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दक्षिण भारत में कृषि कार्य

संगम काल के बाद में दक्षिण भारत में कृषि का खूब विकास हुआ। इस समय जंगलों की कटाई कर अधिकाधिक भूमि को कृषि योग्य बनाया गया। भूमि का स्वामी होना सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक था। अतः समाज के सभी वर्णों के लोग कृषि कर्म में रुचि लेने लगे। समाज के वे लोग, जिनके पास काफी भूमि होती थी, मजदूरों की सहायता से खेती करवाते थे। छोटे किसान स्वतः खेती करते थे।

शूद्रवर्ण के स्त्री-पुरुष खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करते थे, जिन्हें बदले में अनाज दिया जाता था।

भूमि की उर्वरता के आधार पर उसे कई श्रेणियों में बाँटा गया था – उर्वरा, बंजर, परती, रेतीली, काली, पीली आदि।

अभिधानरत्नमाला नामक ग्रंथ में घास के मैदान वाली (शाद्वल), सरकंडेवाली (नड्वल), वर्षा के जल से सींची जाने वाली, नदियों एवं तालाबों के जल से सींची जाने वाली आदि भूमियों का भी उल्लेख मिलता है।

चोल लेखों से पता चलता है, कि भूमि की श्रेणी को ध्यान में रखकर ही करों का निर्धारण किया जाता था। कई श्रेणियों की भूमि का उल्लेख भी हमें मिलता है।

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चालुक्य लेखों में सींची जाने वाली, बागवानी वाली और बंजर भूमि के अलावा काली मिट्टी तथा लाल मिट्टी वाली भूमि की विशेष रूप से चर्चा की गयी है। सिंचाई वाली भूमि को भी उर्वरता के आधार पर कई किस्मों में बाँटा जाता था। ब्राह्मणों को दान (अग्रहार) में दी जाने वाली भूमि को ब्रह्मदेय, मंदिरों को दी गयी भूमि को देवदान तथा भोजनालयों को दी गयी भूमि को शालभोग कहा गया है।

चोल शासक सुन्दरचोलकालीन अनबिल अनुदान पत्र अनिरुद्ध ब्रह्माधिराज नामक ब्राह्मण को दी गयी भूमि का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत करता है-

इस प्रकार वर्णित भूमि की सीमा को टीले बनाकर तथा नागफनी के पौधे रोपकर निश्चित कर दिया। इस भूमि में कई वस्तुयें जैसे – फलदार वृक्ष, पानी, भूमि, कटिकायें, सभी उगने वाले पेङ, गहरे कुएँ, खुले मैदान, घास के मैदान, ग्राम स्थान, बल्मीक, वृक्षों के चारों ओर बने चबूतरे, नहरे, खाइयाँ, नदियाँ तथा उनसे मिलने वाली वस्तुएँ, तालाब, अनाजों के गोदाम, मछलियों के कुण्ड, मधुमखियों के छत्ते सहित दरारें, गहरे कुण्ड भी शामिल हैं, न्याय से प्राप्त आय पान के पत्ते, हतकरघे के वस्त्रों पर लगने वाला कर… वह प्रत्येक वस्तु, जिसे राजा प्राप्त कर सकता और उपयोग कर सकता है, ये ऐसी वस्तुयें इस व्यक्ति को दी जायेंगी। उसे उस भूमि में पक्की ईंटों के विशाल भवन बनवाने, छेटे-बङे कुएँ खुदवाने, दक्षिणी लकङी तथा थूहर उगाने, सिंचाई की आवश्यकतानुसार नहरें खुदवाने, फालतू पानी को सिंचाई के लिये तालाबों में एकत्र कराने का अधिकार होगा। उसकी भूमि से कोई अन्य पानी नहीं ले सकेगा। एतद्वारा पहले का आदेश बदल दिया गया तथा पुराना नाम और कर समाप्त कर करुणामंगलम् नाम से एकभोगब्रह्मदेय अर्थात् एक ही ब्राह्मण के भोग के निमित्त दिया गया भूमि अनुदान का प्रबंध कर दिया गया।
चोलकालीन भूमि तथा कर व्यवस्था

इसी प्रकार राष्ट्रकूट सामंत शिलाहार वंशी रट्टराज के खारेपाटन ताम्रपत्रों में तीन गाँवों के दान का विवरण है, जहां उनसे प्राप्त होने वाली समस्त आय के दान की भी बात कही गयी है (सर्व राजकीया याम्यन्तर सिद्धम्)। गाँव में चाट-भाट का प्रवेश वर्जित था।

मीराज ताम्रपत्रों (1024ई.) के अनुसार गाँव के दान, उसकी धान्य और समस्त आय, उसकी निधियों और निक्षेपों के साथ दिया गया था। राजकीय अधिकारी इसकी ओर किसी प्रकार की उंगली नहीं उठा सकते थे, गाँव पर कोई कर अथवा बाधा नहीं लगाई जा सकती थी तथा सभी को इसका पालन करना पङता था।

भारतीय इतिहास से स्पष्ट है, कि अनुदान में दी जाने वाली भूमि करमुक्त होती थी तथा उसमें स्थित समस्त चारागाहों, खानों,वनस्पतियों, निधियों सहित आय के सभी स्त्रोतों पर दानग्राही का अधिकार हो जाता था।

भारतीय इतिहास के प्रत्येक युग में कृषि के लिये सिंचाई की आवश्यकता को समझा गया है। सिंचाई अधिकांश वर्षा के जल से होती थी।चूँकि वर्षा प्रत्येक समय तथा आवश्यकता के अनुरूप नहीं होती थी, अतः शासकों द्वारा सिंचाई के कृत्रिम साधनों का प्रबंध करवाया गया।इससे पहले के समय में हम देखते हैं, कि चंद्रगुप्त मौर्य ने पश्चिमी भारत में सिंचाई की सुविधा के लिये इतिहास प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। शक महाक्षत्रप रुद्रदामन् एवं गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त के काल में उस झील के बाँध का निर्माण तथा पुनर्निर्माण करवाया गया था।इस परंपरा का अनुकरण करते हुये दक्षिण के शासकों ने भी कृषि को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिये सिंचाई के साधनों की उत्तम व्यवस्था करवाई थी।

सिंचाई अधिकतर नदियों द्वारा होती थी। नहरों की सहायता से नदियों का जल खेतों में पहुँचाया जाता था। किन्तु ऐसी नदियों की संख्या कम थी, जिनमें सदा जल भरा रहे। अतः स्थान-स्थान पर तालाब खुदवाकर उनमें जल एकत्रित कर लिया जाता था।

इनके रख-रखाव की समुचित व्यवस्था की जाती थी। प्राचीन साहित्य तथा लेखों में जलाशयों के लिये वापी और तटाक शब्द मिलते हैं। वापी से तात्पर्य संभवतः छोटे जलकुण्ड से है, जबकि तटाक बङे जलाशयों का द्योतक है। कुएँ खुदवाने की भी प्रथा थी। चोल शासकों ने कृषकों को पानी उपलब्ध कराने के लिये कावेरी नदी के तट पर कई बाँधों का निर्माण करवाया था।

लेखों में कई तालाबों का उल्लेख प्राप्त होता है – कलिनंगै, बाहूर, कुलय, चोलवारिधि आदि। चोलों द्वारा श्रीरंगम् टापू के नीचे बनवाया गया बाँध सबसे महत्त्वपूर्ण था, जिसकी लंबाई 1240 मीटर तथा चौङाई लगभग 20 मीटर थी। चोल लेखों से पता चलता है, कि ग्राम सभा का एक मुख्य कार्य तालाबों का निर्माण तथा उनकी व्यवस्था देखना था। इसके लिये ग्राम सभाओं के अन्तर्गत सिंचाई समितियाँ बनी हुई थी। पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन ने महेन्द्रवाडि में एक विशाल तालाब का निर्माण करवाया था। राजेन्द्र चोल के समय में गंगैकोम्डचोलपुरम् में एक तालाब खुदवाया था। कल्याणी के चालुक्यों के समय में चेब्रोलु (गुण्डुर) में एक तालाब का निर्माण करवाया था। इसके अलावा चैत्यतटाक, भीमसमुद्रतटाक आदि का उल्लेख भी मिलता है। कदंबवंश के राजा काकुत्सवर्मा के समय में एक तालाब का निर्माण करवाया गया था। होट्टर के पास लाल तालाब स्थित था। बीजापुर जिले के मेन्टुर में रट्ट सरोवर था। इसी प्रकार चिलमकारू (कुडप्पा) में खोदे गये एक तालाब का विवरण भी मिलता है। चालुक्य राजाओं द्वारा बनवाये गये अनेक तालाबों का विवरण भी मलिता है। प्राचीन साहित्य में तथा लेखों में इसे अत्यन्त पुनीत कर्त्तव्य बताया गया है। शासकों के अलावा सामंत, व्यापारी तथा अन्य धर्मप्राण व्यक्ति भी पुण्यार्जन हेतु तालाबों एवं कूँओं का निर्माण करवाते थे।

दक्षिण के विभिन्न भागों में कई प्रकार के अन्नों का उत्पादन होता था। तत्कालीन साहित्य से इस समय पैदा होने वाली विभिन्न प्रकार की फसलों जैसे – चावल, सरसों, निवार, मसूर, ईख, गेहूँ, जौ, मटर, मूंग, उङद, तिल, जर्तिल, नारियल, अलसी आदि के विषय में सूचना मिलती है. खाद्यान तथा दलहन की खेती के साथ-साथ सब्जियों तथा व्यापारिक फसलों (कपास, गन्ना) का उत्पादन भी काफी मात्रा में होता था। कुछ विशेष क्षेत्र अपने विशिष्ट उत्पादनों के लिये प्रसिद्ध थे। गुजरात तथा बरार में कपास, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में बाजरा, कोंकण प्रदेश में चावल की मुख्य रूप से पैदावार होती थी। मैसूर में चंदन, सागौन तथा आबनूस की लकङियां पैदा होती थी। नारियल दक्षिण भारत का प्रमुख उत्पादन था।

मार्कोपोलो नामक यात्री पाण्ड्य देश में अदरख तथा दालचीनी की पैदावार का उल्लेख करता है।

याकूत के विवरण से पता चलता है, कि यहाँ की पहाङियों पर कपूर भी पैदा होता था।

इदरिसी लिखता है, कि मालवार की पहाङियों में इलायची की खेती की जाती थी।

इसी प्रकार इब्नसईद मालवार पहाङी पर गोलमिर्च के उत्पादन का उल्लेख करता है।

मलय पर्वत पर चंदन तथा कोईलोन में नील का उत्पादन होता था।

इस प्रकार दक्षिण भारत अपने विविध उत्पादनों के लिये प्रसिद्ध था। कहीं-कहीं पर अकाल पङने का भी उल्लेख किया गया है।

प्रबंधचिंतामणि में चालुक्य नरेश भीम के समय में पङने वाले अकाल का उल्लेख किया गया है। पेरियपुराण से पता चलता है, कि सातवीं शती में पाण्ड्य राज्य में भी महान अकाल पङा था। चोल नरेश विक्रम चोल के समय में बाढ के कारण जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था।

कुलोत्तुंग तृतीय के समय में पङने वाले एक बङे अकाल की सूचना तंजोर के लेख से मिलती है। ऐसी कठिन स्थिति में शासकों द्वारा कर माफ कर दिये जाते थे तथा अन्य राहत के कार्य किये जाते थे।

सामंतों की भूमिका

दक्षिण भारत में भूमि-अर्थव्यवस्था में सामंतों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता था। उनके पास विशाल भूखंड होते थे। सामंतों को अपने अधीन प्रजा से कर वसूलने तथा बेगार लेने का अधिकार होता था। उन्हें सेना रखने तथा प्रशासन संबंधी विशेष अधिकार होता था। वे मनमाने ढंग से जनका का शोषण किया करते थे। फलस्वरूप इस काल में खेतिहर मजदूरों की दशा अत्यन्त ही दयनीय हो गयी थी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है, कि पल्लव आदि राज्यों में सामंत शब्द का प्रयोग अधिकांशतः राजनीतिक दासता के लिये हुआ था। यहाँ सामंती अवधि तथा दायित्वों का आर्तिक अनुबंध देखने को नहीं मिलता है। सामंत शब्द का जो अर्थ प्रचलित है, उस अर्थ में सामंती प्रथा का विकास बाद में हुआ। जहाँ तक भूमस्वामियों का प्रश्न है, प्राचीन तथा पूर्व मध्यकालीन ग्रंथों से ऐसे संकेत मिलते हैं, जिनसे भूमि पर राजा तथा व्यक्ति दोनों का स्वामित्व प्रमाणित होता है। कौटिल्य तथा मनु दोनों ही भूमि पर राजा के अधिकार का समर्थन करते हैं। अर्थशास्त्र से पता चलता है, कि राज्य की ओर से कृषकों को कृषि करने के लिये भूमि प्रदान की जाती थी। यदि वह व्यक्ति ठीक से कृषि नहीं कर पाता था, तो भूमि उससे लेकर दूसरे को दे दी जाती थी। अर्थशास्त्र के टीकाकार भट्टस्वामी ने भी लिखा है, कि राजा का भूमि तथा जल दोनों पर अधिकार होता था। मनुस्मृति में कहा गया है, कि राजा भूमि में गङे हुए धन का आधा भाग प्राप्त करे, क्योंकि वह भूमि का स्वामी है।

मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि ने भी भूमि पर राजा का स्वामित्व स्वीकार किया है। सोमेश्वर, कात्यायन, मित्रमिश्र, लक्ष्मीधर जैसे पूर्वमध्यकालीन लेखकों ने भी भूमि पर राजा के अधिकार को माना है।

प्राचीन काल में राजा ने ब्राह्मणों,राज्यकर्मचारियों तथा अन्य लोगों को भूमि अनुदान दिये थे, इससे भी पता चलता है, कि भूमि पर राजा का अधिकार था।

ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं, जिनसे पता चलता है, कि भूमि पर निजी स्वामित्व भी था। मनुस्मृति में एक स्थान पर लिखा गया है, कि पुराविद् लोग पृथ्वी को पृथु की पत्नी मानते है, ठूठ, पेङ (खुत्थ) काटकर भूमि को समतल करके खेत बनाने वाले का खेत मानते हैं तथा पहले बाण मारने वाले का मृग मानते हैं।

बृहस्पति, याज्ञवल्क्य जैसे स्मृति लेखकों ने भी भूमि पर निजी स्वामित्व को मान्यता दी है। एक अन्य स्थान पर मेधातिथि ने भी भूमि पर व्यक्ति के अधिकार को मान्यता दी है। हमें इस बात का भी पता चलता है, कि प्राचीनकाल में राजा के अलावा अन्य व्यक्ति भी भूमि का अनुदान करते थे। स्थानीय समुदाय अपनी भूमि मंदिरों को दान में देते थे और इस तरह भूमि निजी संपत्ति बन जाती थी। राष्ट्रकूट अमोघवर्ष के समय एलपुणुस के चालीस महाजनों ने एक पंडित को 85 मत्तर भूमि दान में दी थी। सौनदत्ति में प्राप्त एक लेख से पता चलता है, कि एक जैन मंदिर को 50 कृषकों की सहमति से भूमि अनुदान में दी गयी थी। अतः इस संबंध में वास्तविकता यह प्रतीत होती है,कि भूमि के ऊपर एक ही समय में राजा तथा व्यक्ति दोनों का स्वामित्व होता था। सिद्धान्ततः यह राजा के पास होता था, किन्तु उपयोग के लिये उसे व्यक्ति विशेष को सौंप दिया जाता था।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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