इतिहासमध्यकालीन भारत

गुजरात के चालुक्य शासकों का इतिहास

गुजरात के चालुक्य – चालुक्य वंश की अनेक शाखाओं में से हमारे सर्वेक्षण काल के अंतर्गत गुजरात के चालुक्य वंश का उत्कर्ष विशेष महत्त्वपूर्ण है। इस वंश के मूलराज प्रथम (942-995ई.) ने गुजरात के बङे भाग को जीतकर अन्हिलवाङ को अपनी राजधानी बनाया। उसने प्रतिहारों से सौराष्ट्र तथा लक्ष (लाखा) से कच्छ प्रदेश जीता था, किंतु यह कल्याणी के चालुक्य तेल द्वितीय परमार मुंज तथा त्रिपुरी के कलचुरी शासकों तथा चौहान विग्रहराज द्वितीय से पराजित हुआ था। फिर भी उसका राज्य उत्तर में सांचोर (जोधपुर) तथा पूर्व तथा दक्षिण की ओर साबरमती नदी तक विस्तृत था। वृद्धावस्था में उसने अपने लङके चामुण्डराज को शासक बनाकर स्वयं सिंहासन का परित्याग कर दिया।

गुजरात के चालुक्य

चामुंडराज (995-1008ई.) के सिंधुराज तथा भोज परमार से शत्रुतापूर्ण संबंध थे। यह कलचुरी कोकल्ल द्वितीय से हार भी गया था। चामुंडराज ने भी अपने पुत्र वल्लभराज को शासक बनाया था। उसके बाद दुर्लभराज (1008-22 ई.) शासक हुआ। उसने अपने भतीजे भीम प्रथम को गद्दी सौंप दी। इस समय तक चालुक्यों ने भी पर्याप्त शक्ति अर्जित कर ली थी। फिर भी 1025 ई. में महमूद गजनवी के लौट जाने पर उसने अपने राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया। उसने परमारों से आबू पर्वत छीन लिया। इस प्रकार चौहानों तथा परमारों से उसके शत्रुतापूर्ण संबंध थे। कालांतर में उसने अपने लङके कर्ण (1064-1094ई.) के लिए राज्य शासन छोङ दिया, जिसका नाडोल के चौहान तथा मालवा के परमारों से घोर संघर्ष होता रहा और उस संघर्ष का परिणाम उसके पक्ष में नहीं रहा।

कर्ण के बाद उसका लङका जयसिंह, सिद्धराज (1094-1193 ई.) की उपाधि धारण करके शासक बन गया। वह इस वंश का सबसे प्रतापी शासक था। उसने नाडोल के चौहान जोजल्ल से अन्हिलपाटन मुक्त कराके वहाँ के शासक आशाराज को अपने अधीन कर लिया। युद्ध में सिद्धराज ने नरवर्मन तथा उसके लङके यशोवर्मन परमार को भी हराया और कुछ समय के लिये मालवा पर अधिकार करने में भी सफल रहा। जयसिंह ने शाकंभरी के चौहान अर्णोराज को पराजित किया था, किंतु बाद में अपनी पुत्री कांचन देवी का विवाह अर्णोराज से करके उससे मैत्री स्थापित कर ली। उसने चंदेल शासक मदनवर्मन से भिलसा छीन लिया। कल्याणी के चालुक्य विक्रमादित्य चतुर्थ से भी वह युद्ध में विजयी रहा। उसके राज्य की सीमा दक्षिण में बलि क्षेत्र (जोधपुर) तथा सांभर (जयपुर), पूर्व में भिलसा (मध्यप्रदेश) और पश्चिम में काठियावाङ तथा गुजरात तक विस्तृत थी। उसके शासन के अंतिम वर्षों में विद्रोह हो जाने के कारण कुछ भाग उसकी अधीनता से निकल गए। सिद्धराज पराक्रमी तथा वीर होने के साथ ही साथ विद्वानों का आश्रयदाता था। प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचंद्र उसके दरबार में थे। कोई पुत्र न होने के कारण उसने अपने मंत्री उदयन के लङके बाहङ को अपना उत्तराधिकारी बनाया, किंतु जयसिंह की मृत्यु के बाद कुमारपाल ने उसे हटाकर सत्ता पर अधिकार कर लिया।

कुमारपाल (1153-1171 ई.) ने अपने शासन के प्रारंभ में ही अर्णोराज चौहान, विक्रमसिंह परमार तथा मालवा के शासक बल्लार के आक्रमणों को विफल करके अपनी योग्यता को प्रमाणित कर दिया। दक्षिण में उसने कोंकण पर विजय प्राप्त की। कुमारपाल की मृत्यु के बाद उसकी बहन के लङके प्रतापमल्ल तथा उसके भाई महिपाल के लङके अजयपाल में उत्तराधिकारी का संघर्ष प्रारंभ हुआ जिसमें अजयपाल को सफलता अवश्य मिली किंतु लगभग 1176 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। फिर अजयपाल का लङका मूलराज द्वितीय गद्दी पर आसीन हुआ। मूलराज ने 1178 ई. में आबू पर्वत के निकट मुहम्मद गौरी को हराया। इसी वर्ष इसकी मृत्यु हो गयी और इसका भाई भीम द्वितीय (1178-1238 ई.) शासक हुआ। उसने कई तुर्की आक्रमणों का सफलतापूर्वक मुकाबला किया, किंतु 1187 ई. में ऐबक से उसकी पराजय हुई। उसने 13 वीं शती के प्रारंभ में जोधपुर में गोदवर पर आधिपत्य कर लिया। भीम द्वितीय के बाद इस वंश में अनेक शासक हुए जो निर्बल ही थे। 12 वीं शती के अंतिम वर्षों में अर्णोराज के लङके लवणप्रसाद ने एक नए वंश की स्थापना की जो बघेल नाम से प्रसिद्ध हुआ।

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