तथा मिलन के लिए वह तङफ उठती है, दरस बिन दूखण लागे नैण। दूसरा सोपान वह है जब उसे कृष्ण भक्ति से उपलब्धियों की प्राप्ति हो जाती है और वह कहती है, पायोजी मैंने रामरतन धन पायो मीरा के ये उद्गार प्रसन्नता के सूचक हैं

और प्रसन्नता में वह पुनः कहती है, साजन म्हारे घरि आया हो, जुगा-जुगारी जोवता, वरहणी पिव पाया हो। तीसरा और अंतिम सोपान है जब उसे आत्म बोध हो जाता है, अँसुवन जल सींच-सींच प्रेम बेल बोई, अब तो बेल फैल गयी आनंद फल होई। सायुज्य भक्ति की चरम सीमा पर खङी मीरा बङे सहज भाव से कहती है मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई। मीरा अपने प्रियतम से मिलकर एकाकार हो गयी है। भक्ति, ईश्वर के प्रति प्रेम रूपा है और प्रेम रूपा भक्ति को प्राप्त करने के बाद न किसी वस्तु की इच्छा रहती है, न शोक रहता है और न द्वेष रहता है और जिसे प्राप्त कर मनुष्य उन्मत्त हो जाता है। मीरा ने वही पा लिया है और मीरा की भक्ति की चरम सीमा भी यही है।

नारी संतों में ईश्वर प्राप्ति हेतु लगी रहने वाली साधिकाओं में मीरा प्रमुख है। उसका भक्ति से ओत-प्रोत साहित्य अन्य भक्तों का भी मार्ग दर्शन करता है।मीरा के काव्य में सांसारिक बंधनों का त्याग एवं ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण भाव मिलता है। उसकी दृष्टि में सुख, वैभव, सम्मान, उच्च पद आदि मिथ्या हैं, यदि कोई सत्य है तो वह है गिरधर गोपाल।

कृष्ण को वह परमात्मा और अविनाशी मानती थी। उसकी भक्ति में ढोंग, आडंबर और मिथ्या मान्यताएँ दिखाई नहीं देती, बल्कि भक्ति का सरलतम मार्ग – स्मरण, नृत्य और गायन थे। मीरा ने ज्ञान पर उतना बल नहीं दिया जितना भावना और श्रद्धा पर । मीरा का काल, वह समय था जबकि हिन्दू मुस्लिम संस्कृतियों का संघर्ष, धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता पनप रही थी। इसलिए उसने बल्लभ संप्रदाय के अनुयायियों से सत्संग तो किया, किन्तु आचार्य जी महाप्रभु की सेविका नहीं बनी।

उसने ज्ञानी एवं योगियों से ज्ञान चर्चा तो की, किन्तु आचार्य जी महाप्रभु की सेविका नहीं बनी। उसने ज्ञानी एवं योगियों से ज्ञान चर्चा तो की, किन्तु जोगी होय जुगत न जाणी, उलट जनम री फाँसी को भी वह नहीं भूली। जीव गोस्वामी के पौरुष को ब्रजभाव के नारीत्व से तो रंगा, किन्तु स्वयं कृष्ण की दासी ही रही। वह किसी संप्रदाय विशेष के घेरे में बंद नहीं हुई। डॉ.भगवानदास तिवारी के अनुसार, मीरा का भक्ति मार्ग साम्प्रदायिक पगडंडी न होकर स्वतंत्र राजमार्ग था।

उसके विचार अतीत और वर्तमान से संबंधित होकर भी मौलिक थे, परंपरा समर्थित होकर भी पूर्णतः स्वतंत्र थे, व्यापक होकर भी सर्वथा व्यक्तिनिष्ठ थे।

मीरा की भक्ति सगुण थी अथवा निर्गुण, इस संबंध में विद्वानों में मिथ्या मतभेद हैं। कुछ विद्वानों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि मीरा योग अथवा नाथ पंथ से प्रभावित थी। लेकिन मीरा के आराध्य के स्वरूप के विषय में कोई भ्रांति नहीं होनी चाहिए। मीरा का संपूर्ण प्रेम और भक्ति सगुण लीलाधारी कृष्ण के प्रति निवेदित हुआ है जिसका गिरधर नाम ही मीरा को सर्वाधिक प्रिय था। ये ही गिरधर गोपाल मीरा के एकमात्र आराध्य देव थे। कुछ विद्वानों ने यह प्रश्न उठाया है कि जैसे राम शब्द भक्तों और संतों के संदर्भ में सगुण और निर्गुण दोनों का ही वाचक है, वैसे ही क्या मीरा का गरिधर भी निर्गुण ब्रह्म का वाचक नहीं हो सकता? किन्तु मीरा ने अपने अनेक पदों में उसी सगुण साकार कृष्ण को ही अपना आराध्य देव स्वीकार किया है तथा अपने आराध्य के सगुण स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है-

बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहिनी मूरति सांवरी सूरति, नैना बने विसाल।
अधर सुधारस मुरली, राजति, उर वैजंती माल।।

अतः मीरा की सगुण भक्ति में हमें कोई संदेह नहीं है। जहाँ कभी भी मीरा ने अपने गिरधर के लिये निर्गुण ब्रह्मवाची उपाधियों का प्रयोग किया है, वहाँ भी उसके साथ कृष्ण का सगुण स्वरूप अभिन्न संश्लिष्ट रहा है। जोगी या जोगिया भी वस्तुतः प्रियतम का ही वाचक है। अतः इन शब्दों को लेकर मीरा का नाथ-पंथ या नाथ-संप्रदाय से संबंध जोङना भी निरर्थक है।

सगुणोपासना का क्षेत्र अधिक व्यापक और विस्तृत होता है। अतः कुछ सगुण भक्तों ने अपने आराध्य के गुणगान करने के लिये उसके विशुद्ध निर्गुण रूप का भी स्तवन किया है, किन्तु एकांगी निर्गुणोपासना में सगुण के लिये कोई स्थान हीं होता। ऐसी स्थिति में यदि मीरा ने भज मन चरण कंवल अविनासी कहकर निर्गुण ब्रह्मवाची अविनासी शब्द का प्रयोग कर भी दिया तब भी उसकी सगुणोपासना पर कोई आँच नहीं आती, क्योंकि इसके साथ ही चरण कंवल शब्दों का प्रयोग भी किया है

जिसमें सगुण कृष्ण की निर्मल छवि ही मुस्कराती है।

मीरा के समय सामंतवादी व्यवस्था अपने पूर्ण उत्कर्ष पर थी, जिसमें परंपरागत आचार-विचारों, रूढियों, जाति भेद तथा वर्ग भेद का महत्त्व था। ऐसी अवस्था में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और नारी के समानाधिकार आदि मूल्यों को कोई स्थान नहीं था। उस प्रचलित व्यवस्था के विरुद्ध मीरा ने विद्रोह का शंखनाद किया जो जन संस्कृति की उत्कर्ष मूलक चेतना का प्रमाण है। अपने विद्रोही स्वर में मीरा ने कहा था –

चोरी करूँ न मारगी, नहीं मैं करूँ अकाज।
पुन्न के मारग चालतां, झक मारो संसार।।

इसमें झक मारो संसार अनीति व्यवस्था के विरुद्ध व्यक्ति स्वातंन्त्रय का स्वर कितनी तीव्रता से फूटा है। वस्तुतः मीरा की काव्य चेतना सामंती परिवेश में पलकर भी लोक धरातल पर विकसित हुई। राजकुल में जन्म लेकर तथा राजकुल की वधु होकर भी मीरा का जीवन अन्तःपुर के प्रकोष्ठ में ही आबद्ध नहीं रहा, बल्कि अपनी व्यापक प्रेमानुभूति एवं भक्तिभावना के कारण उसका व्यक्तित्व अविनासी लोक के साथ एकरूप हो गया। 16 वीं शताब्दी में भक्ति की जिस सरिता का उद्मम मीरा ने किया था, आज भी वह उसी प्रभा से प्रवाहित हो रही है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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