इतिहासमध्यकालीन भारत

मालवा के परमार कौन थे

मालवा के परमारपरमार वंश के प्रारंभिक शासक उपेन्द्र, वैरिसिंह प्रथम, सियक प्रथम, वाक्पति प्रथम तथा वैरिसिंह द्वितीय के संबंध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। ऐतिहासिक तथ्यों पर गहराई से ध्यान केन्द्रित करते ही पता चलता है, कि ये संभवतः राष्ट्रकूटों की अधीनता स्वीकार करते थे।

सियक द्वितीय ने सौराष्ट्र के चालुक्यों तथा मालवा के उत्तर प्रश्चिम में स्थित हूणों को भी पराजित किया था। नवसाहसांकचरित के अनुसार उसने हूण स्त्रियों को विधवा कर दिया था। साथ ही उसे चंदेल यशोवर्मन के आक्रमण का सामना करना पङा। 968 ई. में राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय की मृत्यु के बाद उसने अपने राज्य को स्वतंत्र कर लिया। सन् 972 ई. में राष्ट्रकूट खोटिख को हराकर मान्यखेट को उसने जमकर लूटा। संक्षेप में कहा जा सकता है, कि परमार राज्य की स्वतंत्रता बनाए रखने में यह सफल रहा।

मुंज (973-995 ई.)

प्रसिद्ध रचना प्रबंधचिंतामणि के अनुसार मुंज सियक का दत्तक पुत्र था। मुंज एक साहसी योद्धा, पराक्रमी विजेता तथा कुशल प्रशासक था।

कौथेम दानपत्र से पता चलता है, कि मुंज ने हूणों को हराया था। इतना ही नहीं उसने मेवाङ के गुहिल वंश के शासक शक्तिकुमार को हराकर उसके कुछ प्रदेश परमार राज्य में सम्मिलित कर लिए थे (997 ई. का हस्तिकुंड अभिलेख) । उदयपुर अभिलेख के अनुसार मुंज ने कलचुरी वंश के युवराज द्वितीय को हराकर उसकी राजधानी त्रिपुरी पर भी अधिकार किया था। उत्पल राज (मुंज) ने (कौथेम अभिलेख) नाडोल के चौहान बलिराज पर आक्रमण किया तथा उसने आबू पर्वत के क्षेत्र पर अधिकार स्थापित कर लिया। ऐसा साक्ष्य भी मिलता है कि मुंज ने गुजरात के चालुक्य मूलराज प्रथम को पराजित किया था। इन सफलताओं के साथ ही उसने लाट प्रदेश पर भी विजय प्राप्त की थी।

कल्याणी के चालुक्य नरेश तैल द्वितीय को मुंज ने छह बार पराजित किया, किंतु सातवीं बार युद्ध में बंदी बना लिया गया और उसे अपमानित करके उसकी हत्या कर दी गई। इस घटना का विस्तृत उल्लेख अभिलेखों और अबुल फजल के आइन-ए-अकबरी में भी मिलता है। मुंज अत्यंत पराक्रमी, कुशल प्रशासक तथा विद्या प्रेमी शासक था। उसके काल में परमार राज्य की सभी क्षेत्रों में उन्नति हुई थी उसका काल परमारों के लिये गौरवशाली युग था। वह कवियों तथा विद्वानों का आश्रयदाता था। उसकी राजसभा में नवसाहसांकचरित का लेखक पद्मगुप्त, दशरूपक का लेखक धनंजय, यशोरूपावलोक के रचयिता धनिक जैसे कवि कलाकार मौजूद थे। वह स्थापत्य कला का प्रेमी तथा निर्माता भी था।

ऐतिहासिक प्रमाणों पर ध्यान देने से यह तथ्य भी ज्ञात होता है, कि मुंज के छोटे भाई सिंधुराज (995-1000 ई.) ने तैल द्वितीय के उत्तराधिकारी सत्याश्रय पर आक्रमण करके अपने भाई की अवमानना का प्रतिकार लिया था और अपने राज्य का विजित प्रदेश चालुक्यों से वापिस ले लिया था। उसने लाट के शासक को हराया किंतु गुजरात के चालुक्य मुंडराज से वह पराजित हो गया। सिंधुराज ने एक नागवंशी शासक (बस्तर क्षेत्र में स्थित) को युद्ध में सहायता देकर उसकी पुत्री शशिप्रभा से विवाह किया। उसने दक्षिण कोसल पर आक्रमण किया। और अपरांत (उत्तरी कोंकण) को अपने राज्य में शामिल कर लिया। उसने हूणों को भी हराया और बागङ के एक विद्रोह का सफलता से दमन किया था।

सिंधुराज के पुत्र तथा उत्तराधिकारी भोज (1000-1055 ई.) को मध्य युग के सुप्रसिद्ध शासकों में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उन्हें युद्ध तथा साहित्य दोनों क्षेत्रों में प्रशंसनीय श्रेय उपलब्ध है।

परमारों की कल्याणी के चालुक्यों से पुरानी शत्रुता थी जिसका उल्लेख भोजचरित में हुआ है। भोज ने तैल द्वितीय को हराकर उसकी हत्या कर दी थी, किंतु गौरी शंकर हीराचंद ओझा तथा गांगुली यह मानते हैं, कि भोज का यह संघर्ष तैल से नहीं सिद्धराज द्वितीय से हुआ था। कुलेनूर अभिलेख के अनुसार इस अभियान में भोज को कलचुरी गांगेय देव और राजेन्द्र चोल से सैनिक सहायता प्राप्त हुई थी। बेलगाँव अभिलेख से पता चलता है, कि चालुक्य जयसिंह ने अपने खोए हुए प्रदेश को उससे वापस ले लिया था। भोज ने इंद्ररथ नामक एक शासक को हराया था जिसे डॉ. गांगुली कलिंग के गंगवंशीय नरेश का सामंत मानते हैं। उन्होंने कीर्तिवर्मन को हराकर लाट तथा शिलाहारवंशीय कोशीदेव से कोंकण के प्रदेश जीत लिए थे। 1008-9 ई. में आनंदपाल को महमूद गजनवी के विरुद्ध उज्जैन के शासक (भोज) ने सैनिक सहायता दी थी। गर्दजी के अनुसार 1025-26 ई. में भी सोमनाथ के विध्वंस के बाद महमूद गजनवी की वापसी के समय परमदेव उस पर आक्रमण के लिये तत्पर था, किंतु महमूद रास्ता बदलकर सिंध की ओर से निकल गया। के.एम.मुंशी ने परमदेव का समीकरण भोज परमार से किया है।

पारिजात मंजरी, उदयपुर प्रशस्ति और कल्वन अभिलेख के अनुसार भोज ने त्रिपुरी के कलचुरी गांगेय देव को भी पराजित किया था। किंतु बुंदेलखंड के चंदेलों तथा ग्वालियर के कच्छपघात वंश के कीर्तिराज के विरुद्ध भोज को सफलता नहीं मिली थी। उदयपुर प्रशस्ति के आधार पर पता चलता है, कि गुर्जर (कन्नौज) के प्रतीहारों के विरुद्ध युद्ध से उन्हें कोई लाभ प्राप्त नहीं हो सका था। उन्होंने शाकंभरी के चौहान नरेश वीर्यराम को पराजित कर उसे मार डाला किंतु नाडोल के चौहानों के विरुद्ध उसे सफलता नहीं मिली। गुहिलों के चित्तौङ पर उनका अधिकार बना रहा। यहाँ उन्होंने त्रिभुवननारायण मंदिर निर्मित किया। गुजरात के चालुक्य चामुंडराज से अपने पिता की हार का बदला लेने के लिए भोज ने उसे अपमानित किया था। इसी वंश के भीम प्रथम द्वारा आबू के परमार शासक धुंधक को हराने के प्रतिकारस्वरूप चालुक्यों की राजधानी अन्हिलवाङ पर आक्रमण करके भोज ने उसे लूटा भी । किंतु कालांतर में कल्याणी के चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम ने भोज को हराकर धारा नगरी को लूटा था। सौभाग्य यही था कि शीघ्र ही भोज का अपने खोए हुए प्रदेश पर पुनः अधिकार हो गया।

भोज ने अपने सारे पङोसी राज्यों से अनवरत युद्ध करके उन्हें पराजित किया था। परिणामस्वरूप गुजरात के चालुक्य भीम प्रथम तथा कलचुरी कर्ण ने एक संघ बनाकर भोज पर आक्रमण कर दिया। भोज युद्ध के दौरान ही बीमार पङे और दिवगंत हो गए। दुर्भाग्य यह रहा कि उसके उत्तराधिकारी जयसिंह ने (1055 ई.) शत्रुओं के अति आत्मसमर्पण कर दिया और मालवा का क्षेत्र उसके हाथ से ही निकल गया।

निस्संदेह भोज परमार एक पराक्रमी सेनानायक तथा योग्य शासक था। लगातार युद्ध द्वारा उन्होंने अपने राज्य की सीमा पर्याप्त विस्तृत कर ली थी। उनके साम्राज्य में मालवा, कोंकण, खानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बाँसवाङा, चित्तौङ और गोदावरी घाटी का कुछ हिस्सा शामिल था। यह बात स्मरणीय है कि उन्होंने प्राचीन राजधानी उज्जैन को छोङकर धारा को अपनी राजधानी बनाया।

भोज एक वीर योद्धा होने के साथ ही महान निर्माता, अद्वितीय विद्या-विज्ञान अनुरागी तथा विद्वानों के एक अत्यंत उदार आश्रयदाता थे। वह स्वयं ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार थे। उन्होंने धारा नगरी को अनेकानेक मनोरम तथा भव्य भवनों से शोभायमान किया। अपने नाम पर उन्होंने भोजपुर बसाया तथा बहुत बङे भोजसार नामक तालाब को निर्मित किया। उनके निर्माण कार्य का उदयपुर प्रशस्ति में विवरण मिलता है कि उन्होंने केदारेश्वर, रामेश्वर, सोमनाथ, सुंडार आदि अनेक मंदिरों का निर्माण कराया था। वह अपनी विद्वता के कारण कविराज उपाधि से विख्यात था। सभरांगण सूत्रधार, सरस्वतीकंठाभरण, सिद्धांत संग्रह, राजमार्तंड, योगसूत्रवृत्ति, विद्याविनोद, युक्ति-कल्पतरु, चारु चर्चा, आदित्यप्रताप सिद्धांत, आयुर्वेद सर्वस्व आदि ग्रंथों की रचना का उन्हें श्रेय है। इन रचनाओं से प्रतीत होता है कि साहित्य-शास्त्र, काव्य, धर्म, दर्शन, ज्योतिष, चिकित्साशास्त्र, वास्तुकला, व्याकरण, राजनीति-शास्त्र, वनस्पति-शास्त्र आदि विषयों के वे बहुश्रुत विद्वान थे। परवर्ती शोधकारों का यह मत भी रहा है कि इनमें से कुछ ग्रंथ उनके सभासद विद्वानों द्वारा रचित हो सकते हैं। आइन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेख के आधार पर भोज की राज सभा में पाँच सौ विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

भोज के उत्तराधिकारी जयसिंह तथा उदयादित्य दोनों ही कल्याणी के चालुक्य तथा गुजरात के चालुक्य शासकों से अपने राज्य की रक्षा के लिये युद्धरत रहे। उनके बाद लक्ष्मणदेव (जगद्देव), नरवर्मन, यशोवर्मन, जयवर्मन, विंध्यवर्मन, सुभटवर्मन आदि शासक हुए। किंतु धीरे-धीरे परमारशक्ति का पतन होता रहा। 1305 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा को अपनी सल्तनत में मिला लिया।

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