इतिहासराजस्थान का इतिहास

हम्मीरदेव चौहान का इतिहास

हम्मीरदेव चौहान का इतिहास

हम्मीरदेव चौहान का इतिहास (History of Hammirdev Chauhan)

हम्मीरदेव चौहानबागभट्ट के बाद जयसिम्हा रणथंभौर का शासक बना। दिल्ली सल्तनत की स्थिति को देखते हुये यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसने राजस्थान में चौहान शक्ति को पुनः प्रभावशाली बनाने का पूरा-पूरा प्रयास किया था। उसने अपने जीवनकाल में ही अपने छोटे पुत्र हम्मीरदेव को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था।

अतः जयसिम्हा के बाद हम्मीरदेव रणथंभौर का शासक बना और इसके साथ ही रणथंभौर के इतिहास का एक नया अध्याय प्रारंभ होता है। वह रणथंभौर के चौहान शासकों में अंतिम परंतु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शासक था और उसके शासनकाल की जानकारी अनेकानेक ऐतिहासिक साधनों से प्राप्त होती है।

मुस्लिम इतिहासकारों, अमीर खुसरो तथा जियाउद्दीन बरनी की रचनाओं के अलावा न्यायचंद्र सूरी के हम्मीर महाकाव्य, चंद्रशेखर के सुर्जन चरित्र और बाद में लिखे गये हिन्दी ग्रन्थों – जोधराजकृत हम्मीर रासो तथा चंद्रशेखर के हम्मीर हठ में हमें हम्मीर की शूरवीरता तथा विजयों का विस्तृत विवरण मिलता है।

हम्मीरदेव चौहान की दिग्विजय की नीति

हम्मीरदेव चौहान

हम्मीर महाकाव्य जिसके रचयिता न्यायचंद्र सूरी हैं के अनुसार रणथंभौर के सिंहासन पर बैठते ही युवक राणा हम्मीर ने दिग्विजय की नीति का पालन करते हुये आसपास के क्षेत्रों को जीतने का निश्चय किया। तदनुसार उसने सर्वप्रथम भीमरस के राजा अर्जुन को परास्त किया और इसके बाद मांडलकृता या माण्डलगढ से भेंट वसूल की।

हरविलास शारदा के अनुसार माण्डलगढ गद्यामंडला क्षेत्र में था। इसके बाद हम्मीर दक्षिण की ओर मुङा और अपनी विजयी सेना के साथ उज्जैन और धार तक जा पहुँचा। यहाँ उसने परमार शासक भोज को पराजित किया। यहाँ से हम्मीर उत्तर दिशा की तरफ मुङा और चित्तौङ, आबू, वर्धनपुर, चंगा, पुष्कर, खंडीला, चंपा और कंकरीला होता हुआ वापिस रणथंभौर पहुँच गया। इस विजय अभियान से लौटने के बाद हम्मीर ने कोटीजन का आयोजन किया जो अश्वमेघ यज्ञ जैसा ही था। यज्ञ का निर्देशन हम्मीर के राजपुरोहित विश्वरूप ने किया।

हम्मीर महाकाव्य में वर्णित उपर्युक्त दिग्विजय एक प्रकार से हम्मीरदेव द्वारा अलग-अलग समय में किये गये सैनिक अभियान मात्र थे जिन्हें कवि ने एक सूत्र में पिरोकर दिग्विजय का रूप प्रदान कर दिया। ये सभी अभियान 1288 ई. के पूर्व ही किये गये होंगे। हम्मीरदेव के बलवन शिलालेख में एक स्थान पर दो कोटी-यजनों का उल्लेख मिलता है।

इससे स्पष्ट है कि कोटी-यजन का महत्त्व अश्वमेघ जैसा नहीं रहा होगा। इसी शिलालेख में हम्मीर द्वारा मालवा नरेश अर्जुन की हस्ति सेना को बलपूर्वक छीनने का उल्लेख भी किया गया है। हम्मीर महाकाव्य में अर्जुन को धार के शासक भोज का संबंधी बताया गया है। हम्मीर ने भोज को धार स्थान पर पराजित किया था। कुल मिलाकर हम्मीर ने अपने जीवनकाल में 17 युद्ध लङे थे, जिनमें से 16 युद्धों में वह विजयी रहा। 17 वें तथा अंतिम युद्ध में वह दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की सेना से लङता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।

हम्मीर और दिल्ली सल्तनत

बलबन की मृत्यु के बाद उसके पुत्र बुगराखाँ के युवा पुत्र कैकूबाद को दिल्ली के सिंहासन पर बैठाया गया। उसके स्वार्थी अधिकारियों ने उसे सुरा और सौन्दर्य में डुबोकर शासन की सारी सत्ता अपने हाथों में केन्द्रित कर ली। अत्यधिक मद्यपान के कारण उसे लकवा हो गया और तुर्क सरदारों ने उसके अल्पव्यस्क पुत्र क्यूमर्स को सिंहासन पर बैठा दिया। इसके बाद षड्यंत्रों का दौर शुरू हुआ और अंत में इल्बरी तुर्कों का पतन हो गया और 13 जून, 1290 ई. को जलालुद्दीन खलजी दिल्ली सल्तनत का मालिक बन गया। इस प्रकार एक नये राजवंश का अध्याय शुरू हुआ।

यद्यपि जलालुद्दीन शांतिप्रिय था और वह काफी वृद्ध हो चला था, परंतु हम्मीर के सफल सैनिक अभियानों ने उसे भयभीत कर दिया। दिल्ली-सल्तनत की सीमा पर यह एक शक्तिशाली राजपूत राज्य की स्थापना का संकेत था जिसे वह सहन नहीं कर पाया और उसने रणथंभौर पर आक्रमण करने का निश्चय किया।

अमीर खुसरो के अनुसार मार्च, 1291ई. में सुल्तान जलालुद्दीन ने एक शक्तिशाली सेना के साथ रणथंभौर के लिये कूच किया। हम्मीर ने मुस्लिम सेना की गतिविधियों तथा उनकी संख्या के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए 500 घुङसवारों का दस्ता भेजा। संयोगवश राजपूतों के इस सैनिक दस्ते का तुर्क सेना से सामना हो गया।

तुर्कों ने इस पर जोरदार आक्रमण किया। 70 राजपूत सैनिक मारे गये और शेष संघर्ष स्थल से भाग खङे हुये। इस प्रारंभिक सफलता से सुल्तान जलालुद्दीन बङा उत्साहित हुआ और अगले दिन उसने 100 घुङसवारों के साथ अपने प्रसिद्ध सेनानायकों – मलिक खुर्रम, कुरबेग आलम, अहमद सरजिन्दर आदि को झांई पर अधिकार करने के लिये भेजा। झांई (जिसे चाइन भी कहा जाता है) की सही भौगोलिक स्थिति का निर्धारण अभी तय नहीं हो पाया है।

डॉ. अहलुवालिया के मतानुसार यह स्थान रणथंभौर के दक्षिण-पूर्व में घाटी के समीप रहा होगा। हम्मीर को जब मुस्लिम सेना के झांई की तरफ बढने की सूचना मिली तो उसने अपने सेनानायक गुरदास सैनी को 10,000 सैनिकों के साथ मुसलमानों की प्रगति को रोकने के लिये भेजा।

परंतु दोनों पक्षों के मध्य लङे गये युद्ध में सैनी मारा गया और परास्त चौहान सेना भाग खङी हुई। इसके बाद मुसलमानों ने सरलता से झांई पर अधिकार कर लिया। दूसरे दिन सुल्तान झांई के महल देखने गया। महलों की कलात्मकता से सुल्तान आश्चर्यचकित रह गया। परंतु धार्मिक प्रवृत्ति से सुल्तान को हिन्दुओं के भव्य मंदिर और कलात्मक देवप्रतिमाएँ सहन न हो सकी और उसके आदेश से उन्हें भूमिसात कर दिया गया। इसके बाद सुल्तान रणथंभौर की तरफ बढा और दुर्ग की घेराबंदी का आदेश दिया।

इस बीच, हम्मीर ने दुर्ग की रक्षा के लिये पूरी तैयारियाँ कर ली थी। दुर्ग की सुरक्षा को छिन्न-भिन्न करने के लिये सुल्तान ने अनेक प्रकार के यंत्रों का प्रयोग करने का आदेश दिया परंतु मुसलमानों को किसी प्रकार की सफलता नहीं मिली। काफी दिनों के प्रयास के बाद भी जब सफलता न मिली तो सुल्तान ने घेराबंदी उठाने तथा वापस लौट चलने का आदेश दिया।

इस अवसर पर उसके सलाहकार मलिक अहमद चप ने उसे घेराबंदी जारी रखने तथा हम्मीर का मान-मर्दन करने के लिये बहुत कुछ समझाया। परंतु सुल्तान का उत्तर था, ऐसे 10 किलों को भी मैं मुसलमान के एक बाल के बराबर महत्त्व नहीं देता। वास्तविकता यह थी कि हम्मीर की मजबूत मोर्चाबंदी को नष्ट करके रणथंभौर पर अधिकार करना बहुत ही दुष्कर कार्य था। इसके अलावा, जैसा कि तुगलकनामा से पता चलता है, हम्मीर के छापामार सैनिक दस्तों ने सुल्तान के सैनिक शिविर को काफी क्षति पहुँचाई थी। इन परिस्थितियों के अन्तर्गत जून 1291 ई. में सुल्तान ने घेरा उठाकर दिल्ली की तरफ कूच किया।

सुल्तान जलालुद्दीन को रणथंभौर के सैनिक अभियान के संदर्भ में जिस प्रकार अपमानित होना पङा, उसे वह भूल नहीं पाया। उसके लौटने के कुछ समय बाद हम्मीर ने झांई पर पुनः अधिकार कर लिया। इससे सुल्तान क्रोधित हो उठा और बरनी के मतानुसार उसने झांई की तरफ दूसरे सैनिक अभियान का आदेश दिया।

वास्तव में इस दूसरे सैनिक अभियान का ध्येय भी रणथंभौर पर अधिकार जमाना था परंतु झांई में ही उसे इतने जबरदस्त विरोध का सामना करना पङा कि मुस्लिम सेना वहीं से वापस लौट आई। इसलिये बरनी ने दूसरे अभियान का उद्देश्य केवल झांई पर आक्रमण करने का लिखा है।

जब जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर 1296 ई. में अलाउद्दीन खलजी दिल्ली का सुल्तान बना तब रणथंभौर चौहानों और दिल्ली सल्तनत के आपसी संबंधों में, एक नये दौर की शुरूआत हुई। उलाउद्दीन अत्यन्त ही महत्वाकांक्षी शासक था और वह संपूर्ण भारत को अपने शासन के अन्तर्गत लाने की आकांक्षा रखता था।

बलबन के बाद उसके अयोग्य उत्तराधिकारियों की कमजोरी का लाभ उठाकर रणथंभौर के चौहानों ने हम्मीर के नेतृत्व में अपनी शक्ति को काफी सुदृढ बना लिया था और राजस्थान के बहुत बङे भू-भाग पर अपना शासन स्थापित कर लिया था। अलाउद्दीन चौहानों की इस नवोदित शक्ति को सहन नहीं कर सकता था। अतः उसने रणथंभौर को जीतने का निश्चय कर लिया। डॉ.के.एस.लाल ने अलाउद्दीन द्वारा रणथंभौर आक्रमण के निम्नलिखित कारण बताये हैं

  • दिल्ली से उसकी निकटता
  • उसे अधिकृत करने में जलालुद्दीन की असफलता
  • उसकी सुप्रसिद्ध दुर्भेद्यता

जालौर के निकट हुए विद्रोह के नेता मुहम्मदशाह और उसके भाई केहब्रू को हम्मीर द्वारा शरण देना।

समकालीन स्रोत अलाउद्दीन के रणथंभौर अभियान के विभिन्न कारणों का उल्लेख करते हैं। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार हम्मीर द्वारा मुहम्मद को शरण देना ही आक्रमण का कारण था। मुस्लिम इतिहासकार इमामी द्वारा मुहम्मद को शरण देना ही आक्रमण का कारण था।

मुस्लिम इतिहासकार इमामी भी इस कारण की पुष्टि करता है। उसके अनुसार 1299 ई. में अलाउद्दीन ने अपने दो सेनानायकों उलूगखाँ और नुसरतखाँ को गुजरात पर आक्रमण करने के लिये भेजा था। गुजरात में प्राप्त धन संपदा के साथ जब शाही सेना वापस लौट रही थी तो जालौर के निकट लूट के माल के बँटवारे के प्रश्न पर नव-मुस्लिम (भारत में बसे मंगोल जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया था)सैनिकों ने विद्रोह कर दिया।

शाही सेना ने बर्बरता के साथ विद्रोहियों का दमन किया, परंतु उनके कुछ नेता भाग निकले और उनमें से मुहम्मदशाह और केहब्रू ने रणथंभौर के हम्मीर के यहाँ शरण ली। अलाउद्दीन की तरफ से विद्रोहियों को सौंप देने की माँग को हम्मीर ने ठुकरा दिया, जिससे सुल्तान क्रोधित हो उठा और उसने रणथंभौर के विरुद्ध सैनिक अभियान का आदेश दिया।

चंद्रशेखर कृत हम्मीर हठ के अनुसार अलाउद्दीन के सेनानायक मीर मुहम्मदशाह का सुल्तान की मराठा बेगम से प्रेम हो गया था। बेगम ने सेनानायक के साथ मिलकर अलाउद्दीन को समाप्त करने का षड्यंत्र रचा। परंतु अलाउद्दीन को समय से पहले ही षड्यंत्र की गंध मिल गयी। उसने सेनानायक को बंदी बनाने का निश्चय किया परंतु वह किसी प्रकार बचकर हम्मीर की शरण में चला गया। हम्मीर रासो (जोधराज) में सुल्तान की मराठा बेगम का नाम चिमना दिया गया है। जो भी कारण रहा हो, वास्तविक कारण राजनीतिक था।

एक तरफ हम्मीर अपनी शक्ति बढा रहा था और दूसरी तरफ अलाउद्दीन संपूर्ण भारत को अपने प्रभुत्व में लाने को आतुर था। अतः दोनों में संघर्ष होना स्वाभाविक ही था।

1299 ई. के अंत में अलाउद्दीन ने बयाना के गवर्नर उलूगखाँ को रणथंभौर पर आक्रमण करने का आदेश दिया। उलूगघाँ तत्काल ही दस हजार घुङसवारों के साथ रवाना हो गया। इसी समय सुल्तान ने कङा के मुफ्ती नुसरतखाँ को भी अपने सैनिक दस्तों के साथ उलूगखाँ की सहायता के लिये रणथंभौर जाने को कहा। दोनों की संयुक्त सेनाओं ने झांई पर आक्रमण किया जो कि रणथंभौर के मार्क की कुँजी था।

तुर्क सेना ने बिना किसी प्रतिरोध के इस नगर पर अधिकार कर लिया और इसे जी भर कर लूटा। हम्मीर महाकाव्य (नयनचंद्र) के अनुसार हम्मीर इस समय मुनिव्रत में व्यस्त था। अतः उसने अपने दो सेनानायकों – भीमसिंह और धर्मसिंह को मुस्लिम सेना की प्रगति को रोकने के लिये भेजा। राजपूत सेना ने शत्रु सेना पर जबरदस्त आक्रमण करके पीछे खदेङ दिया और लूट में प्राप्त सामग्री के साथ वापिस लौट पङी।

रणथंभौर के निकट पहुँचने पर उसे सूचना मिली की शत्रु संगठित होकर पुनः आगे बढने की तैयारी कर रहा है। इस पर भीमसिंह सेना सहित वापिस लौटा परंतु उलूगखाँ ने अद्भुत सूझबूझ तथा रणनीति से राजपूत सेना पर आक्रमण किया। इस आक्रमण के सामने राजपूतों के पैर उखङ गये और वे परास्त हो गये। भीमसिंह लङते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। मुस्लिम सेना को विजय अवश्य प्राप्त हो गयी थी लेकिन इस विजय का उसे कोई लाभ नहीं मिला।

इसामी हमें खिलजी सेनानायकों और हम्मीर के मध्य हुए पत्र-व्यवहार की जानकारी प्रदान करता है। चौहान विवरणों से भी इस स्थान की पुष्टि होती है। इसामी ने लिखा है कि रणथंभौर पहुँचने के पहले उलूगखाँ ने हम्मीर के पास पत्र भिजवाया था कि दिल्ली सुल्तान के मन में हम्मीर के प्रति किसी प्रकार का व्यक्तिगत द्वेष नहीं है और यदि वह शरणागतों को मौत के घाट उतार दे या उन्हें सौंप दे तो शाही सेनाएँ वापस दिल्ली लौट जायेंगी।

किन्तु हम्मीर अपने वचन का पक्का नकिला और उसने शरणागतों को सौंपने अथवा अपने राज्य से निर्वासित करने से इन्कार कर दिया। उसके मंत्रियों ने भी उसे अंतिम क्षण तक संघर्ष करने की सलाह दी परंतु अमृत कैलाश द्वारा रचित हम्मीर बंधन से पता चलता है कि राज्य के बहुत से सेठ साहूकारों तथा महाजनों ने हम्मीर को शरणागतों को सौंपकर युद्ध टालने की सलाह दी थी।

उनका तर्क था कि दिल्ली-सुल्तान अत्यधिक शक्ति संपन्न है और लंबे युद्ध को सहन कर सकता है। इसके विपरीत रणथंभौर की जनता को दीर्घकालीन संघर्ष के कारण अत्यधिक कष्टों का सामना करना पङेगा। परंतु हम्मीर ने उनकी कायरतापूर्ण सलाह को ठुकरा दिया। उसने किसी भी कीमत पर शरणागतों को सौंपना स्वीकार नहीं किया। उसने उलूगखाँ को संदेश भिजवाया कि वह सुल्तान से शत्रुता मोल लेना नहीं चाहता परंतु उसके भय से शरणागतों को सौंपने के लिये तैयार नहीं है।

समझौता – वार्ता की असफलता के बाद मुस्लिम सेना रणथंभौर दुर्ग की तरफ बढी और उसने दुर्ग का घेरा डाल दिया। उलूगखाँ ने दुर्ग से थोङी दूर पर ही अपना शिविर लगाया। किले के चारों तरफ पाशिब और गमगच बनवाये गये तथा मगरिबों द्वारा भारी पत्थरों की बौछार दुर्ग रक्षकों पर की जाने लगी। उधर हम्मीर ने भी दुर्ग की रक्षा की तैयारियाँ पूरी कर ली।

याहिया के अनुसार इस समय हम्मीर के पास 12,000 घुङसवार, हजारों पदाति तथा अनेक हाथी थे। अमीर खुसरो ने लिखा है कि हम्मीर के पास 10,000 घुङसवार थे। राजपूत सैनिक दुर्ग की प्राचीरों से मुस्लिम सेना पर निरंतर पत्थरों की वर्षा करते रहे। इसके अलावा वे भी प्रक्षेपास्र फेंकते रहते थे। संयोगवश पत्थरों की इस बौछार के दौरान मुस्लिम सेनानायक नुसरतखाँ को एक भारी पत्थर आ लगा जिससे वह अत्यधिक जख्मी हो गया और कुछ दिनों बाद मर गया। इससे शाही सेना में घोर निराशा फैल गयी।

हम्मीर ने शत्रु पक्ष की इस स्थिति का लाभ उठाते हुये दुर्ग से बाहर निकल कर उस पर जोरदार आक्रमण किया। उलूगखाँ इस अप्रत्याशित आक्रमण के लिये तैयार नहीं था। काफी क्षति उठाने के बाद वह सेना सहित वापस झांई की ओर लौट गया और अपनी सेना को पुनः एकत्र करने लगा। इसके साथ ही उसने सुल्तान अलाउद्दीन के पास नुसरतखाँ की मृत्यु तथा सेना की वापसी का समाचार भिजवाते हुए और सैनिक सहायता भिजवाने का अनुरोध किया।

अपने छोटे भाई उलूगखाँ से युद्ध की रिपोर्ट मिलने के बाद अलाउद्दीन ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुये, रणथंभौर की विजय का कार्य स्वयं अपने हाथों में लेने का निश्चय किया और उसने एक विशाल सेना के साथ दिल्ली से रणथंभौर के लिये प्रस्थान किया। मार्ग में तिलपत नामक स्थान पर वह अपने भतीजे अक्तखाँ के षड्यंत्र का शिकार होकर मरते-मरते बचा।

स्वास्थ्य लाभ करते ही वह तेजी के साथ रणथंभौर की तरफ बढा और उलूगखाँ से जा मिला। अलाउद्दीन ने दुर्ग के ठीक सामने वाली ऊँची पहाङी पर अपना शिविर लगाया तथा दुर्ग और अपने शिविर के मध्य स्थित खाई को पाटने का आदेश दिया। इसके बाद घेराबंदी का काम जोर-शोर के साथ मजबूत किया जाने लगा। परंतु हम्मीर भी सतर्क था। उसने खाई पाटने के सारे प्रयत्न बेकार कर दिये। दुर्ग से फेंके जाने वाले पत्थरों की मार ने खाई पाटने में जुटे सैकङों मुस्लिम सैनिकों के प्राण हर लिये।

अलाउद्दीन रणथंभौर का घेरा डाले बैठा रहा और दूसरी तरफ उशके विरुद्ध विद्रोह उठने लगे। उमरखाँ का विद्रोह, मंगूखाँ का विद्रोह और हाजीमौला के विद्रोह की सूचनाओं ने शाही शिविर में निराशा उत्पन्न कर दी। बदायूँ का सूबेदार उमरखाँ और अवध का सूबेदार मंगूखाँ ये दोनों ही सुल्तान के भाँजे थे।

वफादार शाही सेनानायकों ने शीघ्र ही उनके विद्रोह का कुचल दिया और उन्हें परिवारजनों तथा अनुयायियों सहित मौत के घाट उतार दिया गया। इस प्रकार, हाजीमौला नामक एक अधिकारी ने दिल्ली के कोतवाल का वध करके किसी सैय्यद को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया।

शाही सेना ने उसके विद्रोह का भी दमन कर दिया। परंतु इन तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी अविचलित रहते हुये अलाउद्दीन ने रणथंभौर की घेराबंदी को जारी रखा। फिर भी सफलता अभी काफी दूर थी। मुस्लिम सैनिकों को बहुत अधिक कष्टों का सामना करना पङ रहा था और एक-एक करके अनेक सैनिक शिविर से खिसकने लगे थे। ऐसी स्थिति में सुल्तान ने आदेश निकाला कि शिविर छोङकर जाने वाले शाही सैनिक को सजा तथा जुर्माने के रूप में अपने तीन वर्ष का वेतन देना होगा। इस आदेश के परिणामस्वरूप मुस्लिम सैनिकों का पलायन रुक गया।

एक वर्ष की लंबी घेराबंदी तथा समय-समय पर किये गये शौर्यपूर्ण धावों के बाद भी अलाउद्दीन को सफलता न मिली तो उसने छल-कपट तथा जालसाजी का सहारा लेने का निश्चय किया। उसने हम्मीर को संदेश भिजवाया कि वह अपने सेनापति (रतिपला) को संधि-वार्त्ता के लिये शाही शिविर में भिजवा दे।

चौहान साक्ष्यों से पता चलता है कि सुल्तान ने रतिपला को रणथंभौर दुर्ग देने का आश्वासन देकर अपने पक्ष में फोङ लिया। फरिश्ता भी इस कथन की पुष्टि करता है। कुछ अन्य लेखकों के अनुसार सुल्तान हम्मीर के एक अन्य सेनानायक रणल को भी अपने पक्ष में करने में सफल रहा। इन दोनों सेनानायकों के विश्वासघात के बाद उपरान्त भी अलाउद्दीन सरलता के साथ दुर्ग पर अधिकार नहीं कर पाया।

उसे अपने शिविर और दुर्ग के मध्य की खाई को पाटने का काम जोर-शोर के साथ पूरा करना पङा और तमाम बाधाओं के उपरान्ततक जा पहुँचे। इस बीच रणथंभौर दुर्ग में खाद्य सामग्री का भयंकर अभाव हो गया। अमीर खुसरो ने इसकी पुष्टि करते हुये लिखा है कि – सोने के दो दानों के बदले में भी चावल का एक दाना नसीब नहीं हो पा रहा था। कुछ चौहान रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया गया है कि अलाउद्दीन ने हम्मीर के एक अधिकारी सर्जनशाह को अपनी तरफ मिला लिया और उसने गुप्त रूप से खाद्य में हड्डियाँ डालकर खाद्यानों को अपवित्र कर दिया।

जो भी कारण रहा हो, इतना सही है कि मुसलमानों की दीर्घ घेराबंदी के कारण दुर्ग के भीतर खाद्यान्नों का संकट उत्पन्न हो गया था और ऐसी स्थिति में हम्मीर ने अधिक दिनों तक दुर्ग में बंद रहना उचित नहीं समझा। शत्रु पर अंतिम आक्रमण के लिये जाने से पूर्व राजपूत स्रियों के लिये जौहर की व्यवस्था की गयी। हम्मीर की रानी रंगदेवी के नेतृत्व में राजपूत रानियों ने जौहर की चिता में प्रवेश किया।

इसके बाद राजपूत सैनिकों ने केसरिया वस्र धारण किये और दुर्ग का फाटक खोलकर शत्रु से अंतिम मोर्चा लेने निकल पङे। दोनों पक्षों में आमने-सामने का जमकर युद्ध हुआ परंतु अल्पसंख्यक राजपूत अधिक समय न टिक पाये। हम्मीर वीरतापूर्वक लङता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। उसने जिन मुसलमान सरदारों – मुहम्मदशाह और केहब्रू को शरण दी थी, वे लोग भी अपने साथियों सहित सुल्तान की सेना से लङते हुये मारे गये। इसामी के कथनानुसार इस युद्ध में राणा हम्मीर के परिवार का कोई भी सदस्य जीवित बंदी नहीं बनाया जा सका।

11 जुलाई, 1301 ई. के दिन रणथंभौर पर अलाउद्दीन का अधिकार हो गया।

हम्मीर महाकाव्य के अनुसार जब युद्ध में सफलता की आशा न रही तो हम्मीर ने अपने ही हाथ से अपना शीश काट कर भगवान शंकर को अर्पित कर दिया। यह विवरण हास्यास्पद एवं अविश्वसनीय प्रतीत होता है, क्योंकि इसके विपरीत अन्य सभी साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि हम्मीर लङते-लङते वीरगति को प्राप्त हुआ था।

हम्मीर की मृत्यु के साथ ही रणथंभौर के चौहान वंश का अंत हो गया। हम्मीर की मृत्यु के बाद उसके विश्वासघाती सेनानायकों – रतिपला और रणमल को को अलाउद्दीन के सामने लाया गया। सुल्तान ने अपना वचन निभाने के स्थान पर उन्हें मौत की सजा दी।

उसका कहना था कि जो अपने स्वधर्मी राजा के प्रति निष्ठावान न रह सके उनसे भविष्य में स्वामिभक्ति की आशा कैसे की जा सकती है। परंतु सुल्तान ने घायल मुहम्मदशाह का उपचार करवाया तथा उसके सामने दया और क्षमा के प्रस्ताव रखे। परंतु उस वेदनामय स्थिति में भी मुहम्मद ने सुल्तान के सभी प्रस्ताव ठुकरा दिये।

क्रोधित सुल्तान ने उसे मौत की सजा दी। रणथंभौर दुर्ग पर अधिकार हो जाने के बाद अलाउद्दी ने अपनी धर्मान्धता का प्रदर्शन करते हुये मंदिरों और मूर्तियों को तोङने का आदेश दिया। अमीर खुसरो ने लिखा है कि कुफ्र का गढ इस्लाम का घर हो गया। दिल्ली वापिस लौटने के पूर्व अलाउद्दीन ने रणथंभौर दुर्ग तथा झांई का क्षेत्र उलूगखाँ को प्रदान कर दिया।

हम्मीर का मूल्यांकन

हम्मीर के बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं। हम्मीर महाकाव्य के लेखक न्यायचंद्र सूरी के अनुसार उसमें अनेक प्रशंसनीय गुण विद्यमान थे। वह ब्राह्मणों, विद्वानों एवं कलाकारों का आश्रयदाता था। वह भारतीय दर्शन, साहित्य एवं कला का संरक्षक था। उसने अपने दरबार में अनेक विद्वानों को आश्रय दे रखा था जिनमें बीजादिव्य नामक कवि भी था।

अन्य ऐतिहासिक साक्ष्यों से भी इसकी पुष्टि होती है। उसने बहुत से विद्यालयों तथा मंदिरों को बिना किसी भेदभाव के उदारतापूर्वक दान दिया। जहाँ तक एक सैनिक और सेनानायक के रूप में हम्मीर का मूल्यांकन का सवाल है, सभी विद्वान एकमत से उसे शूरवीर, योद्धा तथा रणनिपुण सेनानायक स्वीकार करते हैं।

वह अपने युग का एक आदर्श सेनानी था और उसमें अपने सैनिकों को नेतृत्व करने तथा उन्हें प्रोत्साहित करने की अपूर्व क्षमता तथा योग्यता थी। विपरीत परिस्थिति में भी धैर्य एवं साहस को कायम रखते हुये अपने बलशाली शत्रु से डट कर लोहा लेने का गुण उसमें विद्यमान था। परंतु एक शासक के रूप में कुछ इतिहासकारों ने उसकी आलोचना की है। उनके मतानुसार हम्मीर ने अपने अधिकारियों एवं कर्मचारियों की नियुक्तियों पर विशेष ध्यान नहीं दिया जिसके परिणामस्वरूप बाद में उसे धोखा खाना पङा।

डॉ.दशरथ शर्मा ने हम्मीर पर अमानवीयता का आरोप भी लगाया है। उनके अनुसार हम्मीर ने अपने शासन के अंतिम वर्षों में अपनी प्रजा पर अत्यधिक कर लगाये जिससे वह अलोकप्रिय हो गया। हम्मीर महाकाव्य से पता चलता है, कि प्रजा पर अत्यधिक कर लगाने में धर्मसिंह का हाथ था। धर्मसिंह हम्मीर से अपना बदला लेना चाहता था, क्योंकि जब वह मुसलमानों से पराजित होकर रणथंभौर लौटा तो हम्मीर से अपना बदला लेना चाहता था क्योंकि जब वह मुसलमानों से पराजित होकर रणथंभौर लौटा तो हम्मीर ने उसे अपमानित करके अंधा करवा दिया था।

कर-वृद्धि में चाहे जिसका हाथ रहा हो मुख्य बात यह है कि सुल्तान अलाउद्दीन जैसे सक्तिशाली शासक से दीर्घकाल तक लोहा लेने के लिये धन की आवश्यकता थी और तत्कालीन विषम परिस्थितियों में हम्मीर के लिये धन जुटाने का अन्य कोई विकल्प नहीं बचा था। अतः उसे न चाहते हुये भी प्रजा पर कर बढाने के लिए विवश होना पङा।

कुछ लेखकों का मत है कि हम्मीर ने महज अपने हठ के कारण सुल्तान से शत्रुता मोल ली मुस्लिम विद्रोहियों को शरण देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं था।

परंतु इस संदर्भ में हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि मध्यकालीन भारत में राजपूतों में पारिवारिक प्रतिष्ठा को कायम रखने, अपने वचन का पालन करने और शरणागतों को सुरक्षा में राजपूतों में पारिवारिक प्रतिष्ठा को कायम रखने, अपने वचन का पालन करने और शरणागतों को सुरक्षा का आश्वासन देने की परंपराओं का पालन किया जाता था।

कुछ लेखकों का विचार है कि भगोङे मुस्लिम सेनानायकों को शरण देकर तथा उनके माध्यम से दिल्ली सल्तनत की सेवा में नियुक्त नव-मुस्लिम सरदारों तथा सैनिकों को अपनी तरफ मिलाकर हम्मीर ने मुस्लिम शक्ति को विभाजित करने का कूटनीतिक प्रयास किया था। परंतु इस प्रकार के विचारों में कोई वजन प्रतीत नहीं होता।

क्योंकि जालौर के निकट होने वाले विद्रोह को बुरी तरह से कुचल दिया गया था और इसके तत्काल बाद दिल्ली में बसे न-मुस्लिमों, जिनका विद्रोह से कोई लेना-देना नहीं था, अमानवीय उपायों से मौत के घाट उतार दिया गया। उनकी शक्ति को पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया था।

डॉ.के.एस.लाल ने हम्मीर का मूल्यांकन करते हुये लिखा है कि हम्मीर राजपूताना के उन वीर पुत्रों में से है जो अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता की रक्षा के लिये मुस्लिम आक्रान्ता से लङते हुये वीरगति को प्राप्त हुए थे। एक बार उसने मुगल अमीरों को शरण दे दी और वह उन्हें उनके शत्रुओं के हाथों कभी नहीं सौंप सकता था। हम्मीर ने अलौकिक साहस के साथ युद्ध किया और जिस जाति का वह था, उस वीर जाति की पुनीत परंपराओं का उसने पालन किया।

हम्मीर की शूरवीरता तथा विषम परिस्थितियों में भी अपने वचन पर कायम रहना तथा अपने वचन को निभाने के लिये अपना सर्वस्व समर्पित कर देना, एक विस्मयजनक घटना है जो हमें पुराने युग की याद दिलाती है। उसकी स्तुति में एक कवि ने कहा है-

सिंह-सवन सत्पुरुष वचन कदलन फलत इक बार।
तिरिया-तेल, हम्मीर-हठ, चढे न दूजी बार।।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

Online References
wikipedia : हम्मीरदेव चौहान

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