चोल कालीन भूमि तथा राजस्व
चोल राज्य की आय का मुख्य साधन भूमिकर था। भूमिकर ग्राम-सभायें एकत्र करके सरकारी खजाने में जमा करती थी। इसके लिये शासकों ने समस्त भूमि की माप करायी तथा उसकी उत्पादकता के आधार पर कर का निर्धारण किया। यह आधे से लेकर चौथाई भाग तक होता था। राजराज प्रथम तथा कुलोत्तुंग प्रथम के समय में क्रमशः एक और दो बार भूमि की माप कराई गयी थी। भूमि की बारह से भी अधिक किस्मों का उल्लेख मिलता है। प्रत्येक ग्राम तथा नगर में रहने के स्थान, मंदिर,तालाब, कारीगरों के आवास, श्मशान आदि सभी प्रकार के करों से मुक्त थे। इसी प्रकार पिंडारि (ग्राम्य-देवी) के लिये बकरों की बलि का स्थान, कुम्भकार, स्वर्णकार, लौहकार, रजक, बढई आदि के निवास स्थानों को भी करमुक्त रखा गया था। राजस्व विभाग की पंजिका को वरित्योत्तगककणक्क कहा जाता था, जिसमें सभी प्रकार की भूमि के ब्योरे दर्ज किये जाते थे। कृषकों को यह सुविधा थी, कि वे भूमिकर नकद अथवा द्रव्य के रूप में चुकायें।
चोलों के स्वर्ण सिक्के कलंजु या पोन् कहे जाते थे। अकाल आदि दैवी आपदाओं के समय भूमिकर माफ कर दिया जाता था। दक्षिण में तालाब की सिंचाई के प्रमुख साधन थे, जिनके रख-रखाव की जिम्मेदारी ग्राम सभाओं की होती थी। तालाबों की मरम्मत के लिय एरिआयम् नामक कर भी वसूल किया जाता था। कभी-कभी करों को वसूलते समय जनता के साथ कठोर व्यवहार किया जाता था, जिससे उन्हें कष्ट होता था। लोगों को पानी में डुबो देने अथवा धूप में खङे कर देने का भी उल्लेख मिलता है। एक स्थान पर उल्लेख मिलात है, कि तंजोर के कुछ ब्राह्मण लगान चुकाने में असमर्थ होने पर अपनी जमीनें छोङकर गाँव से भाग गये तथा उनकी जमीने पङोस के मंदिर को बेंच दी गयी।
यदि भूस्वामी भूमिकर नहीं देता था, तो कुछ समय के बाद उसकी भूमि दूसरे के हाथ बेच दी जाती थी। राजेन्द्र चोल के समय में यह अवधि तीन वर्ष तथा कुलोत्तुंग के समय में दो वर्ष की थी। बकाये कर पर ब्याज भी लिया जाता था। चोल इतिहास के परवर्ती युग में केन्द्रीय शक्ति के निर्बल होने पर स्थानीय पदाधिकारी मनमाने ढंग से प्रजा का उत्पीङन करने लगे। जनता द्वारा अन्यायपूर्ण करों के विरुद्ध विद्रोह किये जाने के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं। राजराज तृतीय तथा कुलोत्तुंग प्रथम के काल में इस प्रकार के विद्रोह किये गये।
भूमिकर के अलावा व्यापारिक वस्तुओं, विभिन्न व्यवसायों, खानों, उत्सवों आदि पर भी कर लगते थे। आर्थिक जुर्माने से भी राज्य को बहुत अधिक धन प्राप्त होता था। नगरों में बेची जाने वाली वस्तुओं पर कर वसूल करने का काम नगरम् द्वारा किया जाता था। एक लेख में तट्टोपाट्टम् (स्वर्णकारों), नमक (उप्पायम्),जल स्त्रोतों (ओल्लुकुनीर पाट्टाम्),बाट-माप (इर्डेवरि) दुकानों (इंगाडिपाट्टम) आदि करों का उल्लेख मिलता है, जिन्हें वसूल करने का अधिकार नगरम् को ही था। नगर की सभा को नगरत्तार कहा जाता था। जिसमें व्यापारिक समुदाय के लोग शामिल थे। राज्य की आय का व्यय अधिकारीतंत्र, निर्माण-कार्यों, दान, यज्ञ महोत्सव आदि पर होता था।
चोल लेखों में विभिन्न प्रकार के करों का उल्लेख मिलता है, जैसे – आयम (राजस्व), कुडिमै (लगान), मरमज्जाडि (वृक्षकर), किडाककाशु (नर पशु पर लगने वाला कर),पाडिकावल (गाँव की रक्षा करने के लिये लिया जाने वाला कर), वाशल्तिरमम् (द्वारकर), मनैइरै (भवन-कर), कडैइरै (दुकानों पर लगने वाला कर), आजीवकक्काशु (आजीवकों पर लगने वाला कर), पेवरि (तेलियों से लिया जाने वाला कर), मगन्मै (कुम्हार, लुहार, सुनारों आदि से लिया जाने वाला कर) आदि। अनेक करों का अर्थ स्पष्ट नहीं है। राजस्व विभाग के प्रमुख अधिकारी वरित्पोत्तगकक कहलाते थे, जो अपने-अपने अधिकार क्षेत्र के आय-वय्य का हिसाब रखते थे।
References : 1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव
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