अलाउद्दीन खिलजीइतिहासखिलजी वंशदिल्ली सल्तनतमध्यकालीन भारत

अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार

अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार – अलाउद्दीन ने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया वरन उसको एक प्रभावशाली शासन तंत्र भी प्रदान किया। अन्य मध्यकालीन शासकों के समान वह प्रशासनिक तंत्र का शिखर था। वह सेना का महासेनापति और सर्वोच्च न्यायिक तथा कार्यकारी शक्ति था। अलाउद्दीन ने विशाल सेना की सहायता से राज्य के सभी स्वेच्छाचारी तत्वों का दमन कर पूर्ण सत्ता अपने हाथ में केंद्रित कर ली। उसने पुराने अमीरों का दमन किया और वह उलेमा के आदेशों से मुक्त रहा। इस प्रकार वे दोनों ही वर्ग जो सुल्तान की सत्ता पर अंकुश रखते थे, अलाउद्दीन के समय प्रभावशाली नहीं रहे। उसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यही थी कि उसने राजनीति को धर्म से प्रभावित नहीं होने दिया। उसका विचार था कि शासक का कार्य राज्य का प्रशासन चलाना था जबकि शरा विद्वानों, काजियों और मुफ्तियों की चीज थी। उलेमा भी जानते थे कि अपने हितों को किस प्रकार सुरक्षित रखें। यदि शासक धर्मांध होता था तो वे असहिष्णुता का समर्थन करते थे। परंतु उन्होंने अलाउद्दीन जैसे शासक का विरोध करने का प्रयत्न नहीं किया। फ्रांस के लुई चतुर्दंश एवं प्रशा के फ्रेडरिक महान के समान अलाउद्दीन भी सर्वशक्तिमान था और स्वयं अपना सलाहकार था। उसके मंत्रियों की स्थिति सचिवों और क्लर्कों जैसी थी जो उसकी आज्ञाओं का पालन करते और प्रशासन के कार्यों को देखते थे। वह अपनी इच्छानुसार उनकी सलाह लेता था परंतु उसे मानने के लिये बाध्य नहीं था। प्रांतों के सूबेदार अथवा मुक्त भी पहले से अधिक केंद्र के नियंत्रण में थे। सल्तनत में कोई भी स्वयं को सुल्तान का समकक्ष नहीं मान सकता था।

अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक सुधार

मंत्रिगण

अलाउद्दीन ने अनेक मंत्रियों की नियुक्तियाँ करते हुए भी वास्तविक सत्ता अपने हाथों में रखी। मंत्री केवल उसे परामर्श देने व दैनिक राज्य कार्य संभालने के लिये थे। राज्य में केवल चार महत्त्वपूर्ण मंत्री ही ऐसे चार स्तंभ थे, जिन पर प्रशासन रूपी भवन आधारित था। वे थे – 1.) दीवान-ए-वजारत, 2.) दीवान-ए-आरिज, 3.) दीवान-ए-इंशा, 4.) दीवान-ए-रसालत।

मुख्यमंत्री को वजीर कहा जाता था और राज्य महत्त्वपूर्ण स्थान था। बरनी के अनुसार, एक बुद्धिमान वजीर के बिना राजत्व व्यर्थ है, तथा सुल्तान के लिये एक बुद्धिमान वजीर से बढकर अभिमान और यश का दूसरा स्रोत नहीं है और हो भी नहीं सकता। सिंहासनासीन होने पर अलाउद्दीन ने ख्वाजा खातिर को वजीर बनाया। यह एक कुशल दीवानी प्रशासक तो था किंतु एक महान योद्धा नहीं था। अतः 1297 ई. में अलाउद्दीन ने उसके स्थान पर नुसरत खाँ को नियुक्त किया। वह एक महान सैनिक नेता था। परंतु लोगों से धन हङपने के कारण वह शीघ्र ही बदनाम हो गया। इसके बाद मलिक ताजुद्दीन काफूर को सुल्तान का नायब नियुक्त किया गया। इस प्रकार अलाउद्दीन ने वजीर का पद (जिसका मुख्य विभाग वित्त होता है) सैनिक नेताओं को सौंप दिया। वजीर राजस्व के एकत्रीकरण और प्रांतीय सरकारों के दीवानी पक्ष के प्रशासन में सुल्तान के प्रति उत्तरदायी था। सैनिक पक्ष में वह शाही सेनाओं का नेतृत्व करता था।

वजीर के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण अधिकारी था दीवान-ए-आरिज या सैन्यमंत्री। सेना की भरती करना, वेतन बाँटना, सेना की साज-सज्जा और दक्षता की देख-रेख करना, सेना के निरीक्षण की व्यवस्था करना और युद्ध के समय सेनापति के साथ जाना उसका कर्तव्य था। अलाउद्दीन के काल में मलिक नासिरुद्दीन मुल्क सिराजुद्दीन आरिज-ए-मुमालिक था और उसका उपाधिकारी ख्वाजा हाजी, नायब आरिज था। वे मलिक काफूर के साथ दक्षिण जाते थे और दक्षिण विजयों में उनका भी योगदान था। आरिज अपने सैनिकों के प्रति सहानुभूति व दया का व्यवहार करते थे। अलाउद्दीन के समय में सैनिकों को कठोर दंड देने का कोई विवरण नहीं मिलता। अलाउद्दीन ने सैनिकों के प्रति सह्रदयता की नीति को अपनाया, जिसे एक सेनानायक और एक सुदृढ राजनिर्माता के रूप में उसकी सफलता का रहस्य कहा जा सकता था।

राज्य का तीसरा महत्त्वपूर्ण मंत्री दीवान-ए-इंशा था। उसका कार्य शाही आदेशों और पत्रों का प्रारूप बनाना, प्रांतपति और स्थानीय अधिकारियों से पत्र-व्यवहार करना और सरकारी बातों का लेखा-जोखा रखना था। उसके पास अनेक सचिव होते थे, जिन्हें दबीर कहा जाता था।

दीवान-ए-रसालात चौथा मंत्री था। यह मंत्रालय पङोसी दरबारों को भेजे जाने वाले पत्रों का प्रारूप तैयार करता था और विदेश जाने वाले तथा विदेशों से आने वाले राजदूतों के साथ संपर्क रखता था। आश्चर्य की बात यह है कि अलाउद्दीन के शासनकाल में दीवान-ए-रसालात का पद किसके पास था, बरनी इसका उल्लेख नहीं करता है। ऐसा प्रतीत होता है, कि अलाउद्दीन स्वयं इस मंत्रालय के कार्य को देखता था। अलाउद्दीन ने राजधानी के आर्थिक मामलों की देखभाल के लिये दीवान-ए-रियासत नाम का नवीन मंत्रालय स्थापित किया। इन चार मंत्रियों के अलावा अनेक अधिकारी थे जो सचिव और राजमहल का कार्य सँभालते थे।

न्याय प्रशासन

सुल्तान न्याय का स्त्रोत तथा अपील को उच्चतम अदालत था। वह खुले दरबार में न्याय करता था। अलाउद्दीन के न्याय प्रशासन के संबंध में अधिक जानकारी नहीं मिलती। इतना अवश्य पता चलता है, कि सुल्तान के बाद सद्र-ए-जहां का काजीउल कुजात होता था। उसके अधीन नायब काजी या अदल कार्य करते थे और उनकी सहायता के लिये मुफ्ती होते थे, जो कानून की व्यवस्था करते थे। एक अन्य अधिकारी अमीर-ए-दाद होता था। इसका कार्य ऐसे प्रभावशाली व्यक्ति को दरबार में प्रस्तुत करना था जिसके विरुद्ध कोई मुकदमा दायर किया गया हो और जो इतना शक्तिशाली हो कि काजियों द्वारा नियंत्रित न किया जा सके।

प्रांतों में भी न्यायाधिकारियों की इसी प्रकार की पद्धति थी। वहाँ प्रांतपति, काजी और अन्य छोटे अधिकारी न्याय करते थे। छोटे शहरों तथा ग्रामों में मुखिया और पंचायत झगङों को सुलझाते थे। इसके अलावा राजकुमार, सेनापति और अन्य अधिकारी भी ऐसे मामलों का निपटारा करते थे जिनमें कानून के विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता नहीं थी। न्यायकार्य सरल प्रणाली के द्वारा शीघ्रता से किया जाता था।

अलाउद्दीन इस बात का ध्यान रखता था कि उसके उच्च न्यायाधिकारी अच्छा व्यवहार करें और जीवन में भी पवित्रता रखें। ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि मदिरापान करने वाले एक काजी को उसने दंड दिया था। आरक्षी और गुप्तचर सेवाएँ इस बात की देखभाल करती थी कि कोई अधिकारी अत्याचारी न हो। ऐसी स्थिति के कारण अलाउद्दीन के काल में न्यायपालिका सामान्यतः निष्पक्ष थी और वह स्वयं अपील सुनता था।

पुलिस और गुप्तचर

अलाउद्दीन ने पुलिस विभाग और गुप्तचर पद्धति को कुशल तथा प्रभावशाली बनाया। उसने पुलिस विभाग को ठोस रूप से संगठित किया। इसका मुख्य अधिकारी कोतवाल होता था। उसके अधिकार विस्तृत होते थे और उसका पद उत्तरदायित्वपूर्ण होता था। अलाउद्दीन के समय में कोतवाल का सुल्तान पर अत्यधिक प्रभाव था। अलाउद्दीन के कोतवाल अलाउलमुल्क ने उसको महत्वपूर्ण परामर्श देकर उसे अव्यावहारिक योजनाओं को त्याग देने के लिये बाध्य किया था। कोतवाल शांति व कानून का रक्षक था।

अलाउद्दीन ने स्वयं पुलिस विभाग में सुधार किए, नवीन पदों का सृजन किया और उन पर कुशल व्यक्तियों को नियुक्त किया। दीवान-ए-रसालात का नया पद बनाया जो व्यापारी वर्ग पर नियंत्रण रखता था। शहना या दंडाधिकारी भी इसी प्रकार का अधिकारी था। मुहतसिब जनसाधारण के आचार का रक्षक तथा देखभाल करने वाला था। वह बाजारों पर भी नियंत्रण रखता था और नाप-तौल का निरीक्षण करता था। अनेक समकालीन लेखकों ने इस पदाधिकारी का आदर से उल्लेख किया है।

अलाउद्दीन के गुप्तचर अधिकारी अत्यंत कुशल थे। उसने गुप्तचर पद्धति को पूर्णतया संगठित किया। उनकी कुशल गुप्तचर पद्धति जनसाधारण में भय का संचार करती थी। इस विभाग का मुख्य अधिकारी बरीद-ए-मुमालिक था। उसके अंतर्गत अनेक बरीद (संदेशवाहक या हरकारे) थे, जो शहरों में नियुक्त किए जाते थे। वे राज्य में घटने वाली प्रत्येक घटना की सूचना सुल्तान को देते थे। बरीद के अलावा अलाउद्दीन ने अनेक सूचनादाता नियुक्त किए जो मुनहियान या मुन्ही कहलाते थे। वे विभिन्न दर्जे के होते थे और सब वर्गों की जनता से संबंधित प्रत्येक बात की सूचना सुल्तान को देते थे। मुन्ही लोगों के घरों में प्रवेश करके गौण अपराधों को रोक सकते थे। बरनी गुप्तचर विभाग की कठोरता के संबंध में लिखता है कि कोई भी उसकी (अलाउद्दीन की) जानकारी के बिना हिल नहीं सकता था, और मलिकों, अमीरों, अधिकारियों व महान व्यक्तियों के यहाँ जो भी घटना घटती थी उसकी सूचना कालांतर में सुल्तान को दे दी जाती थी। गुप्तचरों की गतिविधियों के कारण वे अपने घरों में रात-दिन काँपते रहते थे। बरनी का वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकता है परंतु इससे अलाउद्दीन की गुप्तचर प्रणाली की कुशलता का अनुमान होता है। अमीर, व्यापारी और जनसाधारण, सब लोग बरीद व मुन्हियों से भयभीत रहते थे। मूलतः इन्हीं अधिकारियों को अलाउद्दीन के बाजार-नियंत्रण की सफलता का श्रेय जाता है।

डाक-पद्धति

सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था साम्राज्य के विभिन्न भागों में संपर्क स्थापित करने वाली कुशल डाक-पद्धति के कारण सुगम हो गयी थी। अलाउद्दीन ने घुङसवारों व लिपिकों को डाक चौकियों पर नियुक्त किया जो सुल्तान को समाचार पहुँचाते थे। अलाउद्दीन की डाक सेवा पर्याप्त कुशलता से कार्यरत थी और सुल्तान के विभिन्न नियमों को लागू करने में सहायक होती थी। सुल्तान को विद्रोहों तथा युद्ध अभियानों के समाचार शीघ्रता के साथ प्राप्त होते थे।

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