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सुरक्षित घेरे की नीति क्या थी?

सुरक्षित घेरे की नीति

सुरक्षित घेरे की नीति (1757-1813) surakshit ghere kee neeti

ईस्ट इंडिया कंपनी ने अहस्तक्षेप तथा सीमित उत्तरदायित्व की नीति को अपनाया। पङौसी राज्यों की सीमाओं की सुरक्षा का उत्तरदायित्व कंपनी ने अपने ऊपर ले लिया, किन्तु राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया। दूसरी ओर कंपनी ने यह भी प्रयास किया कि भारतीय राज्यों को एक-दूसरे के साथ संबंध स्थापित करने से रोका जाय। प्लासी के युद्ध की विजय के फलस्वरूप कंपनी निश्चित रूप से एक भारतीय शक्ति बन गयी। किन्तु अभी तक न तो उसमें महत्वाकांक्षा जागृत हुई थी और न राज्यों पर सर्वोच्चता स्थापित करने की शक्ति ही थी।

ली वार्नर ने लिखा है कि इस समय कंपनी अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रही थी। भारतीय राज्यों से संलग्नता की संधियों से उत्पन्न होने वाले खतरों के कारण वह केवल अपने अधिकृत क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए सुरक्षित घेरे में सीमित रहने की नीति का अवलंबन कर रही थी। यह एक व्यापारिक कंपनी थी, जिसने राजनैतिक सत्ता का स्वाद अवश्य लिया था, किन्तु उसके विस्तार के लिए लालायित नहीं थी। इस समय कंपनी को मुख्य चिन्ता आत्मरक्षा की थी और इसके लिए उसने कुछ राज्यों से मैत्री संधियाँ की। इन संधियों का आधार समानता था, क्योंकि कंपनी भारत की प्रमुख शक्तियों के साथ बराबरी का दर्जा प्राप्त करने का प्रयत्न कर रही थी।

सुरक्षित घेरे की नीति का सबसे अच्छा उदाहरण अवध के साथ 1765 ई. में की गयी संधि से दिया जा सकता है। बंगाल सूबे को मराठों के आक्रमण से बचाने के लिए कंपनी ने अवध का उपयोग सुरक्षित घेरे के रूप में किया । यह नीति कोई नैतिकता पर आधारित नहीं थी, बल्कि यह एक लचीली व्यवस्था थी जो कि विभिन्न गवर्नर-जनरलों के अधीन बदली जा सकती थी। इसलिए कुछ अवसरों पर कंपनी ने भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया।

अवध का इतिहास

वारेन हेस्टिंग्ज के समय प्रथम मराठा युद्ध तथा द्वितीय मैसूर युद्ध लङा गया। लार्ड कार्नवालिस के समय मैसूर का तृतीय युद्ध लङा गया और लगभग आधे मैसूर राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। लार्ड वेलेजली के आने के समय भारत में कंपनी के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो रहा था। अतः अहस्तक्षेप की नीति दोषपूर्ण एवं अहितकर सिद्ध हो रही थी। इसलिए वेलेजली ने यह आवश्यक समझा कि अंग्रेजों के साथ संधि करने वाले शासकों की स्थिति घटाकर अधीनस्थ कर दी जाय। फलस्वरूप वेलेजली ने सहायक संधि प्रथा का सूत्रपात किया। उसने हैदराबाद और अवध को भी सहायक संधि मानने के लिए बाध्य किया।

लार्ड मिण्टो ने 1809 ई. में रणजीतसिंह के साथ अमृतसर की संधि की। इस संधि का उद्देश्य उन राज्यों को सुरक्षा प्रदान करना था, जिन्हें रणजीतसिंह के आक्रमण का भय था।

पन्निकर ने स्पष्ट किया है कि इस काल की दो प्रमुख विशेषताएँ थी – प्रथम तो यह कि समस्त संधियाँ (मैसूर की संधि को छोङकर) समानता के आधार पर की गयी थी। कंपनी ने अपनी प्रमुखता स्थापित करने का प्रयास नहीं किया। दूसरा, अपनी प्रजा पर शासकों का पूर्ण अधिकार बना रहा और राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया।

इस व्यवस्था के संबंध में पन्निकर ने अत्यन्त सुन्दर टिप्पणी की है, सहायक संधि प्रथा सुरक्षात्मक प्रथा के रूप में विकसित हुई, जिसके द्वारा कंपनी अपने व्यापार के लिए आतुर थी तथा अपनी रक्षा-व्यवस्था के प्रति दृढ थी। उसने यह कार्य केवल अपनी सीमा के लिए नहीं किया बल्कि भौगोलिक दृष्टि से अपने निकट पङौसी राज्य के लिए भी किया। बाद में लार्ड सेलिसबरी ने इस नीति के बारे में कहा कि यह नीति पृथ्वी को मंगल नक्षत्र के आक्रमण से बचाने के लिए चंद्रमा के लिए की गयी सुरक्षा की भाँति है।

वेलेजली ने अपने दो लक्ष्य बनाये – पहला लक्ष्य भारत में कंपनी की सत्ता को सर्वोपरि बनाना तथा भारतीय राज्यों को कंपनी का संरक्षण स्वीकार कर लेने के लिए बाध्य करना था। वेलेजली का दूसरा लक्ष्य भारत को फ्रांसीसी प्रभाव से मुक्त करना था। फ्रांस की क्रांति का महान नेता नेपोलियन बोनापार्ट अंग्रेजों के व्यापार को नष्ट करने के लिए भारत विजय का स्वप्न देख रहा था।

ऐसी परिस्थिति में भारत में फ्रांसीसियों का प्रभाव समाप्त करने के लिए भारतीय राज्यों में हस्तक्षेप करना अनिवार्य हो गया था। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में वेलेजली को कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई । देशी नरेशों की शक्ति क्षीण हो चुकी थी, वे एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते थे और कंपनी के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा भी नहीं बना सकते थे। अतः वेलेजली ने देशी राज्यों के साथ सहायक संधि करके कंपनी के साम्राज्य का विस्तार किया। भारतीय शासकों के दरबार और उनकी राजनीति में अंग्रेजों के प्रभाव को बढाया तथा भारत में फ्रांसीसी प्रभाव को समाप्त किया।

सहायक संधि कंपनी और देशी राज्यों के बीच होती थी, जिसके अन्तर्गत संधि करने वाले राज्य को कंपनी सैनिक सहायता प्रदान करके सुरक्षा प्रदान करती थी और वह राज्य या तो उस सेना का खर्च देता था या उस खर्च के बराबर आय का भू-भाग कंपनी को हस्तन्तरित करता था। उस राज्य की विदेश नीति पर भी कंपनी का नियंत्रण हो जाता था तथा अन्य राज्य से विवाद होने की स्थिति में अंग्रेजों को मध्यस्थ के रूप में स्वीकार करना पङता था। संधि करने वाले शासक को अपने राज्य में एक ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखना पङता था, जिसके परामर्श से वह शासन करता था। इन सब के बदले कंपनी संरक्षित राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वचन देती थी तथा आंतरिक विद्रोह और ब्राह्य आक्रमण से उस राज्य की रक्षा का उत्तरदायित्व लेती थी।

वेलेजली ने सबसे पहले मित्र राज्यों को सहायक संधि करने पर बाध्य किया। जिन शक्तियों से युद्ध करना पङा उन पर विजय प्राप्त करके बलपूर्वक संधि थोप दी गयी। हैदराबाद के निजाम और अवध के नवाब के साथ बिना युद्ध किये केवल दबाव डालकर और मराठों तथा मैसूर के साथ युद्ध करने के बाद उनसे सहायक संधि की गयी। फलस्वरूप जब वेलेजली भारत से लौटा, वह लगभग सभी प्रमुख शक्तिशाली राज्यों पर सहायक संधि को लागू कर चुका था तथा भारतीय राज्यों की हैसियत में काफी परिवर्तन कर दिया गया था।

वेलेजली ने कंपनी की प्रतिष्ठा स्थापित कर उन सभी राज्यों को अपने अधीनस्थ कर लिया, जिन्होंने कंपनी का संरक्षण प्राप्त किया था। जिन राज्यों ने सहायक संधि को मान्यता नहीं दी थी, वे भी ब्रिटिश सरकार के प्रभाव से अछूते न रह सके।

किन्तु डॉ.एम.एस. मेहता ने लिखा है कि कंपनी के संचालकों ने वेलेजली की नीति को पसंद नहीं किया, इसलिए वेलेजली ने उत्तराधिकारी को भारतीय राज्यों के प्रति उदार नीति का अवलंबन करने का निश्चित आदेश दे दिया था। उसे यह भी आदेश दिया गया कि वह ऐसा कोई कार्य न करे जिससे कंपनी का राजनीतिक उत्तरदायित्व बढ जाय। कुछ विद्वानों का कहना है कि वेलेजली की सहायक संधि प्रथा का गहन अध्ययन करने से पता चला है कि उन शर्तों में पारस्परिक सहयोग की भावना थी तथा भारतीय राज्य की सार्वभौम सत्ता उन्हीं राज्यों में निहित था।

इसमें कोई संदेह नहीं कि सिद्धांतः दोनों पक्षों में समानता के आधार पर संधियाँ की गयी थी, किन्तु उनका व्यावहारिक स्वरूप दूसरा था। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि वेलेजली, अपने पूर्वाधिकारियों की अहस्तक्षेप की नीति से निश्चित रूप से अलग हट गया था। उसकी इस नीति को हम सुरक्षित घेरे की नीति नहीं कह सकते और निश्चित रूप से वेलेजली इस नीति से बहुत आगे बढ गया था। किन्तु उसकी नीति को सुरक्षित घेरे की नीति के अन्तर्गत मानते हुए यह तर्क दिया जाता है कि कंपनी के संचालकों ने उसकी नीति को स्वीकार नहीं किया तथा इस नीति को समाप्त कर पुनः पुरानी नीति को अपनाने का आदेश दिया था।

इस प्रकार संचालक अभी भी पुरानी सुरक्षित घेरे की नीति का अवलंबन कर रहे थे और इसीलिए उन्होंने कार्नवालिस को पुनः भारत इसीलिए भेजा था कि वह वेलेजली की गलतियाँ को ठीक करे।

इसीलिए अगले आठ वर्षों (1805-1813) में इसी बात का प्रयत्न किया गया कि अहस्तक्षेप की नीति की पुनर्स्थापना की जाय, यद्यपि इस नीति का इतनी दृढता से पालन नहीं किया गया जितना संचालक चाहते थे। वेलेजली के काल में जिन राजपूत राज्यों को ब्रिटिश सुरक्षा प्रदान की गयी थी, जार्ज बार्लो ने उन राज्यों से ब्रिटिश सुरक्षा की संधियों को रद्द कर दिया। किन्तु उसने निजाम को सहायक संधि से मुक्त करने से इन्कार कर दिया और संचालकों के बार-बार कहने पर भी पेशवा के साथ की गयी बसीन की संधि को रद्द नहीं किया।

जार्ज बार्लो के बाद लार्ड मिण्टो के काल में अहस्तक्षेप की नीति को प्रबल धक्का लगा। 1809 ई. में ही उसने रणजीतसिंह के साथ अमृतसर की संधि करके सतलज पार के प्रदेशों को ब्रिटिश संरक्षण प्रदान किया। फिर भी डॉ.एम.एस. मेहता की मान्यता है कि, यद्यपि यह सत्य है कि मिण्टो के काल में बुंदेलखंड के कुछ शासक और सतलज के पश्चिम के सिक्ख राज्य ब्रिटिश संरक्षण में ले लिए गये थे, किन्तु अंग्रेजों ने ऐसा रणजीतसिंह की बढती हुई शक्ति पर अंकुश लगाने के लिए किया था। अतः स्थिति मूल रूप से वही रही जो 1805 और 1806 की संधियों द्वारा तय की गयी थी।

ली वार्नर ने भी समस्त घटनाओं के संदर्भ में यही निष्कर्ष निकाला है कि, पिछले 56 वर्षों की घटनाओं को यदि हम समग्र रूप से लें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कंपनी भारतीय राज्यों के अधिग्रहण एवं राज्यों के साथ संधियाँ करने की इतनी इच्छुक नहीं थी।

किन्तु समय के साथ-साथ धीरे-धीरे इस अहस्तक्षेप की नीति का अवलंबन करना कठिन होता जा रहा था। इसलिए एक समय ऐसा आया जब निश्चित रूप से इस नीति का परित्याग कर दिया गया, जो संचालकों के प्रयत्न के बावजूद नहीं बदली जा सकी। वह समय लार्ड मिण्टो के बाद आने वाले गवर्नर-जनरल लार्ड हेस्टिंग्ज के काल में आया, जबकि सुरक्षित घेरे की नीति का पूर्णतः परित्याग कर दिया गया तथा नई नीति का सूत्रपात किया गया, जिसे ली वार्नर ने अधीनस्थ अलगाव की नीति कहा है। इस प्रकार लार्ड मिण्टो के काल की समाप्ति के साथ ही देशी राज्यों के प्रति अपनायी गयी नीति का भी एक युग समाप्त हो गया।

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