प्राचीन भारतइतिहास

महाक्षत्रप रुद्रदामन का इतिहास

चष्टन की मृत्यु के बाद उसका पौत्र रुद्रदामन पश्चिमी भारत के शकों का राजा हुआ। वह अभी तक भारत में शासन करने वाले शक शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली एवं महत्त्वपूर्ण था। जूनागढ (गिरनार) से शक संवत् 72 (150ईस्वी) का उसका एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। यह प्रशस्ति के रूप में है। इससे उसकी विजयों, व्यक्तित्व एवं कृतित्व का विवरण प्राप्त होता है।

रुद्रदान का जूनागढ अभिलेख कहाँ स्थित है

जूनागढ अभिलेख से पता चलता है,कि सभी जातियों के लोगों ने रुद्रदामन् को अपना रक्षक चुना था। तथा उसने महाक्षत्रप की उपाधि स्वयं धारण की थी। इससे पता चलता है, कि उसके पूर्व शकों की शक्ति निर्बल पङ गयी थी, जिसे अपने बाहुबल से रुद्रदामन ने पुनः प्रतिष्ठित किया। वह एक महान विजेता था।

जूनागढ अभिलेख में निम्नलिखित स्थानों की विजय करने का श्रेय उसे प्रदान किया गया है-

आकर-अवंति-

इन प्रदेशों से तात्पर्य पूर्वी तथा पश्चिमी मालवा से है। आकर की राजधानी विदिशा तथा अवंति की राजधानी उज्जयिनी में थी।

अनूप –

नर्मदा तट पर स्थित माहिष्मती में यह प्रदेश स्थित था। इस स्थान की पहचान मध्य प्रदेश के निमाङ जिले में स्थित माहेश्वर अथवा मान्धाता से की जाती है।

अपरांत-

इससे तात्पर्य उत्तरी कोंकण से है। इसकी राजधानी शूर्पारक में थी। प्राचीन साहित्य में इस स्थान का प्रयोग पश्चिमी देशों को इंगित करने के लिये किया गया है। महाभारत में इसे परशुराम की भूमि बताया गया है।

आनर्त तथा सुराष्ट्र –

यह उत्तरी कोंकण का क्षेत्र था।पहले इसकी राजधानी द्वारका तथा दूसकी इसकी राजधानी गिरिनार में थी। ये सभी वर्तमान में गुजरात प्रांत में हैं।

कुकुर-

यह आनर्त का पङोसी राज्य था। डी.पी. सरकार के अनुसार यह उत्तरी काठियावाङ में स्थित था।

स्वभ्र-

गुजरात की साबरमती नदी के तट पर यह प्रदेश स्थित था।

मरु-

इस स्थान की पहचान राजस्थान स्थित मारवाङ से की जाती थी।

सिंध तथा सौवीर-

निचली सिंधु घाटी के क्रमशः पश्चिम तथा पूर्व की ओर ये प्रदेश स्थित थे। कनिष्क के सुई-बिहार लेख से निचली सिंधु घाटी पर उसका अधिकार प्रमाणित होता है। ऐसा लगता है,कि रुद्रदामन ने कनिष्क के उत्तराधिकारियों को हराकर इस भूभाग पर अपना अधिकार कर लिया था।

निषाद-

महाभारत में इस स्थान का उल्लेख मत्स्य प्रदेश के बाद मिलता है, जिससे सूचित होता है, कि यह उत्तरी राजस्थान में स्थित था। यही विनशन तीर्थ था। बूलर ने निषाद देश की स्थिति हरियाणा के हिसार-भटनेर क्षेत्र में निर्धारित की ही।

जूनागढ अभिलेख से ही ज्ञात होता है, कि रुद्रदामन ने दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णी को दो बार पराजित किया। यह पराजित नरेश वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी था। नासिक अभिलेख से पता चलता है, कि गौतमीपुत्र शातकर्णी असिक, अस्मक, मूलक, कुकुर, अपरांत, अनूप, विदर्भ, आकर तथा अवंति का शासक था।

नासिक गुहा अभिलेख किस शासक का है

इन अभिलेखों की जानकारी से ऐसा प्रतीत होता है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी की मृत्यु के बाद रुद्रदामन ने उसके उत्तराधिकारी वासिष्ठीपुत्र पुलुमावी से ये सभी प्रदेश जीत लिये थे।

सिंध-सौवीर क्षेत्र को उसने कनिष्क के उत्तराधिकारियों से जीता था। जूनागढ अभिलेख स्वाभिमानी तथा अदम्य यौधेयों के साथ उसके युद्ध तथा उनकी पराजय का भी उल्लेख करता है, जिन्होंने संभवतः उत्तर की ओर से उसके राज्य पर आक्रमण किया था।

यौधेय गणराज्य पूर्वी पंजाब में स्थित था। वे अत्यंत वीर तथा स्वाधीनता प्रेमी थे। पाणिनी ने उन्हें आयुधजीवी संघ, अर्थात् शस्रों के सहारे जीवित रहने वाला कहा है। यौधेयों को पराजित कर रुद्रदामन ने उन्हें अपने नियंत्रण में कर लिया तथा उसका राज्य उनके आक्रमणों से सदा के लिये सुरक्षित हो गया।

प्रजापालक सम्राट के रूप में-

महान् विजेता होने के साथ-2 रुद्रदामन एक प्रजापालक सम्राट भी था। जूनागढ अभिलेख से पता चलता है, कि उसके शासन-काल में सुराष्ट्र में सुदर्शन झील, जिसका निर्माण चंद्रगुप्त के समय में हुआ था तथा अशोक के समय में इससे नहरें निकलवायी गयी थी, सुदर्शन झील का बाँझ भारी वर्षा के कारण टूट गया था। उसमें 24 हाथ लंबी, इतनी ही चौङी और 75 हाथ गहरी दरार बन गयी।

जिसके परिणामस्वरूप झील का सारा पानी बह गया।इस दैवी विपत्ति के कारण जनता का जीवन अत्यंत कष्टमय हो गया तथा चारों ओर हाहाकार मच गया।

इस झील के पुनर्निर्माण में बहुत अधिक धन की आवश्यकता थी, अतः उसकी मंत्रिपरिषद ने इस कार्य के लिये धन व्यय किये जाने की स्वीकृति नहीं प्रदान की। परंतु रुद्रदामन ने जनता पर बिना कोई अतिरिक्त कर लगाये ही अपने व्यक्तिगत कोष से धन देकर अपने राज्यपाल सुविशाख के निर्देशन में बाँध की फिर से मरम्मत करवाई तथा उससे तिगुना मजबूत बाँध बनवा दिया।

रुद्रदामन के समय में आनर्त-सुराष्ट्र प्रांत का शासक सुविशाख था।

रुद्रदामन की एक मंत्रिपरिषद थी, जिसमें दो प्रकार के मंत्री होते थे-

  1. मतिसचिव – ये उसके व्यक्तिगत सलाहकार होते थे।
  2. कर्मसचिव -ये कार्यकारी मंत्री तथा कार्यपालिका के अधिकारी होते थे।इन्हीं में से राज्यपाल कोषाध्यक्ष, अधीक्षक आदि की नियुक्ति करता था।

रुद्रदामन अपने प्रशासनिक कार्य मंत्रिपरिषद की परामर्श से ही करता था। यह शक्ति संपन्न होते हुए भी निरंकुश शासक नहीं था। जूनागढ अभिलेख में रुद्रदामन को भ्रष्ट-राज-प्रतिष्ठापक कहा गया है।

रुद्रदामन उच्च कोटि का विद्वान तथा विद्या प्रेमी था। वह वैदिक धर्मानुयायी था। रुद्रदामन ने संस्कृत भाषा को राज्याश्रय प्रदान किया।

रुद्रदानन का जूनागढ अभिलेख विशुद्ध संस्कृत भाषा में लिखा गया है।

रुद्रदामन के समय में उज्जयिनी शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बन गया था।

रुद्रदामन का शासन-काल 130 ईस्वी से 150 ईस्वी तक स्वीकारा गया है।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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