इतिहासमध्यकालीन भारत

कल्याणी के चालुक्य शासकों का इतिहास

कल्याणी के चालुक्य – दक्षिण भारत के इतिहास में चोलों की भाँति चालुक्यों का बादामी वंश पर्याप्त विख्यात था। परंतु राष्ट्रकूटों के उत्थान के बाद लगभग दो शताब्दियों तक चालुक्य इतिहास की मुख्य धारा से विलुप्त रहे। सन् 973-74 ई. के दौरान चालुक्य तैल द्वितीय ने राष्ट्रकूटों को अपदस्थ करके एक नवीन चालुक्य वंश की स्थापना की। इस वंश की राजधानी कल्याणी एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर था। कल्याणी के चालुक्य वंश के संस्थापक तैल द्वितीय के पूर्वज राष्ट्रकूटों के सामंत शासक थे। कल्याणी के चालुक्य लगभग दो शताब्दियों तक दक्षिण की प्रभुसत्ता के लिए चोलों के साथ संघर्ष करते रहे।

तैलप, तैलप्प और तैलपय्या नामों से विख्यात तैल द्वितीय राष्ट्रकूटों का सामंत था। अपनी योग्यता के बल पर शीघ्र ही महासामंत हो गया। जिस गति से राष्ट्रकूटों का पतन हुआ, उसी गति से तैल द्वितीय की शक्ति और प्रतिष्ठा में भी अभिवृद्धि होती गयी। मालवा के परमारों द्वारा राष्ट्रकूट साम्राज्य पर आक्रमण और तज्जनित विनाश एवं अव्यवस्था का लाभ उठाकर तैल द्वितीय ने चालुक्यों की प्रभुसत्ता की पुनः स्थापना की। राष्ट्रकूटों के समस्त सामंत शासकों ने भी उसकी प्रभुसत्ता की पुनः स्थापना की। राष्ट्रकूटों के समस्त सामंत शासकों ने भी उसकी प्रभुसत्ता को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार तैल गुजरात के अतिरिक्त समस्त राष्ट्रकूट साम्राज्य का स्वामी हो गया और उसने अश्वमल्ल एवं भुवनैकमल्ल विरुद धारण किए। संभवतः 993 ई. तक उसने मान्यखेद को ही राजधानी रहने दिया।

समरत भूतपूर्व राष्ट्रकूट प्रदेशों पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करने के बाद तैल द्वितीय मालवा मं (जिस पर परमार वंश का शासन था और जो कभी राष्ट्रकूट-साम्राज्य का अंग रह चुका था) अपनी प्रभुसत्ता का विस्तार करना चाहता था। परिणामस्वरूप उसने छह बार मालवा पर आक्रमण किया परंतु हर बार परमार शासक मुंज या उत्पल ने इन आक्रमणों का सफल प्रतिरोध किया। अंततः मुंज ने चालुक्य आक्रमणों से सदैव के लिए मुक्ति प्राप्त करने के लिये गोदावरी को पार कर चालुक्य साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। परंतु मुंज पराजित हुआ और उसे बंदी बनाकर मान्यखेद लाया गया और बाद में उसकी हत्या कर दी गई। परमारों के विरुद्ध सफलता के परिणामस्वरूप तैल द्वितीय ने परमारों के दक्षिण प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। तैल द्वितीय ने पूर्वी चालुक्य साम्राज्य में भी हस्तक्षेप करने का प्रयास किया, जिसके परिणामस्वरूप राजराज चोल के साथ भी उसका संघर्ष हुआ था।

चौबीस वर्ष के शासन के बाद तैल द्वितीय की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र सत्याश्रय (997-1008 ई.) उसका उत्तराधिकारी हुआ। सत्याश्रय को अपने पिता की आक्रामक गतिविधियों का फल भोगना पङा। मालवा के परमार शासक सिंधुराज ने आक्रमण कर उन परमार प्रदेशों पर पुनः अधिकार कर लिया, जिन पर तैल द्वितीय ने मुंज की पराजय के बाद अधिकार कर दिया। परंतु चोलों की ओर से उसे सर्वाधिक कठिन विपत्ति का सामना करना पङा। 1006 ई. में पूर्वी चालुक्य साम्राज्य पर सत्याश्रय के आक्रमण का बदला लेने के लिए राजराज ने अपने पुत्र राजेन्द्र को चालुक्य साम्राज्य पर आक्रमण करने के लिए भेजा। चोल सेनाओं ने चालुक्य प्रदेशों को निर्ममतापूर्वक नष्ट-भ्रष्ट किया और सत्याश्रय को वेंगी के पूर्वी चालुक्य प्रदेशों से पीछे हटना पङा। परंतु सत्याश्रय ने अपने जीवनकाल में चोलों द्वारा अधिकृत चालुक्य प्रदेशों पर पुनः अधिकार कर लिया।

सत्याश्रय के बाद क्रमशः विक्रमादित्य पंचम और अय्यण दोनों ने मिलकर सात वर्ष तक शासन किया। 1015 ई. में अय्यण का अनुज जयसिंह द्वितीय (1015-1043ई.) सिंहासनारूढ हुआ। सिंहासनरूढ होते ही उसे परमारों, कलचुरियों और चोलों के तीन तरफा आक्रमण का सामना करना पङा। परमार नरेश भोज ने मुंज की पराजय और हत्या का बदला लेने के लिए चालुक्य साम्राज्य पर आक्रमण कर उत्तरी कोंकण पर अधिकार कर लिया। वेंगी का प्रश्न चोलों और चालुक्यों के मध्य पहले से ही भयंकर विवाद का विषय बना हुआ था। इन दिनों वेंगी की राजगद्दी के लिये राजराज और उसके सौतेले भाई विजयादित्य के मध्य विवाद चल रहा था। जयसिंह ने राजराज का और राजेन्द्र चोल ने विजयादित्य के मध्य विवाद चल रहा था। जयसिंह ने राजराज का और राजेन्द्र चोल ने विजयादित्य का पक्ष लिया। तज्जनित चोल-चालुक्य संघर्ष में चोलों ने रायचूर दोआब में चालुक्यों को पराजित किया और तुंगभद्रा दोनों राज्यों के मध्य सीमा रही और दोनों के मध्य बीस वर्ष तक शांति रही। इन युद्धों के अलावा जयसिंह द्वितीय के शासनकाल में सामंत शासकों एवं चालुक्य सेनानायकों ने विद्रोह करके और सम्राट की हत्या का षङयंत्र रचकर स्थिति को बहुत अधिक संकटपूर्ण बना दिया। जयसिंह द्वितीय ने इन विरोधी शक्तियों का दमन तो कर दिया, किंतु परवर्ती चालुक्यों के शासन काल में विद्रोहों की यही प्रक्रिया बहुत उग्र हो गयी।

जयसिंह द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र सोमेश्वर प्रथम था। उसे अपने शासन के प्रारंभ से ही चोलों के साथ संघर्ष करना पङा। यह चोल-चालुक्य संघर्ष बीस वर्ष के अंतराल के बाद प्रारंभ हुआ था। चोलों के विरुद्ध अपनी पराजय का अपमान न सह पाने के कारण सोमेश्वर प्रथम ने तुंगभद्रा में डूबकर आत्महत्या कर ली, जिसका पीछे उल्लेख किया जा चुका है।

परंतु सोमेश्वर प्रथम को उत्तर में सफलता प्राप्त हुई। उसने 1055 ई. में मालवा के परमार शासक भोज और इसके बाद त्रिपुरी के कलचुरि शासक लक्ष्मीकर्ण को पराजित करके आधुनिक मध्य प्रदेश के दक्षिणी जिलों पर अधिकार कर लिया।

सोमेश्वर प्रथम की मृत्यु के बाद उसके दो पुत्रों यानी सोमेश्वर द्वितीय एवं विक्रमादित्य के मध्य संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस संघर्ष में विक्रमादित्य ने चोल शासक वीर राजेन्द्र से अपने भाई के विरुद्ध सहायता की याचना की। परिणामस्वरूप वीर राजेन्द्र ने चालुक्य साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। अंततः चोलों के हस्तक्षेप और गोआ के कदंब शासक की मध्यस्थता से विक्रमादित्य को चालुक्य साम्राज्य का दक्षिणी भाग प्राप्त हो गया। इसके बाद वह संपूर्ण चालुक्य साम्राज्य पर अधिकार करने का प्रयास करने लगा। परंतु 1070 ई. में वीर राजेन्द्र की मृत्यु और चोल साम्राज्य के तटवर्ती क्षेत्रों में अव्यवस्था के परिणामस्वरूप उसे अपने प्रयासों में सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। इतना सब होने पर भी उसने चालुक्य सामंत शासकों की सहायता से सोमेश्वर द्वितीय का राजसिंहासन छीनने का प्रयास किया। सोमेश्वर द्वितीय ने निराशाजनक स्थिति में चोल शासक कुलोत्तुंग प्रथम से विक्रमादित्य के विरुद्ध सहायता की याचना की। इन दोनों की संयुक्त सेनाओं ने विक्रमादित्य को पराजित किया। किंतु कुलोत्तुंग प्रथम सोमेश्वर द्वितीय की रक्षा नहीं कर सका। विक्रमादित्य ने उसे बंदी बना लिया और 1070 ई. में स्वयं को सम्राट घोषित कर दिया।

इस प्रकार सोमेश्वर द्वितीय के शासन का दुर्भाग्यपूर्ण अंत हुआ। उसे अपने पतन से पूर्व उत्तर में भी इसी दुर्भाग्य का सामना करना पङा। उसने गुजरात के चालुक्य शासक कर्ण की सहायता से परमार भोज के उत्तराधिकारी जयसिंह को पराजित कर दिया था। इसके प्रत्युत्तर में परमार उदयादित्य ने चौहानों (चाहमानों) की सहायता से चालुक्यों को मालवा से खदेङ दिया।

विक्रमादित्य चतुर्थ (1076-1126ई.)

विक्रमादित्य चतुर्थ – सोमेश्वर चतुर्थ को अपदस्थ करके विक्रमादित्य द्वारा चालुक्यों के राजसिंहासन पर अधिकार किया गया। विक्रमादित्य चतुर्थ कल्याणी के चालुक्य वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक था। उसने सिंहासनारूढ होते ही प्रचलित शक संवत को समाप्त करके एक नवीन – चालुक्य विक्रम संवत को प्रचलित किया। यह संवत् लभगभग आधी शताब्दी तक प्रचलित रहा…अधिक जानकारी

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