इतिहासमध्यकालीन भारत

दक्षिणी भारत में राजनीतिक विकास

भारत तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया

दक्षिणी भारत में राजनीतिक विकास

राष्ट्रकूट वंश

अशोक के अभिलेख में रठिकों का उल्लेख हुआ है। सातवाहन वंश के नागनिका के नानाघाट अभिलेख में महरठियों का उल्लेख किया गया है। अनंत सदाशिव अल्तेकर के अनुसार राष्ट्रकूट इन्हीं रठिकों की संतान थे। राष्ट्रकूटों के अभिलेख में उनका मूल स्थान लट्टलूर (आधुनिक लादूर, जिला वीदर) माना गया है। किंतु बाद में एलिचपुर (बरार) में इस वंश का राज्य स्थापित हुआ। सन 752 के लगभग दंतिदुर्ग ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।

समनगढ ताम्रपत्रों (754 ई.) तथा एलोरा के दशावतार गुहा लेख के अनुसार उन्होंने माही (महानदी) तथा रेवा नदियों के तट पर युद्ध में कांची, कलिंग, कोसल, श्रीशैल, मालवा, लाट तथा टंक पर विजय प्राप्त की। उन्होंने उज्जयिनी में हिरणगर्भ (महादान) यज्ञ किया। इनकी सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि चालुक्य वंश के कीर्तिवर्मन द्वितीय को परास्त करने के बाद उसके आधिपत्य से मुक्त होना था, जिससे बाद में स्वतंत्र राष्ट्रकूट राज्य की स्थापना हुई। महाराजाधिराज परमेश्वर, परमभट्टारक की उपाधि करके उन्होंने अपनी प्रभुसत्ता घोषित कर दी।

इनके उत्तराधिकारी तथा इनके चाचा कृष्ण प्रथम (शुभतुंग तथा अकाल वर्ष) ने चालुक्यों से युद्ध करके लगभग 760 ई. में चालुक्य राज्य का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया। उन्होंने मैसूर के गांगों की राजधानी मान्यपुर पर कुछ समय के लिये अधिकार कर लिया। युवराज गोविंद को उन्होंने वेंगी के चालुक्यों के विरुद्ध भेजा। सन् 772 तक प्राचीन हैदराबाद राज्य का क्षेत्र उनके आधिपत्य में आ गया।

कृष्ण ने किसी राहप्प नामक शासक को हराया और दक्षिण कोंकण को जीत लिया। इस राजा ने मध्यप्रदेश के संपूर्ण महरठी क्षेत्र को भी हराया और दक्षिण कोंकण को जीत लिया। इस राजा ने मध्यप्रदेश के संपूर्ण महरठी क्षेत्र को भी अपने कब्जे में किया। कृष्ण ने एलोरा का प्रसिद्ध गुहा मंदिर निर्मित कराया किंतु उनका उत्तराधिकारी गोविंद द्वितीय एक निर्बल शासक सिद्ध हुआ।

गोविंद का भाई ध्रुव (धारावर्ष) 780 ई. में स्वयं शासक बन बैठा। उसने गोविंद के सहायक शासकों पर आक्रमण किया। गंग शासक श्री पुरुष मुत्तरस को हराकर उसने युवराज शिवकुमार को बंदी बना लिया और संपूर्ण गंगवाङी पर कब्जा करके कावेरी नदी तक राष्ट्रकूट साम्राज्य की दक्षिणी सीमा का विस्तार कर दिया।

पल्लव नरेश दंतिवर्मन तथा बेंगी नरेश विष्णुवर्धन चतुर्थ ने उनकी शक्ति के सामने नतमस्तक होकर शांति-समझौता कर लिया। दक्कन पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के बाद उन्होंने कन्नौज पर आधिपत्य के लिए उत्तरी भारत का अभियान किया। मालवा पर आसानी से अधिकार करने के बाद उन्होंने झांसी के निकट प्रतिहार वत्सराज को बुरी तरह पराजित किया।

इसके बाद उन्होंने गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र में पाल वंश के शासक धर्मपाल की सेना के पैर उखाङ दिए। उन्हें लूट से अतुल धनराशि प्राप्त हुई पर उन्हें दक्कन की आंतरिक समस्याओं के कारण उत्तर से लौटना पङा। फिर भी ध्रुव के अंतिम समय में राष्ट्रकूट राज्य अपने पूर्ण उत्कर्ष पर था।

ध्रुव ने अपने तीसरे तथा योग्य पुत्र गोविंद तृतीय (जयतुंग प्रभूतवर्ष) के पक्ष में (793 ई.) सिंहासन छोङ दिया। उसने अपने बङे भाई स्तंभ के विद्रोह का दमन कर दिया। साथ ही गंग युवराज श्रीमार को मुक्त कर दिया किंतु विद्रोही कार्यों के कारण उसे फिर कैद कर लिया। उसने पल्लव शासक दंतिग को पुनः अधीनस्थ किया।

795 ई. तक दक्कन में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद उत्तर में कन्नौज के लिये (त्रिपक्षीय संघर्ष के हेतु) प्रस्थान किया। इस समय चक्रायुध तथा उसके संरक्षक धर्मपाल को हराकर प्रतिहार नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज पर कब्जा कर लिया था। संभवतः गोविंद ने बुंदेलखंड में हुए युद्ध में नागभट्ट को पराजित कर दिया था।

नागभट्ट राजपूताना भाग गया एवं चक्रायुध तथा धर्मपाल ने आत्मसमर्पण कर दिया। संजन ताम्रपत्र के अनुसार उसने हिमालय तक सैनिक अभियान किया और मालवा, कोसल, कलिंग, बंग, डाहल तथा प्रक को भी जाती। नर्मदा तट पर लौटकर विंध्य की तलहटी में उसने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया।

दक्कन में गोविंद की अनुपस्थिति के कारण उसके विरुद्ध पल्लव, पांड्य, केरल तथा गंग राजाओं द्वारा बनाए गए संघ को (802 ई.) ध्वस्त कर दिया। वेंगी के शासक को इनकी अधीनता पुनः स्वीकार करनी पङी। कांची पर भी उसका अधिकार हो जाने के कारण श्रीलंका का शासक भी उससे भयभीत हुआ।

राष्ट्रकूट शासकों में गोविंद तृतीय अपने अद्वितीय साहस, कूटनीतिज्ञता, सेनानायकत्व आदि गुणों के कारण सर्वश्रेष्ठ शासक था। उसकी सेना ने कन्नौज से कन्याकुमारी तक वाराणसी से भङोंच तक के विशाल भूभाग पर विजय प्राप्त की थी। उसका काल राष्ट्रकूट शक्ति के चरमोत्कर्ष का काल था।

गोविंद का अल्पव्यस्क उत्तराधिकारी अमोघवर्ष (814-878 ई.) कर्क के संरक्षण में शासक हुआ। 817 ई. में उसे वेंगी के चालुक्य विजयादित्य तथा अनेक सामंतों के भयानक विद्रोह का सामना करना पङा। विद्रोह का दमन करके इस राजा ने विजयादित्य को भी पराजित किया (830ई.) किंतु एक लंबे युद्ध के बाद राष्ट्रकूटों को अपने राज्य से हटाने में गांगों को सफलता प्राप्त हुई।

सिरूर ताम्रपत्र के अनुसार अंग, बंग, मगध, मालवा तथा वेंगी के शासकों ने उसके प्रति सम्मान ज्ञापित किया। वह योग्य शासक होने के साथ ही जिनसेन तथा महावीराचार्य जैसे विद्वानों का आश्रयदाता भी था। वह स्वयं भी विद्वान था। उसने कन्नङ में कविराजमार्ग नामक ग्रंथ की रचना की।

उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी कृष्ण द्वितीय अनेक राज्यों से लगातार युद्ध करता रहा। उसने वेंगी के चालुक्य शासक भीम को दीर्घकालीन युद्ध के बाद हरा दिया। उसे भोज प्रतिहार तथा चोलों से पराजित भी होना पङा। उसके बाद इंद्र तृतीय (914-917ई.) शासक हुआ।

वह कुछ समय तक कन्नौज पर आधिपत्य स्थापित करने में सफल रहा। फिर गोविंद चतुर्थ (927-936ई.) तथा अमोघवर्ष तृतीय (936-939ई.) शासक हुए किंतु इन राजाओं का काल विशेष उल्लेखनीय नहीं है।

इनके बाद कृष्ण तृतीय नामक (939-967ई.) योग्य शासक सिंहासनारूढ हुआ। इस शक्तिशाली राजा ने गांगों की सहायता से चोलों को हराकर कांची तथा तंजवुर पर विजय प्राप्त की। वेंगी को अपने राज्य में शामिल करने में भी सफल रहा और कङे संघर्ष के बाद उसने परमारों से उज्जयिनी को भी जीत लिया।

इतना होने पर भी उसे उत्तरी भारत में विशेष सफलता नहीं मिली। किंतु दक्षिण में रामेश्वरम तक उसने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। उसके उत्तराधिकारी खोटिख (967-972ई.) के काल में सियक परमार ने राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट को लूटा। उसके भतीजे कर्क द्वितीय के समय में चालुक्य तैल द्वितीय ने राष्ट्रकूट राज्य पर अधिकार कर लिया तथा कल्याणी के चालुक्य वंशी राज्य की स्थापना का गौरव भी प्राप्त किया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि लगभग दो सौ वर्षों (753-975 ई.) तक राष्ट्रकूटों ने दक्कन को राजनीतिक एकता प्रदान करने का गंभीर प्रयास किया। इस वंश के अनेक योग्य शासकों में से ध्रुव, गोविंद तृतीय, इंद्र तृतीय ने उत्तरी भारत की राजनीति को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित किया।

प्रतिहार तथा पालों के अनवरत संघर्ष में राष्ट्रकूटों के हस्तक्षेप से ही इनकी आपसी शक्ति असंतुलित हो जाती थी। ए.एस. अल्तेकर के मतानुसार 18 वीं शताब्दी में मराठों के उद्भव से पूर्व राष्ट्रकूटों के समान शक्तिशाली साम्राज्य दक्षिण भारत में कोई दूसरा स्थापित नहीं हुआ।

पल्लव वंश

पल्लव वंश की उत्पत्ति अभी तक इतिहासकारों में विवाद का विषय बनी हुई है। राइस तथा वेकैया ने इन्हें पहलव या पार्थियन नामक विदेशियों की संतान बताया है। काशी प्रसाद जायसवाल ने पल्लवों को वाकाटकों की शाखा का घोषित करते हुए, इन्हें ब्राह्मण जाति का मान लिया है।

उनके अनुसार दोनों ही भारद्वाज गोत्र के थे किंतु तालगुंडा अभिलेख में स्पष्ट रूप से पल्लवार को क्षत्रिय कहा गया है। राजसिंह के वायलूर स्तंभ अभिलेख में पल्लवों का उल्लेख अशोक के पहले हुआ है। इस दृष्टि से विद्वानों के अनुसार पल्लव दक्षिण की किसी आदिम जाति के वंशज हो सकते हैं और उनका अशोक के अभिलेख में उल्लिखित पुलिंद (पलद) होना भी संभव है।

पल्लवों की उत्पत्ति तोंड-मंडलम से भी मानी जाती है। तमिल में टोंडेयर का अर्थ पल्लव होता है। ऐसा अनुमान होता है, कि तोंड-मंडलम के पल्लव सातवाहनों के सामंत के रूप में वहाँ स्थापित हुए। किंतु विचार करने पर पता चलता है, कि सातवाहनों के पतन के बाद ये स्वतंत्र शासक बन गए थे।

ऐसी स्थिति में प्रारंभिक अभिलेखों का तमिल के बजाय प्राकृत भाषा में होना सिद्ध करता है कि सातवाहनों से इनका प्रशासनिक संबंध बहुत गहरा था।

पल्लव शासक

प्रारंभिक पल्लव शासकों के उल्लेख उनके प्राकृत तथा संस्कृत अभिलेखों में प्राप्त होते हैं। किंतु एक शक्तिशाली राज्य का संस्थापक सिंहविष्णु (565-600 ई.) को माना जाता है, जिसके साथ पल्लवों के वैभव काल का भी सामंत होता है। इसके बाद महेंद्रर्मन, नरसिंहवर्मन प्रथम, महेंद्रवर्मन द्वितीय, राजसिंह आदि शासक हुए।

परमेश्वरवर्मन द्वितीय (722-730 ई.) के बाद राजसत्ता के लिये गृह-कलह का अंत करने के उद्देश्य से प्रजा के प्रतिनिधियों ने नंदिवर्मन पल्लवम्म (730-800 ई.) को (बारह वर्ष की अल्पायु में) शासक बनाया। इसलिए उसे राज्य का अपहरणकर्त्ता मानना उचित नहीं है।

यह पल्लव वंश की उपशाखा से संबंधित हिरण्यवर्मन का पुत्र था जिसे सिंहविष्णु के भाई भीमवर्मन का वंशज माना जाता है। गृहकलह की स्थिति से पङोसी राज्य विशेषकर (चालुक्य) लाभ उठाना चाहते थे। इस तथ्य पर पल्लव, चालुक्य तथा पांड्य अभिलेखों से पर्याप्त प्रकाश पङता है। 740 ई. के लगभग चालुक्य विक्रमादित्य द्वितीय ने पल्लवों पर आक्रमण करके कांची पर अधिकार कर लिया किंतु नंदिवर्मन ने उसे शीघ्र ही खदेङ दिया।

पांड्य नरेश राजसिंह प्रथम ने पल्लव की गद्दी के दावेदार चित्रमाय का समर्थन किया और नंदिवर्मन को मुक्त करने के बाद चित्रमाय की हत्या कर दी। साथ ही उसने चालुक्य राजा के पूर्वी भाग पर आधिप्तय स्थापित कर लिया। राष्ट्रकूट नरेश दंतिदुर्ग ने भी 750 ई. में आक्रमण करके कांची पर अपना कब्जा स्थापित किया, किंतु शांति-समझौते के फलस्वरूप अपनी पुत्री रेवा का विवाह नंदिवर्मन के साथ करने के बाद वापस चला गया।

इस प्रकार के प्रमाण मिलते हैं कि राष्ट्रकूट ध्रुव से भी उसे भारी संघर्ष करना पङा था। उसे गंग राज्य के कुछ भाग पर अधिकार करने में भी सफलता प्राप्त हुई थी। इसी प्रकार अनवरत युद्धों से पल्लव शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती गई। युद्धकौशल के साथ इस काल में कला तथा साहित्य के क्षेत्र में यथेष्ट उन्नति हुई। नंदिवर्मन को कलाओं से गहरा लगाव था।

इस अनुराग के फलस्वरूप राजा ने कांची में मुक्तेश्वर मंदिर तथा संभवतः बैकुंठ पेरुमाल मंदिर का भी निर्माण कराया। यह बात स्मरणीय है कि प्रसिद्ध विद्वान और संत तिरुमाल आलवार उसके शासनकाल में भी सुशोभित रहे हैं।

नंदिवर्मन का उत्तराधिकारी उसका पुत्र दंतिवर्मन (800-844 ई.) हुआ जिसका जन्म राष्ट्रकूट राजकुमारी रेवा से हुआ था। अनेक कारणों से राष्ट्रकूटों के साथ पल्लव शासकों का संबंध अच्छा नहीं रहा था। लगभग 804 ई. में राष्ट्रकूट गोविंद तृतीय ने कांची पर आक्रमण किया था। उसके शासन के छठें वर्ष में वरगुण प्रथम तथा श्रीमार ने उस पर आक्रमण करके कावेरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।

नंदिवर्मन तृतीय (844-866ई.) दंतिवर्मन का पुत्र था। पांड्य नरेश श्रीमार श्रीवल्लभ के विरुद्ध गंग, चोल और राष्ट्रकूट शासकों का संघ बनाकर दंतिवर्मन ने उसे तेल्लरु के युद्ध में हरा दिया। किंतु शीघ्र ही पांड्य नरेश ने नंदिवर्मन तथा उसके संघ की सेना को हराकर बदला ले लिया।

नंदिवर्मन ने अपने शक्तिशाली जहाजी बेङे की सहायता से दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों से संपर्क स्थापित किया। उसने तमिल साहित्य की उन्नति को पर्याप्त प्रश्रय दिया। वह पेरु देवनार का आश्रयदाता था।

नृपतुंगवर्मन नंदिवर्मन तृतीय का पुत्र था। बाहूर ताम्रपत्रों के अनुसार उसने पांड्य नरेश श्रीमार को पराजित किया था। उसके बाद उसका पुत्र अपराजित शासक हुआ। उसने अपने चोल सामंत आदित्य की सहायता से पांड्य नरेश वरगुण द्वितीय को हरा दिया। किंतु शीघ्र ही आदित्य ने (893ई.) अपराजित पर आक्रमण करके उसे पराजित करने के बाद मार डाला। इस प्रकार पल्लव राज्य चोल राज्य का भाग बन गया।

ग्यारहवीं एवं बारहवीं शताब्दी के मध्य (चोल-चालुक्य युग)

10 वीं शताब्दी का अंतिम चरण दक्षिण भारत के इतिहास में राजनीतिक दृष्टि से संक्रमण काल था। पहले से सत्तारूढ शक्तियों का पतन हो रहा था और उनका स्थान नवीन उदीयमान शक्तियाँ ले रही थी। उत्तर में अंतिम राष्ट्रकूट नरेश दक्कन द्वितीय को पुराने चालुक्य वंश से संबंधित तैलप द्वितीय ने अपदस्थ करके 973 ई. में कल्याणी के चालुक्य वंश की स्थापना की।

तैलप द्वितीय द्वारा स्थापित चालुक्य साम्राज्य की सीमाएँ उत्तर में कृष्णा से लेकर दक्षिण में वेंगी के चालुक्य साम्राज्य तक फैली हुई थी। आधुनिक आंध्र में स्थित वेंगी के पूर्वी चालुक्यों का राज्य भयंकर अव्यवस्था से ग्रस्त था। 973 से 999 ई. तक आंतरिक कलह और अराजकता के कारण वेंगी का राजसिंहासन लगभग रिक्त रहा। अतंतः राजराज के हस्तक्षेप से यह अव्यवस्था समाप्त हुई।

सुदूर दक्षिण में पल्लवों का नवीं शताब्दी में बङी तीव्र गति से पतन हुआ और नवीं शताब्दी के अंत तक उनकी नाममात्र की शक्ति शेष रह गई। पल्लवों का स्थान शीघ्र ही चोलों ने ले लिया। इसी प्रकार पांड्य भी, जो उत्तर में वेललारु नदी से दक्षिण में कन्याकुमारी तक फैला हुआ था, चोलों के साम्राज्यवादी प्रवाह में आत्मसात हो गया और चोलों के पतन तक पांड्य केवल इतिहास में अपने अस्तित्व की रक्षा मात्र कर पाए।

पश्चिमी समुद्र तट पर चेरों की शक्ति भी इस काल में बहुत कमजोर हो गई थी। चेर (केरल) और चोलमंडलम के मध्य में स्थित कर्नाटक के गांगों की शक्ति पतनोन्मुख थी। चोलों ने पल्लव प्रदेशों को विजित करके 1,000 ई. में कर्नाटक के गांग प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार दसवीं शताब्दी के अंत में दक्षिण भारत में दो महाशक्तियों का उदय हुआ – 1.) कल्याणी के चालुक्य 2.) तंजवुर के चोल।

चोल

चोलों का राजनीतिक उत्कर्ष 10 वीं शताब्दी के मध्य प्रारंभ हुआ तथापि उनका प्रारंभिक इतिहास संगम युग से शुरू होता है। साहित्य में दो चोल नरेशों का प्रमुख रूप से उल्लेख मिलता है – 1.) करिकाल 2.) कोच्चेनगनान। संगमयुगीन चोलों में करिकाल महानतम नरेश था।

उसने अपने अनेक समकालीन नरेशों को पराजित करके कावेरी तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया। परवर्ती शताब्दियों में दक्षिण भारत के आर्थिक विकास में चोलों ने जिस महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया, उसका शुभारंभ करिकाल ने ही किया था। उसके शासनकाल में व्यापार एवं उद्योग समृद्ध स्थिति में थे।

इस समृद्धि में विस्तार करने के लिये करिकाल ने कृषियोग्य भूमि का विस्तार किया। सिंचाई के साधनों में उन्नति करने के लिये तालाबों का निर्माण कराया। इस कार्य ने तमिल प्रदेश के आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

संगम युग के बाद तीन शताब्दियों तक या छठवीं के मध्य तक दक्षिण भारत के इतिहास की स्पष्ट जानकारी नहीं है। छठवीं शताब्दी में तीन शक्तियाँ – बादामी के चालुक्य, कांची के पल्लव और मदुरा के पांड्य दक्षिण भारत में सत्तारूढ रहे। अगले तीन सौ वर्षों का दक्षिण भारत का इतिहास इन्ही तीन शक्तियों के पारस्परिक संघर्ष की कहानी है।

इन तीन शताब्दियों में तिमल प्रदेश के राजनीतिक क्षितिज से चोल लगभग गायब रहे। यह कहना अधिक सही होगा कि इस काल में तमिल चोल कावेरी के आसपास लगभग अज्ञातवास में रहे। परंतु आठवीं शताब्दी के अंत में दक्षिण भारत के इतिहास में जो परिवर्तन आया, उसने चोलों को इतिहास के आलोक में आने का अवसर प्रदान किया।

चालुक्यों का स्थान राष्ट्रकूटों ने ले लिया और पल्लवों पर, जो दक्षिण में अभी तक सर्वाधिक शक्तिशाली थे, उत्तर की ओर से राष्ट्रकूटों और दक्षिण की ओर से पांड्यों के प्रहार होने लगे। ऐसी स्थिति में पल्लवों की शक्ति का पतन होने लगा। पल्लव-पांड्य संघर्ष का वास्तविक लाभ चोलों को मिला और उन्हें इतिहास के आलोक में आने का अवसर प्राप्त हो गया।

चोलों का उत्थान विजयालय (850-87ई.) से प्रारंभ होता है। उसने तांजाय (तंजौर या तंजुवर) पर अधिकार करके नरकेसरी की उपाधि धारण की। पल्लव-पांड्य संघर्ष में पल्लवों का साथ देकर उसने अपनी स्थिति और अधिक सुदृढ कर ली। विजयालय के पुत्र एवं उत्तराधिकारी आदित्य ने भी पांड्यों के विरुद्ध पल्लवों को सहायता प्रदान की।

अंततः पांड्य पराजित हुए और पल्लवों ने अपनी इस विजय से प्रसन्न होकर न केवल तांजाय पर चोल आधिपत्य को मान्यता दे दी, वरन उन्हें कुछ पल्लव प्रदेश भी प्रदान कर दिए। परंतु चोल नरेश आदित्य की महत्वाकांक्षा कावेरी के उत्तरवर्ती समस्त तमिल प्रदेशों को चोल शासन के अंतर्गत एकीकृत करने की थी। परिणामस्वरूप नवीं शताब्दी के अंत में पल्लवों एवं चोलों के मध्य संघर्ष प्रारंभ हो गया।

संभवतः 890 ई. के आसपास आदित्य ने पल्लव नरेश अपराजित को युद्ध में हराकर उसकी हत्या कर डाली। इस विजय से चोलों की प्रतिष्ठा में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। इसके बाद ही आदित्य ने पांड्यों और कलिंग के गांगों को पराजित किया। इस प्रकार लगभग आधी शताब्दी से कम समय में चोल दक्षिण भारत में सर्वाधिक शक्तिशाली हो गए।

आदित्य प्रथम के पुत्र एवं उत्तराधिकारी परांतक ने (907-953 ई.) अपने पिता की साम्राज्यवादी नीति का विस्तार किया और पांड्य प्रदेश मदुरा पर अधिकार कर लिया। पांड्य नरेश राजसिंह चोलों की इस विजय से इतना अधिक आंतकित हुआ कि उसने श्रीलंका के मध्य एक लंबे संघर्ष का प्रारंभ हुआ।

अंत में परांतक ने पल्लवों की रही-सही शक्ति को नष्ट कर उत्तर में नेल्लोर तक के प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। परंतु चोल अधिक समय तक अजेय नहीं रह सके। 949 ई. में राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय ने पश्चिमी गांगों की सहायता से चोलों पर आक्रमण कर दिया और तक्कोलम के युद्ध में चोल बुरी तरह पराजित हुए।

राष्ट्रकूट विजय से चोलों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा को गंभीर आघात लगा। 953 ई. में परांतक की मृत्यु के बाद तीन दशकों का चोल इतिहास अस्पष्ट है। इन तीन दशकों में क्रमशः गंडरादित्य, परांतक द्वितीय और उत्तम चोल सिंहासनारूढ हुए। पर इन शासकों के क्रम के संबंध में अत्यधिक विवाद है।

सन् 985 में राजराज के राज्यारोहण के साथ चोल इतिहास की महानता का युग प्रारंभ हुआ। राजराज के शासन के तीस वर्ष चोल राजवंश के इतिहास के निर्माण के वर्ष थे। सेना और प्रशासन के गठन, कला एवं स्थापत्य, धर्म तथा दर्शन और व्यापार एवं उद्योग सभी क्षेत्रों में राजराज का शासनकाल नवीन प्रगति का सूचक था। उसके शासन के अंतिम वर्षों में चोल साम्राज्य शक्ति एवं वैभव के शिखर पर प्रतिष्ठित हो गया।

राजराज के शासनकाल से चोल अभिलेखों के प्रारूप में भी परिवर्तन आया। उसने अभिलेखों को ऐतिहासिक प्राक्कथन (प्रशस्ति) के साथ प्रारंभ करने की परंपरा का सूत्रपात किया, जिसका उसके उत्तराधिकारियों ने अनुसरण किया। इस ऐतिहासिक प्राक्कथन के कारण चोल अभिलेखों का ऐतिहासिक महत्त्व और अधिक बढ गया।

राजराज ने चोल साम्राज्यवाद को पुनर्जीवित किया। राष्ट्रकूट आक्रमण से चोलों की प्रतिष्ठा को जो क्षति पहुँची थी, राजराज ने न केवल उसकी पूर्ति कर दी, वरन जल एवं थल सेना के विस्तार तथा दक्षिण भारत के अपने समस्त समकालीन राजनीतिक विरोधियों को पराजित कर, उसने चोलों को अजेय शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया।

पांड्य एवं चेर राज्य तथा श्रीलंका पहले से ही चोल विरोधी गठबंधन का निर्माण कर रखा था। राजराज ने इस गठबंधन को भंग करने के लिए सर्वप्रथम चेर प्रदेश पर आक्रमण किया। समकालीन चेर नरेश भास्करवर्मन तिरुवाडि था। चोल सेनाओं ने त्रिवेंद्रम के निकट कंडलूर में चेरों के शस्त्रागार और सैनिक प्रशिक्षण केन्द्रों को नष्ट कर दिया।

चेरों की सैनिक शक्ति के आधार स्तंभ को नष्ट करके, राजराज पांड्यों एवं सिंहालियों के विरुद्ध अपनी शक्ति नियोजित कर सकता था। राजराज ने अब पांड्य प्रदेशों पर आक्रमण कर दिया और पांड्य नरेश अमरभुजंग को पराजित कर मदुरा पर अधिकार कर लिया। पांड्य चेर गठबंधन को समूल नष्ट करने के लिये उसने कुर्ग, कोल्लम और उदगाई पर अधिकार कर लिया। इन विजयों का मुख्य श्रेय राजराज के पुत्र राजेन्द्र को दिया जा सकता है।

राजराज ने उसे सेनानायक का पद एवं महादंडनायक की उपाधि देकर पुरस्कृत किया। तिरुवलंगाडु ताम्रपत्र अभिलेखों में राजराज की इन विजयों का उल्लेख है।

दक्षिण की ओर अब राजराज को केवल श्रीलंका से निबटना शेष रह गया था। श्रीलंका का समकालीन शासक महिन्द पंचम था। वह श्रीलंका में सैनिक विद्रोह के कारण बङी विषम स्थिति में था। राजराज ने इस स्थिति का लाभ उठाकर श्रीलंका पर आक्रमण कर दिया और उत्तरी प्रदेशों पर अधिकार कर लिया।

महिन्द पंचम को भागकर श्रीलंका के दक्षिण जिले रोहण में शरण लेनी पङी। राजराज ने श्रीलंका के विजित प्रदेशों को चोल साम्राज्य का एक नया प्रांत बनाया और इसे मुम्ङि चोलमंडलम नाम दिया। चोल सेनाओं ने श्रीलंका की प्राचीन राजधानी अनुराधापुर को नष्ट कर दिया था, अतः पोलन्नरुआ को नवगठित चोल प्रांत की राजधानी बनाया गया। यह चोलों की पहली सामूहिक विजय थी।

दक्षिणवर्ती विजयों के बाद राजराज उत्तर की ओर बढा और उसने पश्चिमी गांगों के कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। तदुवपरांत उसने कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यों पर आक्रमण करने आरंभ कर दिए। 973 ई. में राष्ट्रकूटों का पतन हो चुका था और उनका स्थान पश्चिमी चालुक्यों ने ले लिया था। इस समय पश्चिमी चालुक्यों पर उत्तर की ओर से मालवा के परमारों और दक्षिण की ओर से चोलों के सैनिक प्रहार हो रहे थे।

चोल सेनाओं ने चालुक्य प्रदेशों पर बार-बार आक्रमण कर उन्हें बुरी तरह नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। सन 1007 के एक चालुक्य अभिलेख में चोल सेनाओं के अत्याचारों का उल्लेख है। परंतु चालुक्य नरेश सत्याश्रय ने चोलों को तुंगभद्रा के दक्षिणी तट से आगे नहीं बढने दिया। अंततः तुंगभद्रा चोलों एवं चालुक्यों के साम्राज्यों की सीमारेखा बन गई।

शीघ्र ही राजराज को वेंगी के पूर्वी चालुक्यों के राज्य में हस्तक्षेप करने का अवसर प्राप्त हो गया। दक्षिण भारत में इस समय चालुक्य के दो राज्य थे – 1.) कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य, 2.) वेंगी के पूर्वी चालुक्य । वेंगी के पूर्वी चालुक्यों का इतिहास सातवीं शताब्दी में उस समय से प्रारंभ होता है जब पुलकेसिन द्वितीय ने अपने विशाल साम्राज्य का दो भागों में विभाजन करके, पूर्वी भाग अपने भाई विष्णुवर्धन को दे दिया।

चालुक्य साम्राज्य का वह नवगठित भाग वेंगी का पूर्वी चालुक्य राज्य कहलाया। वेंगी के पूर्वी चालुक्यों को प्रारंभ से ही पश्चिमी चालुक्यों के विरोध का सामना करना पङा। दसवीं शताब्दी के अंत में एक अचालुक्य जटाचोङ भीम ने वेंगी पर अधिकार कर लिया और वेंगी के दो राजकुमारों ने भागकर पहले कलिंग और फिर तंजौर (चंजुवर) के चोल दरबार में शरण ली।

राजराज ने अपने इन शरणागतों की स्थिति का उपयोग वेंगी के विरुद्ध अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये किया। उसने वेंगी पर आक्रमण करने के लिये इन दोनों को सैनिक सहायता प्रदान की। आखिरकार 991 ई. में जटाचोङ भीम युद्ध में पराजित हुआ और उसकी हत्या कर दी गयी। इस प्रकार राजराज की सहायता से वेंगी में पूर्वी चालुक्य वंश की पुनः स्थापना हुई।

इस घटना के बाद वेंगी के पूर्वी चालुक्यों के साथ चोलों के संबंध बहुत घनिष्ठ हो गए। राजराज ने चालुक्य विमलादित्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह करके इन संबंधों को और अधिक सुदृढ किया। वेंगी के चालुक्यों एवं चोलों के मध्य राजनीतिक विवाहों की श्रृंखला ग्यारहवीं शताब्दी में चलती रही। परंतु पूर्वी चालुक्यों को चोलों के साथ यह मित्रता महँगी पङी, क्योंकि कल्याणी के पश्चिमी चालुक्य इस मित्रता को शंका की दृष्टि से देख रहे थे।

चोलों और पश्चिमी चालुक्यों के मध्य पुरानी शत्रुता के परिणामस्वरूप यह स्वाभाविक भी था। परिणामस्वरूप 1006 ई. में पश्चिमी चालुक्य सेनाओं ने गुंटूर एवं पूर्वी चालुक्य राज्य के अन्य प्रदेशों पर आक्रमण कर दिया।इसके प्रत्युत्तर में राजराज ने पश्चिमी चालुक्य प्रदेशों पर आक्रमण करके उन्हें विनष्ट किया।

राजराज ने अपनी यशस्वी विजयों का समापन मालदीव द्वीपसमूह की विजय से किया। दुर्भाग्य से चोल अभिलेखों में इस सामूद्रिक विजय का स्पष्ट विवरण प्राप्त नहीं होता। पर इस विजय से इतना स्पष्ट है कि राजराज ने चोल जलसेना को बहुत शक्तिशाली बना लिया था।

राजराज ने अपनी विजयों के द्वारा जिस विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था, उसमें तुंगभद्रा तक संपूर्ण दक्षिण भारत और समुद्र पार के देशों में श्रीलंका का उत्तरी भाग एवं मालदीव द्वीपसमूह शामिल थे। वेंगी के चालुक्यों का आंध्र प्रदेश चोलों के सामंत या आश्रित राज्य की भाँति हो गया था।

अतः वेंगी पर चोलों के प्रभाव से शंकित पश्चिमी चालुक्य कुछ सीमित अंतराल के अतिरिक्त, अगले एक सौ पैंतीस वर्षों तक चोलों के साथ निरंतर संघर्ष करते रहे। साथ ही वेंगी के पूर्वी चालुक्य लगभग एक शताब्दी तक चोलों की छत्रछाया में अदृश्य से रहे।

राजराज की श्रीलंका विजय के भी बहुत दूरगामी परिणाम हुए। अनुराधपुर को, जो एक हजार वर्ष से श्रीलंका की राजधानी था, चोल सेनाओं ने नष्ट कर दिया। परिणामस्वरूप चोल शासन के अंतर्गत पोलन्नरुआ का एक नवीन राजधानी के रूप में विकास हुआ। उक्त विजय के बाद चोल संपूर्ण श्रीलंका पर अधिकार करने के लिए निरंतर प्रयास करते रहे। उन्होंने श्रीलंका विजय की स्मृति में वहाँ एक शिव मंदिर का निर्माण भी कराया। श्रीलंका में चाल साम्राज्य के विस्तार के परिणामस्वरूप तमिल स्थापत्य एवं संस्कृति का भी प्रसार हुआ।

राजराज दक्षिण भारत के सर्वाधिक प्रख्यात एवं महानतम सम्राटों में से एक था। उसके व्यक्तित्व में एक महान एवं आदर्श सम्राट के गुण थे। महान विजेता, साम्राज्य निर्माता, योग्य प्रशासक, कला, स्थापत्य एवं विद्या के संरक्षक तथा उदार और सहिष्णु व्यक्ति के रूप में उसे संपूर्ण भारतीय इतिहास में एक आदर्श सम्राट के रूप में याद किया जाता है।

मात्र विजय प्राप्त करना ही उसका लक्ष्य नहीं था वरन विजित प्रदेशों में व्यवस्था एवं प्रशासन की स्थापना को भी उसने समान महत्त्व दिया। उसने 1,000 ई. में भू राजस्व के निर्धारण के लिए भूमि का सर्वेक्षण कराया और उपने संपूर्ण साम्राज्य में स्थानीय स्वशासन को प्रोत्साहन दिया। ग्राम सभाओं और स्वशासित निगमों द्वारा सार्वजनिक धन के संभावित दुरुपयोग को रोकने के लिये उनके हिसाब की जाँच-पङताल की व्यवस्था की गई।

जल एवं थल सेना की शक्ति एवं संगठन का अनुमान राजराज की विजयों से लगाया जा सकता है। चोल स्थापत्य कला के क्षेत्र में भी राजराज का योगदान सर्वथा नवीन है। तंजौर (तंजुवर) में उसके द्वारा निर्मित शिव मंदिर एवं भवन तमिल स्थापत्य के सर्वाधिक सुंदर स्मारकों में हैं। सादगी, समानुपात एवं सौंदर्य का इससे सुंदर समन्वय स्थापत्य में और क्या हो सकता था।

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