इतिहासमध्यकालीन भारत

विक्रमादित्य चतुर्थ (1076-1126ई.) का इतिहास

विक्रमादित्य चतुर्थ – सोमेश्वर चतुर्थ को अपदस्थ करके विक्रमादित्य द्वारा चालुक्यों के राजसिंहासन पर अधिकार किया गया। विक्रमादित्य चतुर्थ कल्याणी के चालुक्य वंश का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक था। उसने सिंहासनारूढ होते ही प्रचलित शक संवत को समाप्त करके एक नवीन – चालुक्य विक्रम संवत को प्रचलित किया। यह संवत् लभगभग आधी शताब्दी तक प्रचलित रहा।

विक्रमादित्य चतुर्थ ने अपने सिंहासनारूढ होने से पूर्व अनेक युद्ध लङे थे, परंतु सत्ता में आने के बाद उसका सुदीर्घ शासनकाल तुलनात्मक दृष्टि से शांतिपूर्ण रहा। अपने शासन के छठे या सातवें वर्ष में उसने अपने भाी जयकेशी के विद्रोह का दमन किया, परंतु चोलों के साथ अधिक समय तक संघर्ष बच नहीं सका। उसने 1085 ई. में कांची पर आक्रमण कर दिया और 1092 ई. में कुलोत्तुंग प्रथम के पुत्र वीर चोल से आंध्र के कुछ प्रदेश छीन लिए। यद्यपि कुलोत्तुग प्रथम ने आंध्र के चोल प्रदेशों पर फिर से अधिकार कर लिया तथापि उसके शासन के अंतिम दिनों में विक्रमादित्य चतुर्त ने इन पर फिर से अधिकार कर लिया।

विक्रमादित्य चतुर्थ

विक्रमादित्य चतुर्थ ने अपने सामंत शासकों की सहायता से द्वारसमुद्र के होयसलों को पराजित करके प्रभुसत्ता के अधीन रहने को बाध्य कर दिया। इससे चालुक्यों और होयसलों के मध्य स्थायी कटुता उत्पन्न हो गयी। होयसलों के बाद उसने उचंगी के पांड्य शासक, गोआ के कदंब जयकेशी और शिलाहारों सहित अन्य सामंत शासकों को दंडित किया। इस प्रकार विक्रमादित्य चतुर्थ के प्रतापी शासन के बावजूद चालुक्यों के सामंत शासकों के विद्रोहों की अग्नि को पूर्णतः शांत नहीं किया जा सका।

विक्रमादित्य चतुर्थ ने मालवा के परमारों के मामले में भी हस्तक्षेप किया। परमार उदयादित्य की मृत्यु के बाद जब उसके तीन पुत्रों में राजसिंहासन के लिये संघर्ष हुआ, तो उसने उदयादित्य के एक पुत्र जगदेव का पक्ष लिया। उसकी सहायता से जगदेव को राजसिंहासन मिल गया, पर शीघ्र ही उसके भाई नखमा ने उससे राजगद्दी छीन ली और जगदेव को चालुक्य दरबार में शरण लेनी पङी।

विक्रमादित्य चतुर्थ के शासनकाल में चालुक्य साम्राज्य की सीमाओं का आंध्र में संभवतः गोदावरी तक विस्तार हुआ। द्वारसमुद्र के होयसल, देवगिरि के यादव, तेलंगाना के काकतीय और गोआ के कदंब शासक उसके सामंत शासक थे। वह विद्या तथा विद्वानों का महान संरक्षक था। विक्रमांकदेवचरित के प्रसिद्ध लेखक विल्हण और याज्ञवल्क्य स्मृति की मिताक्षरा टीका प्रस्तुत हिंदू पारिवारिक कानून संहिता का आधार है। उसके शासनकाल में कल्याणी की गणना भारत के सर्वाधिक प्रख्यात नगरों में की जाती थी। ध्यान रहे उसने विक्रमपुर नामक एक नवीन नगर की भी स्थापना की थी।

विक्रमादित्य चतुर्थ की मृत्यु के तीन दशक बाद चालुक्य वंश का पतन होने लगा। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र सोमेश्वर तृतीय (1126-1138ई.) उत्तराधिकारी हुआ। उसके शासनकाल में होयसलों ने पुनः विद्रोह कर दिया। होयसल शासक विष्णुवर्धन को चालुक्यों ने पराजित कर दिया पर उनकी विद्रोही प्रवृत्ति यथावत बनी रही। कुलोत्तुंग चोल द्वितीय ने 1134 ई. से पूर्वी चालुक्यों से आंध्र के प्रदेश वापस छीन लिए। जब सोमेश्वर तृतीय के उपरांत जगदेकमल्ल (1138-1151 ई.) उत्तराधिकारी हुआ तो गोआ के कदंबों और होयसलों ने चालुक्यों के विरुद्ध पुनः विद्रोह कर दिया। इस बार पुनः इन विद्रोहों को अस्थायी रूप से दबा दिया गया। जगदेकमल्ल ने मालवा पर आक्रमण किया और परमार शासक जयवर्मन को अपदस्थ कर वल्लाल को सिंहासनारूढ किया। मालवा पर आक्रमण के दौरान उसने गुजरात के चालुक्य नरेश कुमार पाल को भी पराजित किया।

इन निरर्थक युद्धों एवं चालुक्यों के सामंत शासकों के विद्रोहों के कारण चालुक्यों की शक्ति तीव्र गति से क्षीण होने लगी। जगदेकमल्ल की मृत्यु के बाद तैल तृतीय (1151-1156 ई.) के शासनकाल में चालुक्य साम्राज्य पूर्णतः विघटित हो गया। सन् 1153 में गुजरात के शासक कुमारपाल और चोल कुलोत्तुंग द्वितीय ने आक्रमण कर दिया। इन आक्रमणों से मुक्त होते ही वारंगल के काकतीयों ने विद्रोह कर दिया। तैल तृतीय जब काकतीय विद्रोह का दमन करने वारंगल गया तो बंदी बना लिया गया। यद्यपि काकतीय शासक पोल ने निष्ठावश उसे मुक्त तो कर दिया, तथापि इससे चालुक्यों की प्रतिष्ठा को भारी आघात लगा। साम्राज्य के अनेक भागों में भी आंतरिक विद्रोह प्रारंभ हो गए। इस स्थिति का लाभ उठाकर चालुक्यों के सामंत शासक कलचुरी वंशीय विज्जल ने सन् 1156 में कल्याणी पर अधिकार करके अपने वंश की स्थापना की। अगले पच्चीस वर्षों तक चालुक्य प्रदेशों पर कलचुरियों का अधिकार रहा। यद्यपि तैल तृतीय के पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ ने लगभग 1184 ई. में कलचुरियों को अपदस्थ करके चालुक्य वंश की पुनः स्थापना की, तथापि वह भी अधिक समय तक शासन नहीं कर सका। शीघ्र ही चालुक्य इतिहास के अंधकार में विलीन हो गए। उत्तरी कर्नाटक पर यादवों ने और दक्षिणी कर्नाटक पर होयसलों ने अधिकार कर लिया। तेलंगाना में काकतीय पहले ही स्वतंत्र हो चुके थे।

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