इतिहासमध्यकालीन भारत

चालुक्य-चोलवंश शासक कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120ई.)

कुलोत्तुंग प्रथम – पूर्वी चालुक्य वंशीय राजेन्द्र द्वितीय या कुलोत्तुंग प्रथम राजराज प्रथम का प्रदौहित्र था। उसकी माता चोल नरेश राजेन्द्र प्रथम की पुत्री थी, जिसका विवाह वेंगी नरेश विक्रमादित्य के साथ हुआ था। वीर राजेन्द्र के शासनकाल में कुलोत्तुंग ने चोल सेनाओं का अनेक क्षेत्रों में सफल नेतृत्व किया था और विशेषतः पश्चिमी चालुक्यों और श्रीविजय के विरुद्ध सैनिक अभियानों में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

कुलोत्तुंग प्रथम के राज्यारोहण के काल से चोल साम्राज्य के इतिहास में एक नवीन युग का प्रारंभ होता है। उसके राज्यारोहण के कुछ समय बाद ही वेंगी का राज्य चोल साम्राज्य का अंग हो गया। कुलोत्तुंग ने निरर्थक युद्धों के बचाव रखते हुए जनकल्याण एवं साम्राज्य की समृद्धि का प्रयास किया। उसकी यह नीति चोल साम्राज्य के स्थायित्व और समृद्धि में प्रमुख रूप से सहायक रही। चोल नरेश पिछली एक शताब्दी से अधिक समय से तुंगभद्रा के उत्तर में साम्राज्य विस्तार का विफल प्रयास कर रहे थे। कुलोत्तुंग प्रथम ने इस विस्तारवादी नीति की निरर्थकता का अनुभव करते हुए, इस महत्वाकांक्षा को तिलांजलि दे दी। उसने असंभावित लक्ष्यों एवं निरर्थक महत्वाकांक्षाओं का परित्याग कर केवल संभावित एवं उपयोगी लक्ष्यों को महत्त्व दिया। परिणामस्वरूप उसने एक शताब्दी तक चोल-साम्राज्य में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखने में योगदान दिया और युद्ध के स्थान पर शांति एवं प्रशासन को शासन का आधार बना दिया।

कुलोत्तुंग ने अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ एवं उक्त नीति का परिचय श्रीलंका के संबंध में दिया। श्रीलंका में महिन्द पंचम के उत्तराधिकारी चोल नियंत्रण से मुक्ति के लिये निरंतर संघर्ष कर रहे थे। विजयबाहु प्रथम ने अधिराजेन्द्र की हत्या के बाद चोल साम्राज्य की अराजक स्थिति का लाभ उठाते हुए श्रीलंका के चोल प्रांत की राजधानी पोलन्नरुआ पर अधिकार कर लिया और श्रीलंका को चोल प्रभुत्व से मुक्त कराते हुए 1073 ई. में पूर्ण रूप से स्वतंत्र शासक के रूप में अपना राज्याभिषेक किया। कुलोत्तुंग ने श्रीलंका में चोल प्रभाव की समाप्ति के प्रति किसी कटुता का प्रदर्शन नहीं किया, वरन इसे एक राजनीतिक यथार्थ के रूप में स्वीकार करते हुए विजयबाहु के साथ समझौता कर लिया और अपनी पुत्री का विवाह सिंहली राजकुमार के साथ कर दिया।

परंतु पश्चिमी चालुक्यों के विरुद्ध संघर्ष से बचना उसके लिये बहुत कठिन था। पश्चिमी चालुक्यों द्वारा वेंगी के पूर्वी चालुक्य साम्राज्य में अपनी शक्ति विस्तार के लिये किए गए सारे प्रयास अब तक विफल रहे थे। अब उसके लिए चोल एवं पूर्वी चालुक्य साम्राज्यों का एकीकरण निराशा एवं सामरिक दृष्टि से भय का कारण हो गया था। कुलोत्तुंग प्रथम के शासनकाल में पश्चिमी चालुक्यों की ओर से चोलों का विरोध विक्रमादित्य षष्ठ ने किया, जिसे वीर राजेन्द्र ने अपने हस्तक्षेप के द्वारा चालुक्य राज्य के एक भाग पर सत्तारूढ किया था तथा चोल राजकुमारी का उसके साथ विवाह किया गया था। विक्रमादित्य षष्ठ के विरोध को निरर्थक करने के लिए कुलोत्तुंग प्रथम ने पश्चिमी चाुलक्यों की दूसरी शाखा के शासक सोमेश्वर द्वितीय के साथ मित्रता एवं सैनिक समझौता कर लिया और दूसरी ओर वेंगी में अपनी सैनिक स्थिति मजबूत कर ली। 1076 ई. में कुलोत्तुंग प्रथम एवं विक्रमादित्य षष्ठ के मध्य खुला संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस युद्ध के परिणामों के संबंध में चोल-चालुक्य अभिलेख परस्पर विरोधी विवरण देते हैं। विल्हण के विक्रमांकदेवचरित ने इस स्थिति को और अधिक भ्रामक बना दिया है। परंतु विभिन्न ऐतिहासिक साक्ष्यों के तुलनात्मक विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह युद्ध निर्णायक नहीं रहा। चोलों ने पश्चिम में कोंकण एवं कुछ कन्नङ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया और चालुक्यों ने उत्तर की ओर अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया। इस संघर्ष की वास्तविक क्षति सोमेश्वर द्वितीय को उठानी पङी। विक्रमादित्य षष्ठ ने उसे युद्ध में बंदी बना लिया और चालुक्य साम्राज्य के उत्तरी भाग पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार चोलों एवं पश्चिमी चालुक्यों के मध्य संघर्ष का पुनः अनिर्णय की स्थिति में ही अंत हुआ।

जब कुलात्तुंग प्रथम श्रीलंका एवं पश्चिमी चालुक्यों के विरुद्ध व्यस्त था, इसी बीच 1073 ई. में त्रिपुरी के कलचुरी शासक यक्षकर्ण ने वेंगी पर आक्रमण कर दिया। किंतु इस आक्रमण का कोई भी राजनीतिक या सैनिक प्रभाव नहीं पङा। चालुक्यों के विरुद्ध व्यस्तता के मध्य ही दक्षिण में उसे पांड्यों के विरोध का सामना करना पङा। पांड्यों ने चोल शासक को कभी भी सहर्ष स्वीकार नहीं किया था और लगभग समस्त चोल शासकों के लिये वे संकट का स्त्रोत बने रहे। वीर राजेन्द्र की मृत्यु के बाद चोल-साम्राज्य की अव्यवस्थित स्थिति का लाभ उठाकर पांड्य दक्षिण में अपनी स्वतंत्रता घोषित करने का प्रयास करने लगे। इन विद्रोहों के कारण दक्षिण में चोल शासन विश्रृंखलित होने लगा। ऐसी स्थिति में कुलोत्तुंग ने अपने शासन के सातवें या ग्यारहवें वर्ष में पांड्य एवं चेर (केरल) प्रदेश की पुनर्विजय करते हुए दक्षिणवर्ती प्रांतों में चोल शासन को पुनर्व्यवस्थित किया।

अपने शासन के अंतिम वर्षों में कुलोत्तुंग को दो बार कलिंग के विरुद्ध युद्ध करना पङा। गोदावरी एवं महेन्द्र पर्वतमालाओं के मध्य में स्थित दक्षिण कलिंग वेंगी के साम्राज्य का अधीनस्थ प्रांत था। वेंगी के चोल साम्राज्य में विलय के बाद दक्षिण कलिंग के सामंत शासकों ने षङयंत्र करके विद्रोह कर दिया। कुलोत्तुंग ने इस विद्रोह का दमन करते हुए इन विद्रोही शासकों को यथास्थिति में रहने के लिये बाध्य किया।

द्वितीय कलिंग अभियान लगभग 1100 ई. में किया गया । इन अभियानों का विशद विवेचन चोल अभिलेखों एवं कलिंगतुप्परणी नामक काव्य में किया गया है। किंतु इनमें वर्णित युद्ध के कारणों एवं घटनाक्रम पर सहज विश्वास नहीं किया जा सकता। कहा जाता है कि उत्तर कलिंग में कलिंगनगर के शासक अनंतवर्मन चोङगंग द्वारा चोल दरबार में वार्षिक कर राशि लेकर उपस्थित न होने के कारण दंडस्वरूप उस पर आक्रमण किया गया। अनंतवर्मन चोल सेनाओं के हाथों पराजित हुआ, किंतु इस द्वितीय कलिंग अभियान का कोई दूरगामी परिणाम दृष्टिगत नहीं हुआ।

कुलोत्तुंग प्रथम ने पूर्वी चालुक्य शासक विजयादित्य को उसके जीवन काल में वेंगी साम्राज्य का शासक बना रहने दिया। परंतु विजयादित्य की मृत्यु के बाद कुलोत्तुंग ने वेंगी के साम्राज्य को चोल साम्राज्य में मिला लिया। उसने अपने पुत्रों में क्रमशः राजराज एवं वीर चोङ को 1076 से 1118 ई. तक वेंगी के महामंडलेश्वर के रूप में नियुक्त किया। इस प्रकार कुलोत्तुंग के शासन के अधिकांश काल में वेंगी चोलों के अधिकार क्षेत्र में रहा। परंतु कुलोत्तुंग प्रथम के शासन के अंतिम वर्षों में पश्चिमी चालुक्य विक्रमादित्य षष्ठ ने वेंगी साम्राज्य के उत्तरी भागों पर अधिकार कर लिया। इस क्षति से चोल साम्राज्य केवल तमिल क्षेत्रों तक ही सीमित रह गया।

कुलोत्तुंग के वैदेशिक संबंध

कुलोत्तुंग की राजनीतिक उपलब्धियों से अधिक महत्त्वपूर्ण विदेशों के साथ चोलों के संबंधों का विस्तार था। चीनी ऐतिहासिक स्त्रोतों में 1077 ई. में कुलोत्तुंग द्वारा चीन में बानवे व्यक्तियों के एक चोल दूत मंडल के भेजने का उल्लेख है। स्पष्टतः यह दूत मंडल एक व्यापारिक शिष्ट मंडल था, जिसे (तमिल व्यापार के लिये) चीन से अधिक सुविधाएँ प्राप्त करने के लिये भेजा गया था। इस शिष्ट मंडिल ने चीनी सम्राट को भारी मात्रा में पारंपरिक भारतीय वस्तुएँ उपहार में दी। इसके बदले में चीनी सम्राट ने शिष्ट मंडल को 81,800 ताम्र-मुद्राओं के मध्य व्यापारिक गतिविधियों का पर्याप्त विस्तार हुआ। कुलोत्तुंग ने भारत एवं चीन के सामुद्रिक मार्ग के मध्य में स्थित कंबुजदेश के शक्तिशाली खमेर शासक के साथ भी मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखे। सुमात्रा से प्राप्त अभिलेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि कुलोत्तुंग के शासनकाल में मलय प्रायद्वीप के साथ भी चोलों के सुदृढ व्यापारिक एवं सांस्कृतिक संबंध बने रहे।

कुलोत्तुंग ने अपने साम्राज्य की समृद्धि एवं सुप्रशासन को बहुत अधिक महत्त्व दिया। इसके लिये उसने अनेक महत्वपूर्ण सुधार किए। भू-राजस्व के निर्धारण के लिये पुनः व्यवस्थित सर्वेक्षण कराया गया एवं व्यापार की प्रगति में बाधक चुंगियों एवं तटकरों को समाप्त कर दिया गया। बङे आश्चर्य की बात है कि कुलोत्तुंग द्वारा मंदिरों या भवनों के निर्माण अथवा धार्मिक कार्यों के लिये अपरिमित दान देने का हमें कहीं भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। संभवतः सार्वजनिक धन का इस प्रकार के अनुत्पादक कार्यों के लिये दुरुपयोग और आत्म गौरव के लिये अपव्यय के प्रति कुलोत्तुंग प्रथम की कोई रुचि नहीं थी। इस प्रकार उसने व्यापार की उन्नति एवं राज्य के वित्तीय साधनों की रक्षा करते हुए अर्थव्यवस्था के विकास में बहुमूल्य योगदान दिया।

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