इतिहासमध्यकालीन भारत

कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहारों का इतिहास

कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार हरिश्चंद्र और उनके उत्तराधिकारी तथा इस वंश के अन्य शासकों ने जोधपुर, नंदीपुर, भङौच, उज्जयिनी आदि में अनेक छोटे-छोटे राज्य स्थापित किए थे। हरिश्चंद्र की संतानों में उज्जयिनी के शासक नागभट्ट प्रथम (730-756ई.) ने प्रतीहार राज्य का विस्तार किया था। ग्वालियर अभिलेख के अनुसार नागभट्ट अरबों को सिंध से आगे बढने से रोकने में सफल रहा था, किन्तु राष्ट्रकूट दंतिदुर्ग से इसे पराजय का सामना करना पङा। नागभट्ट के उत्तराधिकारी कक्कुक तथा देशराज के बाद वत्सराज (लगभग 778-805ई.) महत्वाकांक्षी शासक हुआ। उसने राजस्थान का मध्य भाग और उत्तर भारत का पूर्वी भाग जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। कन्नौज पर अधिकार करने के प्रयास से उसने पाल वंश के धर्मपाल को हराया, किन्तु वह राष्ट्रकूट ध्रुव से हार गया। इसी के लङके नागभट्ट द्वितीय (805-833 ई.) ने प्रतिहार वंश की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को बढाया था। इसके पौत्र भोज के ग्वालियर अभिलेख से यह पता चलता है कि इसने आंध्र, सैंधव, विदर्भ तथा कलिंग के शासकों को पराजित किया था और आनर्त (उत्तरी गुजरात), मालवा, किरातु, तुरुक्ष (तुर्क), वत्स तथा मत्स्य के राजाओं के पर्वतीय दुर्गों पर विजय प्राप्त की थी। इसी समय कन्नौज पर आधिपत्य के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष चल रहा था। नागभट्ट ने चक्रायुद्ध को हराकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इसी कारण से उसका पालवंश के धर्मपाल से युद्ध हुआ। जोधपुर के प्रतीहार, दक्षिणी काठियावाङ के चालुक्य तथा मेवाङ के गुहिल शासकों की सहायता से उसने धर्मपाल को पराजित किया और उसे मुँगेर तक खदेङ दिया। संभवतः चक्रायुद्ध तथा धर्मपाल के आमंत्रण पर राष्ट्रकूट गोविंद तृतीय ने उत्तरी भारत का विजय अभियान शुरू किया और 809 या 910 ई. के आसपास नागभट्ट को पराजित किया। गोविंद तृतीय के दक्षिण लौट जाने पर धीरे-धीरे पाल वंश के धर्मपाल तथा वेंदपाल ने उत्तर भारत में अपनी स्थिति मजबूत कर ली जब कि मालवा और गुजरात नागभट्ट के हाथ से निकल गए थे। फिर भी ग्वालियर, कालिंजर और कन्नौज पर अपना अधिकार बनाए रखने में वह सफल रहा। कमजोर उत्तराधिकारी रामभद्र के बाद मिहिरभोज शासक हुआ।

मिहिरभोज (लगभग 836-882 ई.) योग्य, शक्तिशाली तथा महत्वाकांक्षी शासक होने के कारण प्रतिहार साम्राज्य का पर्याप्त विस्तार कर सका। वह कन्नौज को अपनी राजधानी बनाने में सफल रहा। साथ ही इसने राजपूताना, मालवा, मध्यप्रदेश और कालिंजर (बरह और दौलतपुर ताम्रपत्र) में अपनी शक्ति संगठित की। प्रारंभ में बंगाल के देवपाल से पराजित हो जाने के कारण पूर्व में उसके राज्य का विस्तार न हो सका। उसने 842-860 ई. के बीच इतनी शक्ति संगठित कर ली कि राष्ट्रकूट ध्रुव पर आक्रमण कर दिया। किन्तु यहाँ उसे हार का सामना करना पङा। त्रिपक्षीय संघर्ष में वह पा तथा राष्ट्रकूट दोनों शासकों से पराजित हुआ। कलचुरी शासक कोक्कल ने भी उसे पराजित किया। किंतु मिहिरभोज ने देवपाल के निर्बल उत्तराधिकारी नारायण को हराकर उसके राज्य का काफी बङा भाग अपने अधीन कर लिया। उसने पुनः राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय को संभवतः नर्मदा के किनारे पराजित किया। मालवा तथा काठियावाङ पर अपना आधिपत्य स्थापित किया लेकिन उज्जयिनी में हुए एक दूसरे युद्ध में वह कृष्ण द्वितीय से हार गया।

इन तमाम कठिनाइयों के बावजूद मिहिरभोज प्रतीहार वंश की शक्ति विस्तृत तथा संगठित करने में पर्याप्त सफल रहा। उसके साम्राज्य में काठियावाङ, पंजाब-मालवा, राजपूताना तथा मध्यदेश शामिल थे। बिहार के कलचुरी तथा बुंदेलखंड के चंदेल शासकों ने इसकी अधीनता स्वीकार की। 851 ई. में सुलेमान नामक एक अरब यात्री के विवरण में एक शक्तिशाली तथा संपन्न गुर्जर साम्राज्य का उल्लेख है। इसमें भोज की सफलता पर प्रकाश डाला गया है। उसके उत्तराधिकारी महेन्द्रपाल प्रथम (लगभग 885-910ई.) के समय (राजतरंगिणी के अनुसार) काश्मीर के शासक शंकरवर्मन ने पंजाब का कुछ भाग जीत लिया। किन्तु महेन्द्र पाल ने मगध और उत्तरी बंगाल के कुछ हिस्से जीत लिए। मोटे तौर पर उसका साम्राज्य हिमालय से विंध्य तथा पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्र तक विस्तृत था। इसके गुरु संस्कृत के सुप्रसिद्ध रचनाकार राजशेखर थे। महेन्द्र पाल के लङके भोज द्वितीय को गद्दी से हटाकर महिपाल (912-1014 ई.) स्वयं सिंहासनारूढ हुआ।

इसके काल में भी कन्नौज के लिये त्रिपक्षीय संघर्ष का क्रम चलता रहा। सन् 915 से 918 के बीच राष्ट्रकूट इंद्र तृतीय ने कन्नौज पर आक्रमण किया। महिपाल को प्रयाग में शरण लेनी पङी। किंतु दक्षिण के शासक के लिए उत्तर में अधिक समय तक ठहर पाना कठिन था। इंद्र के लौटते के बाद महिपाल ने अपने साम्राज्य के काफी बङे भाग पर पुनः आधिपत्य ही स्थापित नहीं किया वरन् उसने अपनी शक्ति और राज्य को पूरी लगन के साथ संगठित भी किया। हालांकि पाल शासकों ने उसके संकट का लाभ उठाते हुए उसके राज्य का कुछ भाग छीन लिया। 940 ई. के आसपास राष्ट्रकूटों ने आक्रमण करके कालिंजर और चित्रकूट के दुर्गों को अपने अधीन कर लिया।

प्रतिहार साम्राज्य पर राष्ट्रकूटों तथा पालवंशीय शासकों के आघात के कारण चंदेल, चेदि तथा परमार शासक भी अपनी स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता के लिए लालायित हो उठे। साम्राज्य के काफी विस्तृत भआग को सुरक्षित रखने में सफल होने पर भी महिपाल के समय से गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का विघटन प्रारंभ हो गया। 915-16 ई. में भारत भ्रमण करने वाले बगदाद के यात्री अल मसूदी ने कन्नौज के प्रतिहार सम्राट की शक्ति तथा संपन्नता की चर्चा की है। राजशेखर ने भी इसकी विजयों तथा कन्नौज की समृद्धि का वर्णन किया है। महिपाल के बाद महेन्द्र पाल द्वितीय, देवपाल, विनायक पाल द्वितीय, महिपाल द्वितीय तथा विजयपाल जैसे निर्बल शासकों के काल में प्रतिहार साम्राज्य के विघटन की गति तेज हो गयी। 963 ई. के लगभग इंद्र तृतीय के दुबारा उत्तरी भारत पर आक्रमण के कारण मध्य भारत में प्रतिहार आधिपत्य समाप्त सा हो गया। साथ ही कन्नौज की केन्द्रीय शक्ति पर भी आघात लगा। प्रतीहारों के सामंत गुजरात के चालुक्य, जेजाकभुक्ति के चंदेल, ग्वालियर के कच्छपघात, मध्य भारत के कलचुरी, मालवा के परमार, दक्षिण राजस्थान के गुहिल, शाकंभरी के चौहान (चाहमान) आदि प्रांतीय तथा क्षेत्रीय स्तर पर स्वतंत्र हो गए। 1018 ई. में महमूद गजनवी ने राज्यपाल पर भीषण आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया। बाद में चंदेल शासक गंडदेव तथा विद्याधर ने राज्यपाल की हत्या करने के बाद उसके लङके त्रिलोचनपाल को कन्नौज का शासक बनाया जिसे 1019 ई. में महमूद गजनवी ने पराजित किया। इस वंश का अंतिम शासक यशपाल 1036 ई. तक एक छोटे राज्य का शासक बना रहा। हर्ष के बाद प्रतीहार शासकों ने उत्तरी भारत को राजनीतिक एकता प्रदान की और अरबों को सिंध से आगे नहीं बढने दिया। कन्नौज पर आधिपत्य के लिये होने वाले त्रिपक्षीय संघर्ष का अंत भी प्रतिहार वंश के अंत के साथ ही हो जाता है।

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