इतिहासराजस्थान का इतिहास

रणथंभौर और दिल्ली सल्तनत

रणथंभौर और दिल्ली सल्तनत

रणथंभौर और दिल्ली सल्तनत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

रणथंभौर, जयपुर से दक्षिण-पूर्व की दिशा में स्थित है। यहाँ का विशाल दुर्ग एक पथरीले पठार पर, जो कि समुद्र की सतह से 1578 फुट की ऊँचाई पर है, बसा हुआ है। दुर्ग के चारों ओर सघन जंगल से आच्छादित पहाङियाँ फैली हुई हैं। सवाई माधोपुर रेलवे जंक्शन से उत्तर-पूर्व में लगभग 5-6 मील की यात्रा के बाद दुर्ग तक पहुँचा जा सकता है।

इतिहासकार अमीर खुसरो के अनुसार यह दिल्ली से दो सप्ताह की यात्रा की दूरी पर स्थित था और परिधि में तीन कोल लंबी एक ठोस दीवार से घिरा था। सैनिक तथा सामरिक दृष्टि से दिल्ली सल्तनत की सुरक्षा के लिये अथवा उस पर आक्रमण करने के लिये इस दुर्ग का अत्यधिक महत्त्व था।

कुतुबुद्दीन ऐबक ने पृथ्वीराज चौहान के पुत्र गोविन्दराज से अजमेर लेकर उसे रणथंभौर का छोटा-सा राज्य प्रदान किया था। गोविन्दराज ने दिल्ली सल्तनत के प्रति स्वामिभक्ति प्रदर्शित की थी और अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार भी किया। परंतु बाद में वल्लनदेव के व्यवहार में अंतर आ गया और वह दिल्ली सल्तनत की अवज्ञा करने लग गया। इसलिए 1226 ई. में सुल्तान इल्तुतमिश को उसके विरुद्ध अभियान करना पङा।

वल्लनदेव जंगलों में भाग गया और रणथंभौर पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। इल्तुतमिश ने दुर्ग की रक्षा के लिये अपने अधिकारों एवं सैनिक नियुक्त किये और वापस दिल्ली लौट गया। उसके लौटते ही चौहान सरदारों ने रणथंभौर के आस-पास के क्षेत्रों पर अपना अधिकार जमा लिया, परंतु वे रणथंभौर का दुर्ग नहीं जीत पाये। उस पर मुसलमानों का अधिकार बना रहा।

रणथंभौर

बागभट्ट का उदय

हम्मीर महाकाव्य तथा अन्य साक्ष्यों से पता चलता है कि वल्लनदेव के बाद क्रमशः प्रहलाद तथा वीर नारायण रणथंभौर के चौहानों के राजा बने। दोनों का शासनकाल अल्प समय के लिये रहा। वीरनारायण के बाद बागभट्ट चौहानों की गद्दी पर बैठा। वह एक वीर सैनिक, पराक्रमी सेनानायक तथा निपुण राजनीतिज्ञ था।

संयोगवश, दिल्ली सल्तनत इस समय राजनीतिक अस्थिरता तथा अव्यवस्था के दौर से गुजर रही ती। 1236 ई. में सुल्तान इल्तुतमिश की मृत्यु हो गयी। उसकी पुत्री रजिया के अलावा उसके तीनों पुत्र सल्तनत की जिम्मेदारी संभालने में सर्वथा अयोग्य निकले। तुर्की अमीरों ने इल्तुतमिश की अंतिम इच्छा की अवज्ञा करते हुये उसके बङे पुत्र रुक्नुद्दीन फिरोजशाह को सिंहासन पर बैठा दिया।

उसकी माँ शाह तुर्कान के अत्याचारों तथा रुक्नुद्दीन की विलासिता से संपूर्ण सल्तनत में अव्यवस्था फैल गई। इस स्थिति का लाभ उठाकर बागभट्ट ने रणथंभौर के आस-पास के क्षेत्रों को अपने अधिकार में ले लिया और रणथंभौर के दुर्ग का घेरा डाल दिया। इसके कुछ दिनों बाद ही रजिया दिल्ली के सिंहासन पर बैठी।

उस समय जैसा की इतिहासकार मिनहाज ने लिखा है, रणथंभौर दुर्ग में तैनात तुर्क सेना की स्थिति काफी संकटप्रद हो चुकी थी। ज्योंही रजिया को सही जानकारी मिली, उसने मलिक कुतुबुद्दीन हसन गोरी को रणथंभौर के विरुद्ध अभियान का आदेश दिया। उसके समय पर पहुँच जाने से दुर्गरक्षक तुर्क सेना सर्वनाश से बच गई।

बागभट्ट ने दुर्ग का घेरा उठा लिया परंतु दुर्ग के चारों तरफ अपने सैनिक दस्तों को नियुक्त करते तुर्कों को इतना अधिक परेशान किया कि तुर्कों के लिये अब अधिक समय तक टिके रहना संभव नहीं रहा। ऐसी स्थिति में रजिया ने रणथंभौर दुर्ग को को अपने अधिकार में बनाये रखने का विचार त्याग दिया और रणथंभौर में नियुक्त तुर्की सेना को वापिस बुला लिया ।

तुर्क सेना ने वापस लौटने से पूर्व दुर्ग की चहारदीवारी को नष्ट कर दिया। तुर्की सेना रणथंभौर से हटते ही बागभट्ट ने दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया और इसे अपनी राजधानी बनाकर शासन करने लगा।

सुल्तान रजिया के शासन के अंतिम दो वर्ष अपने विद्रोही अमीरों के विद्रोह को दबाने में व्यतीत हुए और अंत में सिंहासन से हाथ धोना पङा। 12 अप्रैल, 1240 को उसके भाई बहरामशाह को सिंहासन पर बैठा दिया। उसने 10 मई, 1242 तक शासन किया। उसका अधिकांश समय भी विद्रोही अमीरों तथा मंगोलों के विरुद्ध संघर्ष में व्यतीत हुआ। इसलिये वह भी राजपूतों के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठा पाया।

अंत में उसे मौत के घाट उतार दिया गया और रुक्नुद्दीन के लङके अलाउद्दीन मसूल को सुल्तान बनाया गया। नये सुल्तान ने लगभग चार वर्ष तक शासन किया। 1246 ई. में उसे सिंहासन से हटाकर नासिरुद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया गया। नये सुल्तान ने लगभग बीस वर्ष तक शासन किया। उसके शासन काल के अधिकांश समय तक शासन की संपूर्ण सत्ता उलूग खाँ (आगे चलकर बलबन के नाम से विख्यात) के हाथों में रही।

नासिरुद्दीन महमूद के तीसरे वर्ष में (1247-48ई.) मेवात और रणथंभौर के विरुद्ध एक सैनिक अभियान किया गया। इस अभियान का नेतृत्व बलबन ने किया था।

इतिहासकार मिनहाज के अनुसार इस समय रणथंभौर पर बहारदेव शासन कर रहा था। आधुनिक इतिहासकारों के मतानुसार बागभट्ट ही मिनहाज का बहारदेव था। बागभट्ट ने सफलतापूर्वक तुर्क सेना का प्रतिरोध किया। इस संघर्ष में राजपूतों ने तुर्कों के एक प्रसिद्ध सेनानायक मलिक बहाउद्दीन को मार डाला। ऐसी प्रतीत होता है कि बलबन के नेतृत्व में किया गया यह अभियान केवल आतंक पैदा करने की दृष्टि से ही किया गया था।

क्योंकि तुर्क सेना आसपास के स्थानों पर लूटमार करती हुई वापिस लौट गयी। 1253 ई. में बलबन को नाइब के पद से हटा दिया गया और उसे पहले हांसी और फिर नागौर का इक्तेदार नियुक्त किया गया। नागौर के इक्तेदार के पद पर कार्य करते हुये 1253-54 ई. में बलबन ने रणथंभौर पर पुनः आक्रमण किया।

मिनहाज के अनुसार इस बार भी चौहान नरेश ने अपने पैदल एवं घुङसवार सैनिकों के साथ तुर्क सेना का कङा प्रतिरोध किया। परिणामस्वरूप बलबन को लूट में प्राप्त थोङे से घोङे और युद्ध बंदियों से ही संतुष्ट होकर वापस लौटना पङा। 1258-59 ई. में बलबन ने तीसरी बार रणथंभौर के विरुद्ध सैनिक अभियान का आदेश दिया। इस बार उसने अपने एक विश्वस्त सेनानायक मल्लिक उल नवाब ऐबक को भेजा परंतु उसे भी असफल होकर वापिस लौटना पङा।

संक्षेप में, सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद के शासन में किये गये तमाम सैनिक अभियान असफल रहे। यही कारण है कि मुस्लिम इतिहासकारों ने सैनिक अभियानों का विस्तृत ब्यौरा नहीं दिया है। उत्तर-पश्चिम में मंगोलों की उपस्थिति के कारण इस समय दिल्ली सल्तनत काफी नाजुक स्थिति में थी। इसलिये वह राजपूतों के विरुद्ध व्यापक संघर्ष छेङने में असमर्थ थी।

नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के बाद 1266 ई. में बलबन दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। अपने 20 वर्षों के शासनकाल में उसका मुख्य ध्यान आंतरिक अव्यवस्था और उपद्रवों के दमन,मंगोलों को सल्तनत की सीमाओं से दूर रखने तथा दोआब एवं अन्य स्थानों के हिन्दू विद्रोहियों के दमन तक सीमित रहा।

इसके अलावा उसने सुल्तान के पद की प्रतिष्ठा और गरिमा को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया। ऐसी स्थिति में प्रबल इच्छा होते हुये भी वह राजपूतों के विरुद्ध कोई सैनिक अभियान न कर पाया। परंतु उसने पूर्वी राजस्थान के मेवातियों का अवश्य दमन किया।

हम्मीरदेव चौहान

हम्मीरदेव चौहान – बागभट्ट के बाद जयसिम्हा रणथंभौर का शासक बना। दिल्ली सल्तनत की स्थिति को देखते हुये यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसने राजस्थान में चौहान शक्ति को पुनः प्रभावशाली बनाने का पूरा-पूरा प्रयास किया था। उसने अपने जीवनकाल में ही अपने छोटे पुत्र हम्मीरदेव को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था। अतः जयसिम्हा के बाद हम्मीरदेव रणथंभौर का शासक बना और इसके साथ ही रणथंभौर के इतिहास का एक नया अध्याय प्रारंभ होता है।

वह रणथंभौर के चौहान शासकों में अंतिम परंतु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शासक था और उसके शासनकाल की जानकारी अनेकानेक ऐतिहासिक साधनों से प्राप्त होती है…अधिक जानकारी

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : रणथंभौर और दिल्ली सल्तनत

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