इतिहासमध्यकालीन भारत

कलचुरी राजवंश का इतिहास

कलचुरी राजवंश – कलचुरियों का एक वंश सरयूपार (गोरखपुर) में भी था, परंतु चेदि (जिसका प्राचीन नाम डाहलवंश भी था) या त्रिपुरी (जबलपुर) से लगभग दस किलोमीटर पश्चिम के कलचुरी वंश ने इस काल के इतिहास को विशेष रूप से प्रभावित किया।

अमोघवर्ष के संजन ताम्रपत्र से पता चलता है, कि राष्ट्रकूट गोविंद तृतीय ने डाहल प्रदेश को जीतकर लक्ष्मणराज को यहाँ का प्रांतीय शासक बनाया था। कोकल्ल प्रथम ने यहाँ (845 ई. में) कलचुरी वंश का राज्य स्थापित किया। उसकी गणना अपने समय के महानतम सेनानायकों में होती है। उन्होंने प्रतीहार शासक भोज प्रथम तथा सरयूपार के कलचुरी शंकरगण, मेवाङ के गुहिल वंश के हर्षराज, शाकंभरी के चौहान गूवक द्वितीय (ये सभी भोज प्रतिहार के ही सामंत थे) को पराजित करके उनके कोष का अपहरण कर लिया। उन्होंने तुर्कों (सिंध के अरबों की सेना) को भी पराजित किया था। इन्होंने बंग (पूर्वी बंगाल) तक सैनिक अभियान करके वहाँ पर धन की लूट की थी। राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय को भी उन्होंने हराया और कोंकण के शासक पर अपना आधिप्तय स्थापित कर लिया। उन्होंने अपनी वीरता से राज्य का विस्तार तो किया ही, साथ ही अपनी सैनिक श्रेष्ठता से कलचुरी राज्य की महत्ता विशेषकर उत्तरी भारत की राजनीति में स्थापित कर दी। दूरदर्शिता के कारण उन्होंने चंदेल तथा राष्ट्रकूट वंशों में वैवाहिक संबंध भी स्थापित किए।

कोकल्ल का पुत्र तथा उत्तराधिकारी शंकरगण 878 तथा 888 ई. के बीच सिंहासनारूढ हुआ। उसने कोसल के सोमवंशी राजा से पालि (विलासपुर, मध्यप्रदेश) जीत लिया तथा पूर्वी चालुक्य नरेश विजयादित्य तृतीय के विरुद्ध अपने बहनोई राष्ट्र-कूट कृष्ण द्वितीय को सैनिक सहायता दी, किंतु उसे चालुक्यों से बुरी तरह पराजित होना पङा। नवीं शताब्दी के अंतिम समय में उसकी मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका पुत्र बालहर्ष, फिर बालहर्ष का भाई युवराज प्रथम केयूरवर्ष का विरुद धारण करके शासक बना। इसका शासन काल दसवीं शताब्दी के तीसरे दशक से पाँचवें दशक तक रहा है। अपने समय में वह एक कुशल सेनानायक सिद्ध हुआ था। उसने गौङ (बंगाल) तथा कलिंग के शासकों को भी हराया। चंदेल शासक यशोवर्मन से भी उसका युद्ध हुआ। उसकी लङकी के लङके (दोहित्र) राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय ने (करहाद अभिलेख के अनुसार) उसे बुरी तरह पराजित किया था, किंतु कुछ समय के बाद कलचुरी युवराज प्रथम डाहल क्षेत्र को राष्ट्रकूटों से मुक्त कराने में सफल हो गया। उसने कर्नाटक तथा राष्ट्रकूटों के अधीनस्थ लाट की विजय की। इस विजय के उपलक्ष्य में राजशेखर विरचित विद्धशाल-भंजिका नामक नाटिका का प्रदर्शन किया गया। युवराज शैव था। उसने शैव आचार्यों को यथेष्ट संरक्षण प्रदान करने के साथ ही मठ तथा मंदिर भी निर्मित किए हैं।

उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी लक्ष्मणराज भी विस्तारवादी था। उसने पूर्वी बंगाल पर सैनिक अभियान किया। इसी अभियान में उसने उङीसा शासक से सोने तथा मणियों से सुसज्जित कालिया नाग ले लिया। लक्ष्मणराज ने कोसल के शासक संभवतः महाभवगुप्त को हराकर कीर्ति अर्जित की। पूर्वी अभियान के बाद उसने अपने विविध प्रकार के सैनिक दल की सहायता से राष्ट्रकूटों के अधीनस्थ लाट के शासक तथा गुजरात के मूलराज प्रथम चालुक्य पर विजय प्राप्त की थी। इसी अभियान में वह सोमनाथ पत्तन पहुँचा था और उसने जूनागढ के आभीर शासक संभवतः ग्राहरियु को हराया था। शैवमतावलंबी होने के कारण उसने शैवों को उदार संरक्षण प्रदान किया। उसके उत्तराधिकारी शंकरगण के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है। उनका छोटा भाई युवराज द्वितीय दसवीं शताब्दी के अंत में शासक हुआ। उसने त्रिपुरी नगर का पुनर्निर्माण कर उसकी पर्याप्त श्रीवृद्धि भी की। उसके समय में दकन के चालुक्य नरेश तैल द्वितीय तथा मालवा के मुंज परमार ने चेदि पर सैनिक अभियान द्वारा उसकी शक्ति, प्रतिष्ठा तथा राजधानी को ध्वस्त कर दिया।

परमारों के वापस जाने के बाद मंत्रियों ने युवराज द्वितीय की कायरता के कारण उसे गद्दी से हटाकर उसके लङके कोकल्ल द्वितीय को सिंहासनारूढ किया। उसने कलचुरी वंश की शक्ति तथा प्रतिष्ठा की अभिवृद्धि करके अपने शासक चुने जाने का औचित्य प्रमाणित किया। उसने गुजरात के चालुक्य मूलराज या उसके लङके चामुंड राज तथा दकन के चालुक्य तैल द्वितीय को पराजित कर अपने पिता की हार का प्रतिकार भी किया। उसने कुंतल के शासक को पराजित किया। ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं, कि उसने पूर्व में गौङ (बंगाल) के शासक पर भी सफल आक्रमण किया था।

कोकल्ल द्वितीय का पुत्र गांगेय देव (1019-1040 ई.) विक्रमादित्य का विरुद धारण करके गद्दी पर बैठा। वह विस्तारवादी तथा युद्ध में अत्यधिक कुशल योद्धा था। उसने भोज परमार तथा राजेन्द्र चोल के साथ एक संघ बनाकर चालुक्य जयसिंह पर आक्रमण कर दिया। किंतु दुर्भाग्यवश सफलता प्राप्त नहीं कर सका। वह भोजपरमार से भी युद्ध में हार गया। बुंदेलखंड में वह चंदेल विजयपाल के कारण सफल नहीं हो सका। किंतु उसने उत्कल को अपने अधीन कर लिया और बनारस तथा भागलपुर तक के क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करते हुए राज्य विस्तार किया।

लक्ष्मीकर्ण (1042-1072 ई.) गांगेय देव का पुत्र तथा उत्तराधिकारी था। वह अनवरत युद्ध में व्यस्त रहा। उसने इलाहाबाद को अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया। साथ ही अपनी सैनिक क्षमताओं से पश्चिमी बंगाल के कुछ भाग पर अधिकार किया। दक्षिण के चोल, कुंतल तथा पांड्य नरेशों से भी उसका युद्ध हुआ था किंतु वह दक्षिण में राज्य विस्तार नहीं कर सका। यह कटु सत्य है कि उसे बुंदेलखंड के चंदेलों के विरुद्ध भी विशेष सफलता नहीं मिल सकी। भोज परमार के विरुद्ध कर्ण तथा गुजरात के चालुक्य भीम प्रथम को युद्ध के दिनों में ही भोज की मृत्यु के कारण सफलता प्राप्त हुई। किंतु युद्ध से प्राप्त धन के बँटवारे के प्रश्न पर भीम प्रथम ने उसे संघर्ष में हरा दिया। बहुत अधिक हङबङी के कारण चालुक्य सोमेश्वर ने भी उसे पराजित किया। निस्संदेह लक्ष्मीकर्ण एक वीर योद्धा था जिसने अपने वंश की प्रतिष्ठा को बढाया था किंतु उसके शासन के अंतिम काल से ही कलचुरी शक्ति का पतन प्रारंभ हो गया। लक्ष्मीकर्ण के बाद यशःकर्ण, गय कर्ण, नरसिंह, जयसिंह, विजयसिंह आदि शासक हुए जिन्होंने कलचुरी राज्य का अस्तित्व बनाए रखा। किंतु 1211 ई. के लगभग चंदेल त्रैलोक्यवर्मन ने बुंदेलखंड तथा संभवतः डाहल प्रदेश पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।

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